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This Article is From Aug 11, 2018

न्याय के लिए भटकते लोगों की दास्तां...

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 11, 2018 00:13 am IST
    • Published On अगस्त 11, 2018 00:13 am IST
    • Last Updated On अगस्त 11, 2018 00:13 am IST
सारी बड़ी बातों और बड़ी ख़बरों के बीच कभी ख़ुद को रख कर देखिएगा कि सिस्टम के जब चक्कर लगते हैं तब आपका क्या अनुभव रहता है. सैकड़ों की संख्या में लोग हमारे पास अपनी ऐसी कहानियां भेजते रहते हैं. पढ़ कर या सुनकर बहुत दुख भी होता है. काश सारा मीडिया इन्हीं की बातों को सरकार तक ले जाता तो सबको मना करने का अफसोस मुझ पर भारी न पड़ता. इसका सिम्पल कारण यह है कि सिस्टम ने लोगों को इस कदर पीस दिया है, कि उन कहानियों का पीछा करने, सारी घटनाओं के तार को जोड़ने में भी काफी वक्त लग जाए. फिर भी कभी कभी लगता है कि इस कहानी पर रुकते हैं. जहां तक संभव होता है एक बार कहते हैं आपके सामने. तो कहानी यह है कि 7 अगस्त को हमारे दफ्तर में मध्य प्रदेश के बुरहानपुर से हरिकृष्ण प्रेमचंद मंधिरमलानी जी और उनकी पत्नी चली आईं. सिस्टम ने इन्हें दीन हीन दिखते रहने का ऐसा अभ्यास करा दिया है कि मेरे सामने बैठने से भी संकोच करने लगे. मेरी उम्र इनके सामने खड़े रहने की थी, सो मैं खड़ा रहा, उनसे बैठने की गुज़ारिश करता है. मगर सिस्टम ने इनके भीतर की मनुष्यता को अपनी क्रूरता से इतना कुचल दिया है कि बोलने से पहले काफी देर तक गला भरा रहा. ऊपर से देखने पर लगा कि इन्हें आखिरी हद तक तोड़ दिया गया है मगर बात शुरू हुई तो पता चला कि तोड़ तो दिया गया लेकिन फिर से खड़े हो जाने का पहाड़ सा जुनून अब भी बाकी है. कितने दिन पहले की बात है, बस यही सवाल किया था कि साथ आए बेटे ने कहा कि अपराध के 521 दिन हो चुके हैं.

19 मार्च 2018 को भी हरिकृष्ण प्रेमचंद मंधिरमलानी और उनकी पत्नी दिल्ली आए थे मगर मुझसे मुलाकात नहीं हो सकी. यह इसलिए बता रहा हूं क्योंकि अब मैं आपको यही बताने जा रहा हूं कि इन दोनों ने अपनी बेटी के इंसाफ के लिए किससे कितनी बार मुलाकात की, कहां 85 दिन बिताए, फुटपाथ पर क्या बेचा मगर फिर भी इनका इरादा नहीं टूटा. ऐसी घनघोर उम्मीद कहां से बची रह जाती है खासकर उन लोगों में जिन्हें सिस्टम यकीन दिलाने पर तुला हो कि तुम्हारा कुछ नहीं होगा, जो करना है कर लो. यह मामला दहेज प्रताड़ना का है.
 
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ये बोसकी है. पुकार का नाम है. वैसे नाम प्रगति है. 32 साल की थी जब 22 मई 2016 को महाराष्ट्र के जालना निवासी विकास सादवानी से शादी हुई. एक साल बाद मायके से फोन आता है कि बेटी की तबीयत खराब हो गई. मां बाप जब तक उसके पास पहुंचते वह कोमा में जा चुकी थी. किसी को कुछ पता नहीं. ससुराल वाले कहते हैं कि शुगर के कारण बेहोश हो गई है. इलाज के दौरान पता चलता है कि बोसकी के पेट में बच्चा है. 10 दिन बाद भी जब बोसकी होश में नहीं आई तो परिवार उसे लेकर पुणे के रानी हॉल अस्पताल में गया. वहां पता चला कि बेटी बेहोश नहीं है बल्कि कोमा में जा चुकी है. 85 दिन उम्मीद में काट दिए कि क्या पता होश आ जाए. होश आ गया और फिर पता चलता है कि दहेज के लिए उसे मारा पीटा जाता था. अब बोसकी को होश आ चुका है. उसकी एक बेटी भी है. अब इसका वज़न काफी कम हो चुका है. अस्पताल से निकल कर व्हील चेयर पर वह सीधे पुलिस के पास पहुंचती है. केस दर्ज करती है. घटना के तीन महीने बाद.


प्रेमचंद कहते हैं, 'एक बार अचानक फ़ोन आया कि आपकी बच्ची का शुगर डाउन हो गया है आप जल्दी अकोला आईये. 5/3/2017 की बात है. हम लोग जैसे ही पहुंचे देखा कि हमारी बच्ची वेंटिलेटर में आखिरी सांस गिन रही थी. वहां हमें बताया गया कि उसकी शुगर डाउन हो गया. दो तीन दिन में कुछ नहीं हुआ तो कुछ दिन के बाद दूसरे अस्पताल ले गए लेकिन वहां भी कुछ नहीं हुआ. हमने कहा कि दूसरे बड़े अस्पताल जो मुंबई हैं और पुणे में हैं वहां ले जाते हैं. लेकिन ससुराल वालों ने मना कर दिया. हमलोगों ने अपनी बच्ची की रिपोर्ट को लेकर पुणे में एक डॉक्टर को बताया. डॉक्टर ने कहा कि यह बहुत गंभीर मामला है और तुरंत एडमिट करना पड़ेगा. हम पुणे ले गए और 85 दिन तक कोमा में रही. और जब होश में आया तो बताया की ससुराल में मारते थे, हस्बैंड भी मारता था, सास ससुर भी मारते थे.'

एक आदमी की ज़िंदगी में क्या क्या होता है, अगर आप इस कहानी को पूरा सुन लेंगे तो काफी देर तक सोचने के लिए मजबूर हो जाएंगे कि हम सरकारों को लेकर इतनी मारा मारी करते हैं लेकिन एक अकेले आदमी को इंसाफ क्यों नहीं मिलता है. यही नहीं, जब बेटी अस्पताल में थी तो एक रिश्तेदार प्रबंधन पर दबाव बनाने लगे कि अस्पताल से डिसचार्ज करा दो. इनका कोई लेना देना नहीं था मगर ज़बरन अस्पताल से निकलवाने लगे. मगर मां बाप अड़ गए कि होश आने के बाद जब बच्चे की डिलिवरी होगी तभी यहां से निकलेंगे. इस कहानी में बहुत कुछ सीखने के लिए है. पुणे शहर में ये परिवार 20 मार्च 2017 को पहुंचा और 28 जुलाई 2017 तक अस्पताल में रहा. 147 दिनों तक इलाज कराया. अस्पातल के टेरेस पर या इधर उधर जगह देखकर सो लेता था. कुल 37 दिन ऐसे गुज़रे होंगे जब एक शाम का खाना भी मुश्किल से पति पत्नी और बेटे को मिला होगा. यह बात जब अस्पताल के कैंटिन वाले रोशन लाल को पता चली तो उसने मैनेजमेंट से बात कर तीनों शाम का खाना खिलाना शुरू कर दिया. इस दौरान बच्ची कोमा से बाहर आई, एक बच्ची की मां बनी. नवजात बच्ची का नाम हरमंदिर रखा गया. यह परिवार अपने दुखों को संख्या में बदल चुका है. दिन, महीने और मदद के लिए आए लोगों की सबकी गिनती तैयार है. बेटे केशव ने बताया कि पुणे के 15-16 लोगों ने खूब मदद की. किसी ने 1000 दिए तो किसी ने 10,000. पुणे में एक गुरुद्वारा है. बालीरोड गुरुद्वारा. यहां के किसी शंखपाल सिंह को पता चला तो इनसे मिलने आए. गुरुद्वारे में ठहराने की पेशकश की. रविवार को संगत के लिए आए लोगों से जो भी जमा हुआ 8-10 हज़ार रुपया वो सब इन्हें दे दिया. सिस्टम इन्हें तोड़ रहा था तो समाज के गुमनाम लोग टूटने से बचा रहे थे.

हरिकृष्ण प्रेमचंद जी की बुरहानपुर के गुजराती मार्केट में खिलौने की दुकान थी. प्रेम स्टोर. बेटी के इलाज के दौरान यह दुकान बंद हो गई. पुणे में 147 दिनों तक ज़िंदा रहने के लिए खुद भी कुछ करना था. प्रेमचंद जी ने इस तूफान में भी अपने हुनर को नहीं छोड़ा. वे सुबह 7 बजे पुणे से दक्कन एक्सप्रेस पकड़ कर मुंबई जाने लगे और शाम को 8 बजे तक उसी ट्रेन से पुणे आ जाते थे. खूब खिलौने भर कर लाते थे और शनिवार और रविवार के दिन वहां के जीजामाता उद्यान में आने वाली भीड़ को बेचा करते थे. सबको पता चल गया था कि एक ऐसा परिवार है जो अपनी बेटी के लिए इतना सब कुछ कर रहा है.

इस मुश्किल हालात में गाइनेकोलॉजिस्ट डॉक्टर संगीता तेंदुलकर का यह परिवार अहसानमंद हो गया है. प्रेमचंद जी अपनी तकलीफ की बात कम, संगीता तेंदुलकर की बात ज़्यादा करते हैं जिन्होंने इनकी बेटी की जान बचाई और अपनी फीस के ढाई लाख रुपये छोड़ दिए. संगीता को सरकार इनाम दे, इसके लिए वे कभी प्रधानमंत्री तो कभी राष्ट्रपति को पत्र लिखते रहते हैं. जो व्यक्ति खुद अपनी बेटी के साथ नाइंसाफी को लेकर टूटा हुआ है वो एक डॉक्टर की इंसानियत के पुरस्कार के लिए भी संघर्ष कर रहा है. भयंकर तूफान में घिरा एक इंसान इस कदर रचनात्मक हो सकता है, यह समझने के लिए अगर आपको इनके एक-एक शब्द सुनने चाहिए. सुनिए कि कैसे यह शख्स इंसाफ के लिए यहां से वहां दौड़ रहा था. बेटी के बचने की दुआएं कर रहा था और अपने जीने के लिए जीवन को बचा रहा था.

प्रेमचंद ने बताया, 'दूकान माकन सब बंद था. होश आने के बाद 45 दिन के बाद डिलीवरी हुयी फिर कुछ दिन के बाद हम मध्य प्रदेश गये और पुलिस कम्प्लेन करवाया. लेकिन पुलिस ने कहा कि आप महाराष्ट्र के क्राइम सेल में शिकायत दर्ज करवाएं. फिर हम वहां पहुंचे और वहां के सांसद संजय दोतरे जी से मिले. सांसद बहुत अच्छे सज्जन थे. सांसद ने सभी बातें सुनीं. उनके किसी विधायक ने कहा कि समझौता कर लो. हम समझौता नहीं करना चाहते थे और नहीं किया. हम लोग बयान देने गए फिर हमारे बयान नहीं लिए गए. वहां खदान पुलिस स्टेशन पड़ता है. दोबारा हम अपनी बच्ची के साथ गए और बयान देकर आये और हमें बताया गया कि कार्रवाई होगी लेकिन अरेस्ट नहीं हुई. छह महीने के बाद पुलिस ने एक कमजोर FIR बनाया. जो धाराएं लगनी चाहिए वह पुलिस ने नहीं लगाई और केस को कोर्ट में डाल दिया. हमने यह भी कहा था कि केस हमारे होम स्टेट में होना चाहिए लेकिन हमारी बात को नहीं सुना गया. अभी तक न्याय मिलने की कोई उम्मीद नहीं लग रही है. वहां के किसी भी विभाग का कोई सहयोग नहीं है. केस फाइल होने से पहले ससुराल वालों ने जमानत ले ली थी. अभी 30 अगस्‍त को अपराधी पक्ष की पेशी है. मुख्य बात यह है कि अकोला में हमारी mlc नहीं हुयी. जब उसे गंभीर स्थिति में अस्पताल में एडमिट करवाया गया तब रूल के हिसाब से MLC होना चाहिए थी लेकिन ऐसा नहीं किया गया. सब कुछ दबा दिया गया. बच्ची के दांत टूटे हुए हैं. वह वेंटिलेटर पर थी और साधारण तौर पर आप जानते हैं कि वेंटिलेटर उसको लगाया जाता है जो आखिरी समय में पहुंच जाता है. दो दिन तक बच्ची ऐसे ही पड़ी रही लेकिन MLC नहीं हुई.'

मई 2016 का केस है. अगस्त 2018 आ गया है. किसी की गिरफ्तारी नहीं हुई है. उनकी बेटी प्रतिमा जिसके घर का नाम बोसकी है, एक-एक दिन संभाल रही है ताकि इंसाफ को देखने के लिए ज़िंदा रह सके. उसका वज़न 40 किलोग्राम तक पहुंच गया है. बाप दिल्ली दौड़ रहा है ताकि सुप्रीम कोर्ट इस केस को अकोला से बुरहानपुर ट्रांसफर कर दे. अब बेटी का वज़न इतना नहीं है कि बुरहानपुर से अकोला सुनवाई के लिए जा सके. हम 15 अगस्त के बिल्कुल करीब हैं. उस मुल्क को खुद से भी हिसाब देना चाहिए कि एक नागरिक की आज क्या हैसियत है. इस बात के लिए शुक्रिया अदा करना चाहिए कि इतना सब होने के बाद भी उसके अंदर तल्खी नहीं आई है. लोगों के लिए वही प्यार है और सिस्टम से वही नादान उम्मीद.

ये पट्टी देखिए. महाराष्‍ट्र के मुख्यमंत्री से मिलने के लिए गले में बांधने के लिए दी जाती है. हर जगह वैसे दी जाती है. प्रेमचंद और उनकी पत्नी सोनू 17-18 बार मिलने गए उसी का यह प्रमाण है. हर मुलाकात की पट्टी इन्होंने संभाल कर रखी है. एक दस्तावेज़ की तरह जिसे देखकर हमारा सिस्टम शर्म से सर झुका सके. वैसे उसे शर्म आती नहीं है.

एक आदमी जब इंसाफ की दौड़ शुरू करता है तो सबसे पहले मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और चीफ जस्टिस को पत्र लिखता है. उन पत्रों की रजिस्ट्री की रसीद और पावती का पत्र संभालने लगता है. हर बार चिट्ठी खोलता है कि इस बार इंसाफ आया होगा मगर निकलता आश्वासन है, आपका पत्र मिला, संबंधित मंत्रालय को भेज दिया गया है. आभार. लिखा होता है.

25.09.2017, सोमवार को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को पत्र भेजकर शिकायत की, लेकिन कोई जवाब नहीं आया. 14.10.2017 शनिवार को फिर से दो पत्र पुणे से मुंबई भेजा, 01.10.2017 को भी पत्र भेज चुका था. 14.12.2017 को स्वयं मुंबई मंत्रालय आकर पत्र दिया एवं पूर्व में भेजे गए पत्रों की जानकारी मांगी. तब हमसे कहा गया कि आपके पत्र मिले हैं, उसके बाद जांच के मेसेज आने लगे. 15.01.2018, सोमवार को पुन: मंत्रालय गए, 4 महीने बाद हमारा पत्र अकोला शाखा में बेवजह भेज कर कार्वाही न करते हुए हमारा समय ख़राब किया. 25.6.2018 सोमवार, मंत्रालय में बयानों में की गई उलटफेर का शिकायती पत्र दिया.

अब यही शख्स मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री को भी पत्र लिखता है. परेशान लोगों के पत्रों का क्या होता है, बेहतर है सरकार ही बता सकती है. लेकिन अपने मुख्यमंत्री से उम्मीद देखिए. सोचिए कि लिखते वक्त कितने आंसू गिरते होंगे कि वहां पहुंचते ही कार्रवाई हो जाए. प्रेमचंद जी ने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री को भी पत्र लिखे. उसका भी हिसाब भेजा है. 14.09.2017 गुरुवार पहला शिकायती पत्र भेजकर मध्य प्रदेश की बेटी के नाते प्रताड़ित स्थिति से अवगत कराया. 30.09.2017 शनिवार, पुन: पत्र भेजा, 08.11.2017 बुधवार को पुन निवेदन किया. 09.12.2017 शनिवार पुन: पत्र भेजकर साग्रह कार्रवाई के लिए कहा लेकिन जवाब नहीं आया. 02.01.2018 सीएम के हेल्पलाइन से भी पत्र भेजा, कोई सुनवाई नहीं.

लोग हर दिन का हिसाब रखते हैं. मुख्यमंत्री और कोई अधिकारी इस कार्यक्रम को देखेगा तो हंसी आएगी कि ये क्या कर रहा है. ऐसे तो हर दिन लाखों पत्र आते हैं. वही तो हम जानना चाहते हैं कि उन पत्रों का क्या होता है. क्या वहां किसी को इस बात से फर्क पड़ता है कि लोग कितनी उम्मीद से लिखते होंगे. फिर मुख्यमंत्री ही बताएं कि वे लोग जनता दरबार क्यों करते हैं. क्यों लोगों के आवेदन को खुद हाथ से लेते हैं. इसका मतलब है कि इन पत्रों की कुछ तो अहमियत होती होगी. एक साधारण से केस के लिए किसी को इस तरह से भुगतना पड़े तो फिर इस सिस्टम के साथ आपको भी सोचना चाहिए कि किसी दिन इंसाफ के लिए निकलेंगे तो आपके साथ क्या होने वाला.

(हरिकृषण प्रेमचंद जी कहते हैं, 'प्रधानमंत्री को हमने 17-18 बार लिखा है, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री को आठ-दस बार लिखा, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को आठ दस लिखा. लेटर सिर्फ रिसीव और फॉरवर्ड हो रहे हैं लेकिन कोई करवाई नहीं हुई है. हमने मोदी जो को लिखा है, ध्यान देने के लिए लिखा है, उनसे मिलना चाहते हैं. भारत वर्ष में ऐसा पहली बार हुआ जब ऐसे एक क्रिटिकल केस का डॉक्टर ने सही ढंग से इलाज किया और हमारी बच्ची और उसकी बच्ची बच गयी. कई लोगों ने फ़ोन किया, अमेरिका से फ़ोन आया, लंदन से फ़ोन आया.'

अब प्रेमचंद प्रधानमंत्री से अपनी बेटी के इंसाफ के लिए नहीं मिलना चाहते बल्कि उस डॉक्टर के लिए मिलना चाहते हैं जिसने सही इलाज किया और फीस माफ कर दी. इसी तरह बिहार के बैंकर आलोक चंदा की हत्या हो गई. ईमानदार बैंकर की ईमानदारी की पहचान मिले इसके लिए उनका परिवार दर दर भटक रहा है. उन्होंने इंसाफ की आस छोड़ दी है, चाहते हैं कि सरकार का सिस्टम उनकी इस शहादत को सम्मानित करे. कभी वे साइकिल यात्रा की बात करते हैं कभी नेताओं से मिलकर पत्र लिखाते रहते हैं.
 
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आपने हरिकृष्ण की कहानी सुनी, अब एक और हरिबिलास की कहानी सुनाता हूं जो हरि की नगरी मथुरा से आया था. हमारे ये दो हरि वो हरि नहीं है जो राज्यसभा के उपसभापति बनने के लिए मैदान में उतरे थे. उन दो हरि में से एक हरि हार गए और एक हरि जीत गए. मगर मेरी कहानी के ये दोनों हरि किसी से हारे नहीं हैं. ये ज़रूर है कि सब उन्हें हरा देना चाहते हैं.

दफ्तर के बाहर व्हीलचेयर पर बैठा यही शख्स हरिबिलास पराशर है. सुबह से ही आकर इंतज़ार कर रहा था. मथुरा से मिलने आए हैं. सुनकर ही ठिठक गया कि मैं इनके क्या काम आ सकता हूं. बातचीत शुरू हुई कि सिस्टम और समाज के बीच एक व्यक्ति के ज़िंदादिल संघर्ष की दास्तां के बीच हम सब हैरानी से भारत की राज्यव्यवस्था को किसी छल कपट की माया की तरह देखने समझने लगे. हरिबिलास मथुरा ज़िले के गांव ठोक सुनाई के रहने वाले हरिबली पराशार हैं. 2008 में रेलगाड़ी पर चढ़ते समय जूता फिसल गया और हरि के दोनों पावं कट गए. इसके पहले वो शूटर बनना चाहता था. देश के लिए ओलंपिक में पदक लेना चाहता था. एनसीसी में शामिल होकर वह अपने सपनों को परवान दे रहा था कि इसी रूट से वो एक दिन सेना में और फिर ओलंपिक में पहुंच जाएगा. पांव कट गए मगर हौसला नहीं हारा. वह सबको पत्र लिखता है. पत्र लिखता है तो उसकी रजिस्ट्री की रसीद नत्थी करके रख लेता है. अपने साथ बैग में पूरा रिकार्ड लेकर चलता है. एक दो सांसदों ने इसे फोन भी किया. मदद की बात भी कही मगर कुछ नहीं हुआ. हरि का कहना है कि सरकार के पास दिव्यांगों के लिए एक नीति है. मगर वो नीति व्हील चेयर और पेंशन बांटने की है. नौकरी देने की नहीं है. हरि को किसी ने बताया कि ट्विटर पर सबको लिखा करो. उसने ट्विटर हैंडल @haribilas89 से सबको फॉलो करना शुरू कर दिया. इसने उम्मीद नहीं हारी है. कहता है कि अब भी दंड बैठक करता हूं. एक बार नौकरी मिल जाए तो बस ओलंपिक तक भी पहुंच जाएगा.

प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री के दफ्तरों को भेजी जाने वाली चिट्ठियों का क्या होता है, यह जानना दिलचस्प रहेगा. उन लोगों को तो पता है कि चिट्ठी भेजने पर क्या होता है, आपको पता रहे तो बेहतर होगा. सिस्टम का सितम झेलते झेलते इन नागरिकों से मिलकर एक बात समझ आई. इनके पास शिकायतों का पुलिंदा तो बहुत ज़्यादा है मगर बातचीत में उम्मीदों का सैलाब नज़र आता है. ये वो लोग हैं जो लापरवाह व्यवस्था को रोज़ याद दिलाते हैं कि आपको एक दिन ज़िम्मेदार और जवाबदेह होना ही पड़ेगा. हरिकृष्ण और हरिबली के साहस को सलाम.

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