अगस्त के पहले पखवाड़े में राजधानी दिल्ली के मंडी हाउस इलाके में स्थित एलटीजी ऑडिटोरियम में रंगमंच और उर्दू अदब के जाने माने हस्ताक्षर इरशाद खान सिकंदर की जयंती पर 'जिक्र-ए-इरशाद' कार्यक्रम का आयोजन किया गया. इस मौके पर उनके द्वारा लिखे गए लोकप्रिय नाटक 'ठेके पर मुशायरा' का मंचन किया गया.प्ले के दो शो हुए जिनका निर्देशन रंगकर्मी दिलीप गुप्ता ने किया.इन्हें देखने के लिए बड़ी तादाद में साहित्य और रंगमंच प्रेमी पहुंचे.
सिकंदर का साहित्यिक सफर
इरशाद खान सिकंदर एक मशहूर उर्दू शायर और गीतकार भी थे. पिछले दिनों 18 मई को अचानक दिल का दौरा पड़ने से उनका इंतकाल हो गया. उनके चाहने वालों ने उनकी यौम-ए-पैदाइश पर 'ठेके पर मुशायरा' का मंचन करवाया.
इरशाद खान सिकंदर का जन्म उत्तर प्रदेश के संत कबीर नगर जिले एक साधारण परिवार में हुआ था. बचपन से ही शेर-ओ-शायरी और नाटकों में उनकी दिलचस्पी रही. उन्होंने हमेशा अपनी रचनाओं के जरिए समाज के हाशिए पर खड़े वर्गों की आवाज बुलंद की. इरशाद खान सिकंदर की कलम ने सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियों पर करारा व्यंग्य किया. उनकी रचनाओं में हास्य, कटाक्ष और मानवीय संवेदनाओं का मेल देखने को मिलता है.'ठेके पर मुशायरा' और 'जौन एलिया का जिन' उनके मशहूर नाटक हैं.

'ठेके पर मुशायरा' को लिखा था उर्दू अदब के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर इरशाद खान सिकंदर ने.
इसके अलावा उनके दोनों गजल संग्रह 'दूसरा इश्क' और 'आंसुओं का तर्जुमा' पाठकों के बीच खास तौर से पसंद किए जाते हैं. इसी साल 'आंसुओं का तर्जुमा' के लिए इरशाद खान सिकंदर को 'अंतरराष्ट्रीय शिवना कविता सम्मान' से नवाजा गया था. उन्होंने रेडियो और टेलीविजन के लिए कई स्क्रिप्ट और नाटक लिखे.
स्त्रीवादी लेखिका, कवयित्री और स्तंभकार शोभा अक्षर, इरशाद खान सिकंदर को याद करते कहती हैं कि इरशाद साहब मनुष्य होने के जिस सबसे करीबी तत्त्व के हिमायती थे, वो तत्त्व है कला. कलाकार मनुष्यता का दर्जी होता है, वो आदमी में संवेदनशीलता और आत्मीयता को करीने से टांकने का काम करता है. मेरे लिए दिल्ली शहर उनके न रहने से फिर से बेगाना शहर हो गया है.
वो कहती हैं कि इरशाद खान सिकंदर इस दौड़ती-भागती दिल्ली में मोहब्बत का पेड़ थे, जिनको गले लगाकर, जिनकी सोहबत में बहुत कुछ महीन सीखने को मिलता था. अब हम उनकी गजलों, कहानियों और नाटकों से उनको जीते हैं.
'ठेके पर मुशायरा' नाटक की थीम और प्रजेंटेशन
'ठेके पर मुशायरा' नाटक में अदबी मंचों के बदलते स्वरूप, सियासी दखल और साहित्य के बाजारीकरण पर तीखा व्यंग्य किया गया है. इसमें समकालीन विडंबनाओं का टकराव साफ तौर से झलकता है.नाटक के कैरेक्टर्स में उस्ताद कमाल लखनवी साहब की शायरी दुनिया में ऊंची प्रतिष्ठा होते हुए भी किराए की अदायगी में तंगी झेलना, साहित्यकार के सामाजिक सांस्कृतिक संघर्ष को उभारता है. मैना सहगल नाम की शायरा उनकी गजलें खरीदकर मुशायरों में पढ़ती हैं और वाहवाही लूटती हैं, जिससे कला के वस्तुकरण पर करारा व्यंग्य होता है.
तेवर ख्यालपुरी, उस्ताद के घर में चाय परोसने वाले मेजबान के रूप में घरेलू माहौल और मंचीय व्यंग्य को जोड़ते हैं. राम भरोसे गालिब को विश्वकर्मा पूजा के मौके पर ठेकेदार छांगुर ऑलराउंडर के बुलावे पर बुलाया जाता है. वे वहां से अपमानित होकर लौटते हैं, जो बाजारी साहित्य और शुद्ध अदब की टकराहट का मार्मिक चित्रण है.छांगुर ऑलराउंडर अपने हल्के-फुल्के मंचीय अंदाज से दर्शकों को हंसी में डुबोते हैं, लेकिन साथ ही साहित्य के बदलते सरोकारों की ओर संकेत भी देते हैं.
शायरी और व्यंग्य का तड़का
नाटक में गीतकार शैलेंद्र के मशहूर गीत 'किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार..' की तर्ज पर एक नया गीत प्रस्तुत किया गया.इसके अंत में एक कलाकार ने चुटीले अंदाज में कहा, "अब गीत की अंतिम पंक्ति सुनिए, लेकिन विश्वास कीजिए यह पंक्ति इस देश के नेताओं के लिए नहीं है, किसी दूसरे देश के नेताओं के लिए है."

'ठेके पर मुशायरा' नाटक साहित्य के बाजारीकरण पर कराया व्यंग है.
कार्यक्रम के दौरान पेश किए गए संगीत और गायन ने दर्शकों को बांधे रखा. मंच पर बोले जा रहे उर्दू कलाम, जैसे 'भले ही हम आज घर पर ही तमंचा छोड़ आए हैं, मगर तुम क्या समझते हो कि पंजा छोड़ आए हैं!' और 'खुदा ने हुस्न वालों को बनाया अपने हाथों से, एक हम ही थे कमबख्त जो ठेके पर बनवाए गए थे' दर्शकों की जोरदार तालियों के बीच प्रस्तुत किए जा रहे थे.
याद आए चार्ली चैपलिन
शाम के दोनों शो में दर्शकों ने कलाकारों के संवाद, लहजे और मंचीय ऊर्जा को खूब सराहा. मंचन के बाद दर्शकों ने खड़े होकर तालियों से कलाकारों का अभिनंदन किया और इरशाद साहब को भावभीनी श्रद्धांजलि दी. कार्यक्रम में मौजूद साहित्यकारों और रंगकर्मियों ने उनके साथ बिताए पलों, किस्सों और रचनात्मक संघर्षों को साझा किया.
शोभा अक्षर बताती हैं कि यह नाटक कमान लखनवी पात्र के बहाने जिंदगी के उन पहलुओं से जूझते हुए दुनिया को कुछ प्रेम सरीखा दे जाने की जिद की कहानी है, जिनसे संघर्ष करते हुए अक्सर हम टूट जाते हैं. उन्होंने कहा कि उर्दू अदब से जुड़े होने के नाते इस क्षेत्र की जो चिंताएं इरशाद साहब को थीं, वही इस नाटक में मानो वे बारीकी से उतार देते हैं. दिलीप गुप्ता ने जिस तरह इसे मंच पर प्रस्तुत किया, उससे चार्ली चैपलिन का कथन याद आता है, 'जिंदगी एक त्रासदी है, लेकिन दूर से देखने पर एक हास्य.'
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