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This Article is From Dec 29, 2016

हमाम में खींची गई फोटो जैसा है बीएसपी के खाते में 104 करोड़

Vinod Verma
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 29, 2016 16:30 pm IST
    • Published On दिसंबर 29, 2016 16:30 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 29, 2016 16:30 pm IST
प्रवर्तन निदेशालय ने 26 दिसंबर को बताया कि बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के खाते में नोटबंदी के बाद 104 करोड़ रुपये की बड़ी धनराशि जमा हुई है. बीएसपी प्रमुख मायावती के भाई के खाते में भी 1.4 करोड़ रुपये जमा होने की बात कही गई.

मायावती ने इसका जवाब भी दे दिया है कि पार्टी के खाते में जो कुछ भी जमा हुआ, उसका पूरा हिसाब-किताब उपलब्ध है. भाई के खाते के बारे में भी उन्होंने अपनी ओर से कुछ स्पष्टीकरण दे दिया है. भाई का किस्सा छोड़ते हैं. वह अलग मामला है. उसमें जो होना है, कानूनन होता रहे, लेकिन बीएसपी के खाते का मामला दिलचस्प है. वह इसलिए, क्योंकि राजनैतिक विश्लेषक इसे उत्तर प्रदेश के आसन्न विधानसभा चुनाव से जोड़कर देख रहे हैं. ख़ुद मायावती भी यही कह रही हैं.

ऐसा हो भी सकता है. अगर ऐसा है तो भी मायावती की पार्टी के फंड में आए पैसों की जांच होनी चाहिए. लेकिन सवाल यह है कि बाक़ी पार्टियों का क्या? क्या प्रवर्तन निदेशालय को इस एक मामले के बाद बाकी पार्टियों का ख़्याल नहीं आया होगा?

भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के बारे में तो ख़बरें भी छपीं कि नोटबंदी से पहले और नोटबंदी के बाद भी पार्टी के फंड में बड़ी राशियां जमा की गईं. राज्यों में ज़मीनें ख़रीदे जाने का ज़िक्र आया, तो नोटबंदी से ठीक पहले और नोटबंदी के बाद बीजेपी के खातों में कितने पैसे जमा किए गए? पैसा तो कांग्रेस, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी और आम आदमी पार्टी के खातों में भी आया होगा. किसने कितना पैसा जमा किया? यह आप और मैं नहीं जान पाएंगे, क्योंकि प्रवर्तन निदेशालय को बाकी पार्टियों पर शक नहीं है और आपके पास यह जानने का दूसरा कोई ज़रिया नहीं है.

जो कुछ भी पता चलेगा, वह तब पता चलेगा, जब पार्टियां बाद में चुनाव आयोग को पार्टी फंड का ब्योरा भेजेंगी, लेकिन उसमें यह ज़िक्र क़तई नहीं होगा कि कितना पैसा कब जमा हुआ. एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट बताती है कि बीजेपी के खाते में वर्ष 2013-14 में 170.86 करोड़ और 2014-15 में 437.35 करोड़ रुपये जमा हुए. कांग्रेस ने इसी दौरान क्रमश: 81.88 और 141.46 करोड़ जमा किए. आम आदमी पार्टी के खाते में तो सरकार बनने के बाद 275 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई. लेकिन यह पैसा आया कहां से? बस यही एक बात है, जो न एडीआर जान सकता है और न आप जान सकते हैं.

दरअसल राजनीतिक दलों ने अभूतपूर्व रूप से एकमत होकर यह व्यवस्था बना रखी है कि आम जनता यह न जान सके. राजनीतिक दलों पर सूचना का अधिकार (आरटीआई) भी लागू नहीं है. वे 20,000 रुपये से कम की राशि के बारे में ज़िक्र भी नहीं करते कि यह राशि कहां से आई. अगर मायावती आश्वस्त हैं कि उनकी पार्टी फंड में कोई गड़बड़ी नहीं, तो ज़ाहिर है कि उनके एकाउंटेंट ने पुख़्ता इंतज़ाम कर रखे हैं. ठीक इसी तरह के इंतज़ाम बीजेपी और कांग्रेस ने भी कर रखे होंगे. जब क़ानूनी रास्ता है, तो सबके लिए है.

यह चुनाव लड़ने वाले दलों के लिए भी है और चुनाव न लड़ने वाले दलों के लिए भी. हो सकता है कि कुछ राजनीतिक दल काले धन को सफेद करने के लिए बनाए गए हों, लेकिन उन पर अंगुली कौन उठाएगा और क्यों उठाएगा?

दरअसल पार्टी फंड का मामला एक ऐसे हमाम की तरह है, जिसमें सब नंगे हैं, और बराबर नंगे हैं. ईमानदार से ईमानदार भी, और बेईमान से बेईमान भी. लेकिन दिक्कत यह है कि हमाम में आप किसी एक को दूसरे से अलग कैसे करेंगे, और किस आधार पर करेंगे?

केंद्र सरकार के अधीन काम करने वाले प्रवर्तन निदेशालय के पास कुछ वजहें होंगीं कि उसने मायावती की पार्टी के खातों की न केवल जांच की, बल्कि उसे ग़ज़ब की फुर्ती से सार्वजनिक भी कर दिया. दरअसल, ये वजहें ही संदिग्ध दिखती हैं.

ठीक है कि हमाम में सब नंगे होते हैं, लेकिन उसके भी अपने कायदे होते हैं. हमाम में खड़ा कोई एक किसी दूसरे की फोटो खींचकर उस पर कोई आरोप कैसे लगा सकता है?

अगर यह उत्तर प्रदेश की राजनीति और हार के डर से पैदा हुई स्थिति है, तो भी यह ऐसा मामला है, जिस पर लोकतंत्र के हित में चिंता करनी चाहिए. वरना जिस भी दल का शासन होगा, वह अपने हर प्रतिद्वंद्वी को इसी तरह पटखनी देने की कोशिश करने लगेगा.

अगर किसी को ऐसा करना भी है, तो पहले वह हमाम से बाहर निकले. फिर से वहां न जाने के लिए निकले. और फिर वह हमाम के नियम-कायदों को बदलने की बात करे.

फिलहाल ऐसा होता दिख नहीं रहा है. ऐसी इच्छाशक्ति न अब तक किसी राजनीतिक दल ने दिखाई है, न आगे इसकी सूरत दिख रही है. यह एक व्यापक चुनाव सुधार का हिस्सा है, जो तयशुदा कारणों से बरसों से लंबित है.

विनोद वर्मा वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं...

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