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ऐसे ही नहीं बन जाते जननायक

Megha Sharma
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 28, 2025 18:42 pm IST
    • Published On अक्टूबर 28, 2025 18:42 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 28, 2025 18:42 pm IST
ऐसे ही नहीं बन जाते जननायक

राजनीति में शब्दों का दुरुपयोग और अपव्यय इतना आम हो चुका है कि अब किसी भी विशेषण या संज्ञा पर खुश या नाराज या हैरान होने की तबीयत नहीं होती. इसलिए जब आरजेडी ने तेजस्वी यादव को नायक या जननायक बताते हुए पोस्टर जारी किया या कांग्रेस ने अपने ट्ववीट में राहुल गांधी को जननायक बताया तो इस पर भी हैरानी नहीं हुई और जब विरोधियों ने इस पर एतराज किया तब भी यह पूछने का मन नहीं हुआ कि आख़िर वे जननायक किसे मानते हैं- या कुछ भी किसे मानते हैं?

लेकिन 'जननायक' शब्द हमें अपनी राजनीतिक अपेक्षाओं को समझने में भी मददगार हो सकती है और राजनीति के पराभव को भी. आजादी की लड़ाई के दौरान कई नेता हुए जिन्हें जननायक भले न कहा गया हो, लेकिन जननायक जैसी हैसियत जरूर मिली. गांधी, नेहरू, पटेल, भगत सिंह, चंद्रशेखर,सुभाष चंद्र बोस आदि के नाम इस कड़ी में तत्काल याद आ जाते हैं. शायद तब का भारतवर्ष नायक जैसी संज्ञा पर कम भरोसा करता था, जो नेता होते थे वे बंधु, महात्मा, नेता, चाचा, सरदार आदि कहलाते थे. यहां देशबंधु भी हुए, दीनबंधु भी हुए, नायक कोई नहीं हुआ. 

लेकिन आजादी के बाद जब तेजस्वी नेताओं की एक पूरी पीढ़ी विदा हो गई, तब बचे-खुचे नक्षत्रों में नायकों की तलाश शुरू हुई. आज़ादी के बाद जो कुछ बड़े नेता तत्काल याद आते हैं, उनमें विनोबा भावे, राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण रहे. विनोबा को कई लोग बहुत ठंडा मानते हैं, लेकिन विनोबा की ऊष्मा भीतर-भीतर जलती थी. वे उन गिने-चुने लोगों में थे जो गांधी से आंख मिलाकर बात कर सकते थे. गांधी उन्हें अपने बेटे की तरह मानते थे, उन्होंने उन्हें अपना आध्यात्मिक उत्तराधिकारी माना था. लेकिन विनोबा ने आज़ाद भारत में ख़ुद को राजनीति से अलग कर लिया और भूदान के यज्ञ में लग गए. वे संत कहलाए- लेकिन ऐसे संत जो शायद भारतीय राजनीति और लोकतंत्र के सबसे जरूरी युद्ध से दूर खड़े रहे. वे भी जननायक नहीं रहे. जयप्रकाश नारायण ने भी अरसे तक खुद को राजनीति से अलग रखा लेकिन सत्तर के दशक में जब वे आए तो बिल्कुल दूसरी आज़ादी के जनक की तरह आए. उन्हें भी जननायक नहीं, लोकनायक कहा गया. राम मनोहर लोहिया का भारत की समाजवादी राजनीति पर बहुत गहरा प्रभाव रहा, लेकिन वे कायदे से जननायक नहीं, बौद्धिकों के नायक थे. समाजवादी राजनीति ने उनसे बहुत सारे मुहावरे लिए, वह संतुलन नहीं लिया जो भारतीय लोकतंत्र की रस्सी पर समाजवाद को चलाए रखने के लिए ज़रूरी था. इस चर्चा में बाबा साहेब अंबेडकर को शामिल करें तो दलितों के लिए वे जननायक से कुछ ज़्यादा ही रहे. एक दौर में उन्होंने 'मूक नायक' के नाम से अख़बार भी निकाला.

बिहार में पिछड़ी राजनीति कर्पूरी ठाकुर को जननायक मानती रही. अब तो सब मानने लगे हैं, लेकिन एक दौर में उनकी पिछड़ी जाति को लेकर मज़ाक उड़ाया जाता रहा, तुकबंदियां की जाती रहीं. प्रधानमंत्री ने बिल्कुल अभी-अभी कर्पूरी ठाकुर को जननायक बताते हुए राहुल-तेजस्वी पर ताना कस दिया कि अब तो ज़मानत पर आज़ाद घूम रहे लोग कर्पूरी ठाकुर की उपाधि चुराने में लगे हैं. बीते दशक में जब अण्णा हजारे ने दिल्ली में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आंदोलन शुरू किया तो उनको भी सबने जननायक कहा. उन दिनों युवाओं में एक भोला सा वृत्तांत चल पड़ा था कि उनके दादा ने गांधी को देखा था, उनके पिता ने जयप्रकाश नारायण को और उन्होंने अन्ना को देखा है. यह अलग बात है कि अण्णा का जननायकत्व गुब्बारे जैसा साबित हुआ, उनके साथ ही लगी आलपिनों ने उन्हें फुस्स कर दिया.

दरअसल, जननायकों की भी अलग-अलग कसौटियां होती हैं, उनके अलग-अलग वर्ग होते हैं. महात्मा गांधी या नेलसन मंडेला दुनिया के लिए जननायक माने जा सकते हैं लेकिन कुछ जननायकों के अपने-अपने आधार होते हैं. यासिर अराफ़ात फिलिस्तीनियों के लिए जननायक थे तो इजरायल के लिए आतंकवादी. मार्क्स और लेनिन मार्क्सवादियों के लिए जननायक रहे लेकिन बहुत सारे दूसरे लोगों के लिए दूर खड़े नेता और विचारक. कई बार जननायकों की छवि भी बदलती है. अस्सी के दशक में राजीव गांधी से अलग होकर वीपी सिंह बिल्कुल मध्यवर्ग के जननायक की तरह उभरे. तब नारा दिया गया- 'राजा नहीं फ़कीर है, देश की तक़दीर है.' लेकिन जब उन्होंने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने की घोषणा की, तब वे इसी मध्यवर्ग के लिए खलनायक हो गए और पिछड़ों के लिए मसीहा. लालू यादव बहुत सारे पिछड़ों के लिए पिछड़ा और जननायक हैं तो बहुत सारे लोगों के लिए भ्रष्ट। मराठों के लिए बाल ठाकरे जननायक थे तो तमिलों के लिए रामचंद्रन. 

तो जननायक होना आसान नहीं होता. कोई बहुत लोकप्रिय नेता हो सकता है, किसी का जादू वोटरों पर चल सकता है, लेकिन सभी वर्गों में आम स्वीकार्यता और सबका सम्मान हासिल करने वाले ही जननायक कहे जा सकते हैं. सावरकर एक तबके में बहुत लोकप्रिय हैं लेकिन एक अन्य तबके में वे अंग्रेज़ों के पिट्ठू के रूप में देखे जाते हैं. इंदिरा गांधी को एक दौर में बहुत समर्थन मिला, उनके पराभव काल में उनके चापलूसों ने इंदिरा इज़ इंडिया का नारा भी दिया, लेकिन वे भी जननायक नहीं हो पाईं. प्रधानमंत्री मोदी बहुसंख्यक वर्ग में बेहद लोकप्रिय हैं, लेकिन जननायक शब्द उनके लिए भी उचित नहीं लगता.

तेजस्वी यादव या राहुल गांधी जननायक होना चाहें- इसमें कोई हर्ज नहीं. लेकिन जननायकत्व ऐसी इच्छा भर से हासिल नहीं किया जा सकता. उसके लिए बहुत बड़ा विश्वास अर्जित करना पड़ता है. तेजस्वी यादव निश्चय ही उम्मीद जगाने वाले युवा नेता के तौर पर उभरे हैं लेकिन उन्हें बहुत लंबा सफर तय करना है. जो मीलों का फासला है, उसमें अभी उन्होंने कुछ मीटर भी तय नहीं किए हैं. राहुल गांधी ने भी कांग्रेस की सियासत काफ़ी बदली है. कई अवसरों पर वे बहुत मानवीय, सज्जन और सरल दिखाई पड़ते हैं. मुद्दे भी वे ऐसे उठाते रहे हैं जो प्रगतिशील हों, सबको साथ लेकर चलने वाले हों, अपने चरित्र में लोकतांत्रिक हों. लेकिन उनके हिस्से भी एक लंबी यात्रा बाक़ी है. जननायकत्व दरअसल आप खुद अर्जित नहीं करते- वह आपका काम करता है. उसके लिए कई बार सतही राजनीति से ऊपर उठना होता है. अपने विरोधियों के प्रति भी उदार दृष्टि रखनी पड़ती है. आत्मश्लाघा से भी बचना पड़ता है. 

इतिहास में आपकी भूमिका तय करती है कि आप जननायक माने जाएंगे या नहीं. कई जननायक इतिहास के कूड़ेदान में भी फेंक दिए जाते हैं. जबकि कुछ जननायकों को वास्तविक सम्मान उनके निधन के बाद मिलता है. अंबेडकर की लगातार बड़ी होती छवि इसकी एक मिसाल है. सच तो यह है कि बिहार की राजनीति में फिलहाल यह बहस बेमानी है. भारतीय राजनीति के मौजूदा चरित्र को देखते हुए कुछ अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि फिलहाल इसमें किसी जननायक के उभरने की उम्मीद कहीं दीखती नहीं- पोस्टर आप चाहे जितने बनवा लें, ट्वीट आप चाहें जितने कर लें.

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