ऐसा लग रहा था कि मालती का मुंह, मुंह नहीं एक कोयले से चलने वाला रेल का इंजन है, जो गर्मी से जल रहा है, जिसमें से शब्द नहीं दमा कर देने वाला और दमघोंटू काला धुआं निकल रहा है. इसी वजह से शायद मुझे वहां बैठने और सांस लेने में दिक्कत हो रही थी...
मालती, मेरी कॉलोनी में रोज आती है. वो यहां मालिश का काम करती हैं. जच्चा-बच्चा की मालिश हो या किसी बुजुर्ग की, वह पैसे लेकर मालिश करती हैं. मेरी बेटी की मालिश भी उन्होंने ही की थी. कल घर आई थीं, बहुत दुखी और मुरझाई हुईं भी... उन्होंने बताया कि उनकी बेटी को बच्चा होने के बाद टीबी हो गया. जब ससुराल वालों को पता चला कि वह बीमार है और उसका इलाज लंबा चलेगा, तो उसे मालती के पास छोड़ गए. जाते-जाते कह गए, 'तुम्हारी बेटी है तुम इलाज कराओ...'
मालती आंटी की माली हालत पहले ही ठीक नहीं, दो-दो बहुएं और तीन पोते-पोतियां हैं घर में. पति कुछ करते नहीं और बेटों की कमाई भी खास नहीं... तो घर को चलाने में मदद करने के लिए मालती सुबह और शाम मालिश करने का काम करती हैं.
उस दिन मालती की बातों के बाद में बहुत देर तक चैन से बैठ नहीं पाई. ऐसा लगा जैसे वह मेरे अंदर दबा हुआ कुछ कुरेद गई हों... मन में टीस सी भर रही थी, जैसे अंदर कहीं मवाद जमा हो और अचानक ही गले के पास आकर दुखने लगा हो... मैं सोच रही थी कि आखिर कब एक लड़की को घर मिलेगा. ऐसा लग रहा था जैसी लड़कियां अनाथ हैं, व्हाट्सऐप और सोशल मीडिया पर सेंटी कर देने वाले मेसेज (जिनमें बेटियों के बलिदान, त्याग वगैरह का खूब जिक्र होता है) आज मुझे पहली बार बकवास नहीं लग रहे थे. क्या सचमुच मेरे समाज में उनका कोई घर नहीं, उनके लिए कोई जगह नहीं... मां-बाप उसे लाड़-प्यार से बड़ा करते हैं ये कहते हुए कि तुम पराई हो, ससुराल वाले ये कहकर अपनाते हैं कि आज से ये हमारी बेटी है... लेकिन वह ठीक एक बिना कागजात के गोद ली हुई बेटी की तरह है, जिसे वे जब चाहें सौतेली कहकर उसकी मां के घर वापस छोड़ आते हैं.
जब तक वह ससुराल वालों की सेवा कर सकती है वह बेटी बनी रहती है, जिस दिन उसकी तबियत खराब होती है उसे तुरंत घर से बेदखल कर मां के घर जाने के लिए मजबूर किया जाता है... हो सकता है कि कुछ लोगों को लगे कि यह सिर्फ गरीब परिवारों में होता है. तो उन लोगों को मैं बता देना चाहती हूं कि हमारे देश में खुद को पढ़े लिखे, अमीर और समझदार करार दे चुके लोग भी ऐसा ही करते हैं. बहू बीमार हो तो पढ़े-लिखे परिवार में भी अक्सर उसे उसकी मां के घर जाने की ही सलाह दी जाती है... और सबसे दुख की बता यह है कि उस लड़की के खिलाफ ससुराल में सबसे पहले उठने वाली आवाज किसी और की नहीं दूसरी औरत की ही होती है, उसकी ननद, देवरानी या फिर जेठानी और ज्यादातर मामलों में खुद एक मां यानी उसकी सास...
मालती आंटी ने बताया कि जब उसकी सास बीमार थी तो उनकी बेटी ने जमकर उसकी सेवा की थी. लेकिन आज जब बेटी बीमार हुई, तो सास ने उसे 'उसके घर' का रास्ता दिखा दिया. वो रोए जा रही थीं और बोले जा रही थीं... उन्होंने मुझे कहा- '' बाबू की अम्मा, हमको एक बात समझ नहीं आती कि हमारी बिटिया का घर कौन सा है. रोज रोती है कहती है कि हमने मजूरी कर करके उनको पैसा दिया और वो ऐसा किए...'' मालती बोले जा रही थी और मैं सुने जा रही थी. उसने कहा- '' बाबू की अम्मा, जब तक वो उनका करती रही उनकी बहू थी, जिस दिन उनको इसका करना पड़ा वो हमार बेटी हो गई...''
मुझे लग रहा था जैसे ऐसे ही शब्द में रोज किसी न किसी की आंखों में देखती हूं, ऐसा ही धुआं रोज मेरे इर्द-गिर्द मंडराता है, उसे बस मौका चाहिए, एक मौका मेरे गले में घुसकर मेरा दम निकालने का... मालती के मुंह से इतना धुआं निकला था कि पूरा कमरा भर चुका था. मुझे चारों तरफ औरतों की आवाजें आ रही थीं- ''मेरा समाज मुझे जीने नहीं देता, वो मुझे मेरा घर नहीं देता, देता है तो मायका और ससुराल... मेरे समाज ने मुझे मजबूत नहीं डरपोक बना दिया है, इतना डरपोक कि मैं नौकरी करती हूं, सारे पैसे ससुराल पर खर्च करती हूं, बच्चे संभालती हूं, पति को, पति के घर वालों को खुश रखती हूं बस इस डर में कि कहीं मेरी कोई बात किसी को बुरी न लग जाए, सब मुझसे खुश रहें...''
पता नहीं क्यों हमारे समाज का एक अनगढ़ा पर पक्का नियम है कि जैसे ही घर में बहू आएगी वहां मौजूद पुरानी बहू सास बनकर उसे सताएगी. हर मां अपनी बेटी को खुश देखना चाहती है, चाहती है कि उसका पति उसके आगे-पीछे घूमे उसकी हर बात माने उसका हर काम में हाथ बटाए. लेकिन जैसे ही इस फिल्म में किरदार बदलकर बेटी की जगह बहू किया जाता है उसे वही सारी चीजें बेकार और बुरी लगने लगती हैं. अपने बेटे या बेटी के प्यार के आगे वह यह भूल जाती है कि बहू भी किसी की बेटी है... बेटी के लिए किया हर काम उसे सुकून देता है, तो बहू का हर काम वह मदद नहीं एहसान के तौर पर करती है...
कमरे में आने वाली आवाजें बढ़ती जा रही थीं, मैं जोर से चीख पड़ी- ''क्या जरूरत है उन लोगों को खुश करने की, जो तुम्हे हर समय जज करते हैं.'' मालती बोलते बोलते अचानक चुप हो गई, शायद वह कुछ नहीं समझी. कुछ पलों के लिए कमरे में कानफाडू सन्नाटा पसर गया. किसी को कुछ बोलते नहीं बन रहा था. फिर मालती उठी और चुपचाप चली गई, मुझे उस धुएं भरे कमरे में अकेला छोड़ कर...
(अनिता शर्मा एनडीटीवी खबर में चीफ सब एडिटर हैं।
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This Article is From Jul 12, 2017
ब्लॉग : क्या सचमुच हमारे समाज में बहू 'अनाथ' है...
Anita Sharma
- ब्लॉग,
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Updated:जुलाई 12, 2017 11:21 am IST
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Published On जुलाई 12, 2017 00:25 am IST
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Last Updated On जुलाई 12, 2017 11:21 am IST
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