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This Article is From Aug 13, 2015

सुषमा का बचाव और सदन में प्रधानमंत्री की गैरमौजूदगी!

Reported By Hridayesh Joshi
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 13, 2015 01:12 am IST
    • Published On अगस्त 13, 2015 01:07 am IST
    • Last Updated On अगस्त 13, 2015 01:12 am IST
लोकसभा में आखिरकार ललित मोदी मामले पर स्थगन प्रस्ताव पर बहस हुई लेकिन हैरान करने वाली बात रही कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का बचाव करने के लिये सदन में मौजूद नहीं थे।

सवाल है कि अपने शीर्ष मंत्री पर लग रहे आरोपों का जब पार्टी बचाव कर रही थी तो प्रधानमंत्री सदन में क्यों नहीं थे। ऐसा भी नहीं था कि प्रधानमंत्री दिल्ली के बाहर किसी दौरे पर हों बल्कि जिस वक्त संसद में स्थगन प्रस्ताव पर बहस चल रही थी उस वक्त प्रधानमंत्री मोदी बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मिल रहे थे।

दिलचस्प है कि जहां सुषमा के पक्ष में बोलने के लिये पीएम सदन में नहीं थे वहीं लालकृष्ण आडवाणी सुषमा स्वराज के भाषण के वक्त उनका हौसला बढ़ाते देखे गये। भाषण खत्म होने पर उन्होंने सुषमा स्वराज की पीठ भी थपथपाई। आडवाणी ही नहीं, मुरली मनोहर जोशी भी सदन में मौजूद थे। क्या ये बीजेपी में आने वाले दिनों की राजनीति का संकेत है?

अगर प्रधानमंत्री मोदी ने सदन में रहकर बचाव किया होता तो सुषमा स्वराज की स्थिति और बेहतर होती। स्वराज ने अपने भाषण के आखिर में कहा कि उनका राजनीतिक सफर 38 साल की तपस्या है और इसमें कोई दाग नहीं है। इस मौके पर प्रधानमंत्री का खड़े होकर अपने मंत्री के पक्ष में यही बात कहना क्या स्वराज को अधिक मज़बूती नहीं देता।

यह इस पूरे मामले के सामने आने के बाद प्रधानंमत्री ने चुप्पी ही साधे रखी है। अरुण जेटली भी जब इस मामले में बोलने के लिये उठे तो वह भी सरकार का पक्ष रख रहे थे सुषमा का पक्ष नहीं। उनके बोलों से ये भी साफ नहीं हुआ कि क्या सरकार सुषमा स्वराज की मानवीय आधार पर की गई मदद की दलील वाली बात पर उनके साथ है? बल्कि सरकार तो सुषमा स्वराज की दलील से दूरी बनाते हुये दिखी।

सुषमा स्वराज एक कुशल वक्ता हैं। अपनी वाकपटुता से उन्होंने कई मामलों को ढकने की कोशिश की। फिर भी वह क्वॉत्रोकी और एंडरसन मामलों समेत कांग्रेस की गलतियों पर ही हमला करते दिखीं। जब अपने पति और बेटी के बचाव में बोलीं तो उसमें न तो धार थी न आक्रामकता। इस बारे में उनके बयानों को सावधानी से सुनने पर पता चल जाता है कि वह उतने आत्मविश्वास और मुखरता से नहीं बोल रही थी। इस पूरे मामले के उठने के बाद बीजेपी की अंदरूनी राजनीति की चर्चा भी लगातार हो रही है।

सुषमा स्वराज और अरुण जेटली के बीच तो शीतयुद्ध जगज़ाहिर है। तो क्या इसीलिये सुषमा स्वराज का सबसे तीखा हमला पी चिदंबरम और उनकी पत्नी नलनी चिदंबरम के मामले को लेकर था। जो राजनीति को समझते हैं वह बतायेंगे कि पी चिदंबरम पर हमले को सियासी नज़र से वित्तमंत्री अरुण जेटली पर निशाने के तौर पर देखा जा रहा है।

उधर एक सवाल ये भी है कि सरकार ने विपक्ष को इतने दिनों तक हंगामा करने का मौका क्यों दिया? क्या इससे सुषमा स्वराज कमज़ोर नहीं हुई। यही बहस अगर संसद में दो तीन दिन के हंगामे के बाद करा ली जाती तो शायद सुषमा स्वराज इतनी कमज़ोर न दिखती।

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