कहां खो गए वो धरना प्रदर्शन

भारत की राजनीति के कुछ मूल कतर्व्य हैं. महंगाई को बर्दाश्त नहीं करना है, भले दाम कम न हो लेकिन विरोध करते रहना है.

कहां खो गए वो धरना प्रदर्शन

फाइल फोटो

इस आलेख का नाम है फ्राइडे फ्लैशबैक. फ्लैशबैक फिल्मों में उस सिचुएशन का नाम है जब हीरो वर्तमान में खड़ा रहता है लेकिन उसकी आंखों पर ऐसी धुंध जमने लगती है कि वह धीरे-धीरे अतीत में चला जाता है. जब वह बच्चा होता है, या किशोर होता है या फिर जेल जाने से पहले वह कितना अच्छा होता है. अतीत के ऐसे कई सीन हिन्दी फिल्मों में फ्लैशबैक के रूप में दिखाए जाते हैं. कई बार इतने लंबे होते थे कि फ्लैशबैक में ही पहला हाफ निकल जाता है. जैसे ही हीरो या हीरोइन फ्लैशबैक से लौट कर आते हैं तो दोनों में से कोई एक सकपकाया हुआ इधर उधर देखता है और उनमें से कोई एक तेज़ी से मुड़ता हुआ दूसरी दिशा में चलने लगता है. फिर कहानी वहां से आगे बढ़ती है लेकिन तभी इंटरवल हो जाता है.

राम नाम सत्य है... राम का नाम तब भी सत्य था अब भी सत्य है मगर जो साल था तब भी झूठ था अब भी झूठ है. वो 2013 का साल था. अजीब साल था वह. किसी भूत की तरह श्मशान से निकल आता है. सिलेंडर की अरथी निकली थी. दाम 600 के आस पास था. अब उसी सिलेंडर का दाम 833 रुपया हो चुका है, मगर शवयात्रा निकालने वाले गायब हैं. दरअसल वो अरथी का अर्थ समझ चुके हैं. वो जानते हैं कि राजनीति झूठी है, राम का नाम सत्य है.
सोचिए 600 दाम हुआ था तब इन लोगों ने कमीज़ उतार दी थी, मनमोहन सिंह हाय हाय कर रहे थे. अब जब सिलेंडर 800 से अधिक का है, इनकी कमीज़ कहां पर है, पतलून कहां पर है, हम नहीं जानते हैं. अगर ये आपको दिखें तो मुझे बताइयेगा.

फ्राइडे फ्लैश बैक में हम उन दिनों की तरफ आपको ले चलेंगे जब पेट्रोल डीज़ल के दाम बढ़ा करते थे और तब क्या ज़ोरदार प्रदर्शन हुआ करता था. आज बहुत से लोग उस विपक्ष को खोज रहे हैं जो तेल के दाम बढ़ने पर प्रदर्शनों की संख्या बढ़ा देता था. यही बहुत से लोग आज के विपक्ष में उस विपक्ष को खोज रहे हैं जो 2014 के पहले प्रदर्शन करता था. पूछ रहे कि हे आज के विपक्ष तुम कल के विपक्ष की तरह क्यों नहीं हो. तुम्हें क्या हो गया है. वही ग्लोब, वही ग्लोबलाइज़ेशन मगर तेल के दाम को लेकर इतना अलग-अलग पिक्चराइज़ेशन. ऐसा क्यों है भाई.

आग की लपटों के हवाले कर दिया गया यह मोपेड. महंगाई के विरोध के इतिहास का वह गुमनाम नायक है जो अपने इश्योरेंस होने या न होने की व्यथा भी न कह सका. जला दी गई बस को यह भरोसा रहा होगा कि जल जाने दो सखी, गर मेरे जलने से डीज़ल फिर कभी महंगा न होगा. ये इंसान कितने ख़ुदगर्ज़ हैं. ख़ुदर्गज़ नहीं हैं इनका गोल क्लियर है. धुएं की ताप से इसलिए पीछे हट गए क्योंकि इन्हें पता है कि हम टायर जलाने आए हैं, जलने नहीं. प्लीज़ आप लोग मोपेड, बस और टायर की कुर्बानी याद रखिए. कभी फोरगेट मत करिए. हुई पीछे हट गए. ये जलाने आए थे, जलने नहीं. महंगाई के ये राजनीतिक विरोधी राजधानी एक्‍सप्रेस के सामने ही चले जा रहे थे. ट्रेन को पता था कि इस वक्त एक्सप्रेस ये लोग हैं, वो नहीं.

फ्लैशबैक फ्राइडे में हम याद कर रहे हैं 2010, 12 और 13 के साल को जब पेट्रोल और डीज़ल के दाम बढ़ते ही विपक्ष बर्दाश्त नहीं करता था. तब जब दाम 74 रुपये लीटर था रविशंकर प्रसाद साइकिल से चले थे, अब जब 80 रुपये है वे साइकिल से नहीं चल रहे हैं. बीजेपी के ही रामेश्वर चौरसिया ने साइकिल की साधना कर ली थी, कैमरे के लिए हैंडल संभाल लिया मगर अब इन्हें 80 या 89 रुपये प्रति लीटर पेट्रोल से कोई फर्क नहीं पड़ता होगा. ये कर्नाटक के मुख्यमंत्री हैं सदानंद गौड़ा, तब थे अब नहीं हैं, साइकिल चला रहे हैं. आज जब पेट्रोल ऐतिहासिक रूप से महंगा है उम्मीद है उनकी वो वाली साइकिल अभी काम में आती होगी.

हमने कुछ लोगों से पूछा कि क्या आप पेट्रोल के दाम के खिलाफ 2012-13 के प्रदर्शनों को मिस कर रहे हैं. अगर आप मिस कर रहे हैं तो फ्लैशबैक फ्राइडे ज़रूर देखिए.

भारत की राजनीति के कुछ मूल कतर्व्य हैं. महंगाई को बर्दाश्त नहीं करना है, भले दाम कम न हो लेकिन विरोध करते रहना है. लाइब्रेरी में महंगाई का विरोध करते हुए बीजेपी नेताओं के खूब वीडियो हैं. उस समय जब पेट्रोल के दाम 74 रुपये होते थे तो इतिहास गवाह है कि बीजेपी के नेताओं ने प्रदर्शन करने में कोई आलस्य नहीं किया है. उन प्रदर्शनों में जितने नेता शामिल थे, उनमें से कई मंत्री बन गए.

पुराने प्रदर्शन के विजुअल में कोई नहीं कह सकता कि सुषमा स्वराज सीरीयस नहीं हैं. विदेश मंत्री के चेहरे का पुराना गुस्सा बता रहा है कि वो महंगाई को लेकर कितनी सीरीयस रहती होंगी. उम्मीद करनी चाहिए वो आज भी सीरीयस होंगी. उनके प्रदर्शन में सर पर सिलेंडर लादे ये महिलाएं चली आ रही हैं. मीडिया के कैमरों को ठीक से दिखे कि सिलेंडर का ही दाम बढ़ा है इसलिए सर पर सिलेंडर लादे ये लोग सुषमा जी की सभा में बैठी हैं.

आज बिना सब्सिडी वाला सिलेंडर 833 रुपये का है. सितंबर 2012 में बिना सब्सिडी वाला सिलेंडर 750 रुपया का हो गया था. रसोई में किनारे रखे सिलेंडर को घर घर से खींच कर सड़कों पर लाया गया था. जब भी प्रदर्शन होता था कोई न कोई सिलेंडर लिए चला आता था.

पेट्रोल और डीज़ल बेलगाम हो चुका है. नई सरकार आई तो अंतराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत 115 डॉलर प्रति बैरल से घट कर 45-50 डॉलर प्रति बैरल पर आ गई. फिर भी कीमतों में कोई कमी नहीं हुई. लोगों ने समझना बंद कर दिया कि 115 डॉलर प्रति बैरल पर पेट्रोल 74 रुपये है तो 46 डालर प्रति बैरल पर तेल 70 रुपये प्रति लीटर क्यों है. अब उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि कच्चे तेल की कीमत तो सिर्फ 75 से 80 डॉलर प्रति बैरल है फिर पेट्रोल 89 रुपये प्रति लीटर कैसे हो गया. जबकि प्रति बैरल कच्चे तेल की कीमत 115 डॉलर भी नहीं हुई है. वित्त मंत्री अरुण जेटली ने उस वक्त एक प्रदर्शन में अर्थशास्त्र का फार्मूला बताया था. अब वही जेटली वित्त मंत्री हैं. कहते हैं कि अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के कारण ऐसा हुआ है. कहते नहीं बल्कि ब्लॉग लिखते हैं. अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां तो मनमोहन सिंह के समय भी थी. पर एक बात की दाद देनी होगी. पेट्रोल के दाम भले ही ऐतिहासिक रूप से सबसे ज्यादा हो गए हैं मगर पेट्रोल पंप से सरकार दूर नहीं गई है.

आप किसी भी पेट्रोल पंप पर जाइये, जैसे ही तेल भरा कर निकलेंगे, सामने प्रधानमंत्री मिल जाएंगे. कोई ऐसा पंप नहीं है जहां प्रधानमंत्री का पोस्टर मौजूद नहीं है. कई बार लगता है कि प्रधानमंत्री जी सब देख ही रहे हैं तो तेल के दाम का क्या विरोध करना. चलो भराओ और चुपचाप निकल लो. दाम बढ़ने से गैस का फायदा कम नहीं हो जाता. प्रधानमंत्री के इस पोस्टर को ध्यान से देखेंगे तो समझ आएगा. गैस का खर्चा रोज का 10-15 रुपया का है. महीने का 450. ये ज़रूरी है कि 833 रुपये वालों का हिसाब इस पोस्टर पर नहीं है.

पिछले साल जून में तय हुआ था कि पेट्रोल डीज़ल और गैस के दाम हर दिन तय होंगे. एक दिन में कभी इतनी वृद्धि नहीं हुई जितनी 7 सितंबर को हुई है. पेट्रोल की कीमत में 50 पैसे से अधिक की बढ़ोतरी हुई है. दिल्ली में ही पेट्रोल करीब 80 रुपये का हो गया है. कई छोटे शहरों में तो 87 से 89 रुपये के बीच मिल रहा है. वहां पर कोई भी साइकिल चलाकर प्रदर्शन नहीं कर रहा है.

2010 में तो महंगाई के खिलाफ़ महात्मा भी आ गए. महात्मा क्या वाकई महंगाई का विरोध करने आए थे. अब जब महंगाई काफी बढ़ चुकी है यहां महात्मा बनकर आए ये परमात्मा इनदिनों क्या कर रहे होंगे. उसी साल जुलाई में भारत बंद हुआ था. क्या लेफ्ट क्या राइट सब उसमें शामिल थे. एक ही मंच पर बीजेपी एक ही मंच पर सीपीएम. यूपीए की सहयोगी ममता बनर्जी भी सड़कों पर उतर गईं थी. रोज़ उनका बयान आता था कि दाम कम करो, जनता मरी जा रही है. महंगाई ने बीजेपी और लेफ्ट सबको एक कर दिया था.

फ्लैशबैक फ्राइडे में साल 2010 भी है जब जुलाई में भारत बंद हुआ था. उसी साल एक फिल्म आई थी पीपली लाइव. विद्वानों में आज तक यह मतभेद है कि वह फिल्म भारत की राजनीति और मीडिया की गोद से निकली थी या उस फिल्म से आज की राजनीति और मीडिया का सत्य निकला था. इसी फिल्म के एक गाने के साथ महंगाई डायन हो गई थी और हर प्रदर्श में महंगाई डायन हाय हाय हो रहा था. इन दिनों महंगाई उससे ज्यादा है मगर अब वह डायन नहीं, जानम है.

विजय गोयल. खुद को बाइक पर सेट करते हुए. एक बार पोज़िशन सेट होता है और गोयल का बाइक काफिला चल पड़ता है. बाइक पर बैठे विजय की रैली ठीक से कवर हो, इसके लिए कैमरे वाले कार की छत पर सवार हैं. रैली में कुछ भी हो सकता है इसलिए पुरानी कार लेकर आए हैं. कोई अपनी नई कार लेकर नहीं आता है. रार, इकरार और तकरार का माहौल है. गोयल बाइक पर चढ़कर शीला दीक्षित से इस्तीफा मांगने गए हैं. 1 सितंबर 2013 को दिल्ली में पेट्रोल 74 रुपये प्रति लीटर था. 1 सितंबर 2018 को 78 रुपये 68 पैसे हो गया. तभी लोग प्रदर्शन करने वाले इन बाइकर्स को खोज रहे हैं. विजय गोयल तो मंत्री हो गए लेकिन क्या इन कार्यकर्ताओं की भी तरक्की हो गई है, क्या उन्हें 79 रुपये पेट्रोल भराने में ज़रा भी तकलीफ नहीं हो रही है. उस समय रोज़ प्रेस कांफ्रेंस हुआ करती थी. बीजेपी की तरफ से रोज़ हमले होते थे. सरकार की तरफ से रोज़ बचाव होता था. जनता तब भी वही थी जनता अब भी वही है. बस सरकार में जो थे वो विपक्ष में हैं और विपक्ष में जो थे वो सरकार में हैं.

2014 से पहले तक बीजेपी में रहे यशवंत सिन्हा ने बीजेपी छोड़ दी है. उन्होंने ट्वीट किया कि पेट्रोल डीज़ल के दाम बढ़ रहे हैं, विपक्ष क्या कर रहा है. ऐसा लगा कि वे भी विपक्ष को मिस कर रहे हैं. कांग्रेस ने 10 सितंबर को भारत बंद का ऐलान किया है. क्या वो कुछ नया कहेगी या फिर वही कहेगी जो बीजेपी 2013 के साल में कहा करती थी.

पेट्रोल के दाम बढ़ते जा रहे हैं. लोग सहते जा रहे हैं. बल्कि लोग सहज होते जा रहे हैं. पूछने पर कोई कह रहा है कि तकलीफ है. मीडिया ने इस टॉपिक को छोड़ दिया है. अब दाम बढ़ने से सरकार की नाकामी नहीं होती है. तब दाम बढ़ने से सरकार की नाकामी होती थी. क्या दिन क्या रात प्रदर्शन ही प्रदर्शन हुआ करते थे. हम यह सब इसलिए दिखा रहे हैं ताकि अब जब भी पेट्रोल डीज़ल के दाम को लेकर प्रदर्शन हो तो आपको लगे कि अरे ऐसा तो कहीं देखा है, ठीक ऐसा ही कुछ सुना है लेकिन कहां देखा है, कहां सुना है, किससे सुना है और वो अब कहां हैं.

हमारा रुपया. अगस्त 2013 में एक डॉलर 68 का हुआ था, मुद्दा बन गया था. समझना मुश्किल हो रहा है कि अब जब एक डॉलर 72 रुपए का हो गया तो क्या सरकार की गरिमा गिर गई, प्रधानमंत्री की गरिमा गिर गई. क्या हुआ. क्या राजनीति में 2013 का साल तर्कों के खत्म होने का साल था. या उस साल ने बहुत चालाकी की. सबकुछ रिकॉर्ड कर लिया ताकि बाद में बता सके कि राजनीति में हमेशा तार्किक बात नहीं कही जाती है. नेता न विपक्ष में होकर सही बोलते हैं न सरकार में जाकर सही बोलते हैं.

सरकार में होने से सब सरकार नहीं हो जाते हैं. जो नहीं होना होता है वो सरकार में होने से भी नहीं होता है और नहीं होने से भी नहीं होता है. बाकी आप विपक्ष को खोज रहे हैं तो पहले खुद को भी खोजिए. हां मीडिया बदल गया है. मीडिया अब विपक्ष को गंभीरता से नहीं लेता. तब वह विपक्ष को सरकार से ज्यादा महत्व देता था. उसके पास जाता था. तब वह लोगों की रसोई में जाता था. खेतों में जाता था पूछने के लिए कि महंगाई बढ़ी है तो क्या तकलीफ है. कोई न कोई तो अब भी जाता होगा, हमारे रिपोर्टर तो अब भी जाते हैं शायद बाकियों के भी जाते होंगे.

पेट्रोल 80 रुपये लीटर मिलने लगा. डीज़ल पेट्रोल की तरह महंगा हो गया. वो कब 80 रुपये हो जाएगा पता नहीं. रुपये की हालत भी कमज़ोर है. मगर वो बात नहीं है जो तब हुआ करती थी. लोग बदल गए या फिर टीवी का स्क्रीन बदल गया. यह कार्यक्रम उन लोगों की याद में बनाया गया है जो नेता नहीं थे और आज भी नहीं हैं मगर नेताओं के बुलाने पर उन रैलियों में गए थे. पेट्रोल डीज़ल के दाम का विरोध कर रहे थे. वो आज कितने बेचैन होंगे. कितना मन करता होगा कि चलो प्रदर्शन करते हैं मगर जा नहीं पाते होंगे.

इनमें बेस्ट सिचुएशन में हैं नवजोत सिद्धू. बीजेपी में थे तो हाथी पर चढ़कर महंगाई का विरोध करने गए थे, अब कांग्रेस में हैं तो कर ही सकते हैं लेकिन कांग्रेस के नेता कपिल सिबब्ल तो किताब लिख रहे हैं, सड़क पर कब उतरेंगे.


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