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This Article is From Oct 06, 2015

सुधीर जैन : कैसे जांचें चुनावी वादों की विश्वसनीयता...?

Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मार्च 23, 2016 15:38 pm IST
    • Published On अक्टूबर 06, 2015 17:14 pm IST
    • Last Updated On मार्च 23, 2016 15:38 pm IST
ऊंचे किस्म के राजनैतिक तबके में अच्छी सरकार के बारे में अंग्रेजी का एक टुकड़ा इस्तेमाल होता है, 'टु एन्श्योर द डिलीवरी ऑफ गुड्स...' इस बात का सरल हिन्दी में अनुवाद करें तो वह सरकार, जो अपने नागरिकों की बुनियादी जरूरतें पूरी करने का काम सुनिश्चित करे। इस बारे में सोच-विचार करने का तात्कालिक कारण हमारे सामने बिहार चुनाव में जारी घोषणापत्र हैं और अभी सवा साल पहले ही लोकसभा चुनाव में सनसनीखेज घोषणाओं के सहारे बनी सरकार के वादे हैं।

अपनी चर्चा में एक यह तथ्य और जोड़ लिया जाए कि लोकतांत्रिक चुनावी राजनीति में अब पहले जैसा जमाना नहीं रहा। देश या प्रदेश की, और उनके नागरिकों की परिस्थितियां क्या हैं, उनकी कौन-सी जरूरतें पूरी करने का काम पहला है, और यह काम किस मात्रा में कितने समय में पूरा करने की हमारी हैसियत है...? इस सबका हिसाब लगाकर चलना राजनीति के गुजरे जमाने की बात है। अर्थ-प्रभुत्व वाले नए युग में यह समय लोगों की जरूरत पूरी करने का नहीं, बल्कि लोगों में इच्छा पनपाने के हिसाब से राजनीतिक रणनीतियां बनाने का है।

इस बात को कह सकने का आधार या सबूत यह है कि चुनावी रणनीति में नवीनतम प्रबंधन प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल सबके सामने है। खासतौर पर मार्केटिंग या विपणन या माल बेचने में सहायक सारा ज्ञान, विज्ञान और प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल चुनावी रणनीति में होने लगा है। लेकिन यहां एक बहुत बड़ी और बारीक बात यह है कि आधुनिक प्रबंधन प्रौद्योगिकी ने उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं, बल्कि उनमें इच्छाओं को पैदा करने के उपाय ढूंढे हैं। बिहार के मौजूदा चुनावी घोषणापत्रों में वोटरों में जबर्दस्त इच्छाएं पैदा करने वाले वायदों की संख्या गिनने लायक है। हां, लोकसभा चु़नाव के दौरान काला धन वापस लाने और करोड़ों रोजगार पैदा कर देने के वादों की पोल खुलने के बाद आ रही भारी दिक्कत से यह सबक जरूर लिया गया है कि फिलहा़ल इस प्रजाति के वादों को खुलकर करने से अभी बचकर चला जाए। मसलन, कॉलेज के बच्चों को लैपटाप और स्कूटी बांटने के वादे में इनकी संख्या इतनी ही लिखी गई है, ताकि यह न लगे कि यह होगा कैसे, और देखने में इतनी कम भी न लगे कि सबको यह सामान नहीं मिलेगा।

11 करोड़ आबादी वाले बिहार में 28 साल से कम उम्र के युवाओं की संख्या ढाई करोड़ है, जिनमें लड़कियां सवा करोड़ हैं। स्कूटी चला सकने या स्कूटी की इच्छा पैदा किए जाने के बाद वैसी लड़कियों की संख्या 50 लाख से ज्यादा बैठती है। एक घोषणापत्र में पांच हजार स्कूटी का जिक्र है। खुदा न खास्ता स्कूटियां बाटने का बानक बन भी गया तो क्या लॉटरी जैसी हालत नहीं बनेगी...? वैसे सिर्फ मेधावी लड़कियों को ही स्कूटी बाटने का प्वाइंटर हल्के से लगा जरूर दिया गया है, लेकिन प्रचार का तरीका ऐसा है कि सभी में आकांक्षा या इच्छा का निर्माण कर दिया गया है। ऐसा ही लैपटाप के बारे में है। इसमें इच्छुकों का जनाधार बढ़ाने के लिए लड़कों को भी जोड़ दिया गया है। बिहार से पहले ऐसी घोषणाएं उत्तर प्रदेश में की गई थीं और जब वादा पूरा करने का बानक बन गया तो हालत ऐसी बनी कि कार्यक्रम रोकना पड़ा।

बिहार में चौबीसों घंटे बिजली का वादा भी आकर्षक है। अब तक के कामधाम और बीसियों साल की मशक्कत के बाद बिजली का आधारभूत ढांचा खड़ा जरूर दिखता है, लेकिन क्या कोई यह पूछने वाला नहीं है कि इतनी सारी बिजली कहां से पैदा होकर आएगी...? घोषणापत्र के ढेरों वादों को एक-एक करके देखना शुरू करेंगे तो बिहार के चुनाव की तारीख ही निकल जाएगी। लिहाजा यहां संक्षेप में उस फॉर्मूले का जिक्र कर लिया जाए, जिसे लगाकर हम किसी भी घोषणापत्र की विश्वसनीयता जांच सकते हैं। यह फॉर्मूला विश्वस्तरीय प्रबंध-पटु वैज्ञानिकों की शोधपरक खोज है और इसका इस्तेमाल उद्योग व्यापार की योजना बनाते समय दुनिया के विकसित देशों में होता है। व्यापार के क्षेत्र में विश्व के प्रसिद्ध प्रबंधन संस्थानों में इसे लक्ष्य प्रबंधन नाम से पढ़ाया जाता है। अंग्रेजी में 'गोल मैनेजमेंट' नाम से पढ़ाए जाने वाले इस पाठ में पांच बिन्दु हैं, जिनके पहले अंग्रेजी अक्षर को लेकर एक परिचित शब्द 'स्मार्ट' बन गया - एस एम ए आर टी...

•    एस, यानी स्पेसिफिक, यानी विशिष्ट, यानी विशेष रूप से केंद्रित...
•    एम, यानी मेज़रेबल, यानी जिसकी नाप-तौल की जा सके...
•    ए, यानी अचीवेबल, यानी जो हासिल किया जा सकता हो, यानी उपलब्ध संसाधनों में साध्य हो...
•    आर, यानी रिलाएबल, यानी जो विश्वसनीय हो...
•    टी, यानी टाइम बाउंड, यानी समयबद्ध हो...

बिहार के चुनावी घोषणापत्रों के वादों को उन-उन पार्टियों के घोषित लक्ष्य मानकर इन पांच बिन्दुओं के सहारे आसानी से जांचा जा सकता है। स्मार्ट गोल का यह फॉर्मूला देश के कम से कम 10 करोड़ युवाओं, जिनमें छह करोड़ शिक्षित युवा, जो सम्मानजनक रोजगार के लिए लाइन लगाकर खड़े हो गए हैं, उनके जानने-समझने के काम आ सकता है। यह फॉर्मूला आजादी के बाद क्रमिक रूप से बन रहे देश में अब तक के काम की समीक्षा के काम भी आएगा।

इतना ही नहीं, लक्ष्य प्रबंधन का यह फॉर्मूला हर साल दो करोड़ की रफ्तार से बढ़ रही जनसंख्या के कारण निकट भविष्य में मुंहबाए खड़ीं तीन प्रमुख चुनौतियों - बेरोजगारी, जल संकट और आकस्मिक आपदाओं - से निपटने की योजना बनाने के काम भी आ सकता है। यहां चुनावी घोषणापत्रों की समीक्षा के लिए इसका जिक्र किया जा रहा है।

तदर्थ और तात्कालिकता के लिहाज से बिहार का चुनाव ही फिलहाल सबसे बड़ा मुद्दा है, लिहाजा लगे हाथ बिहार के कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों पर ही गौर कर लिया जाए। मसलन, बिहार ऐसा राज्य है, जिसकी 85 फीसदी आबादी गांवों में बसती है। यह प्रदेश आपदा-प्रवण यानी प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशील है। परिस्थियां कैसी भी रही हों, यहां के नागरिकों को ज्ञान और विज्ञान के प्रति हमेशा से आकर्षण रहा है। वैसे कोई व्यवस्थित लेखा-जोखा हाल के हाल तो उपलब्ध नहीं है, लेकिन सामान्य अनुभव से यह बात निकलती है कि प्रदेश ने शिक्षण और प्रशिक्षण के क्षेत्र में वह सफलता हासिल कर रखी है कि उसके पास पर्याप्त विकसित मानव संसाधन हैं। इन तथ्यों के आधार पर बिहार के चुनावी घोषणापत्रों को जांचें तो ये सभी बातें विशिष्ट लक्ष्य के पैमाने पर नहीं दिखाई देतीं। एक-दो दिखती भी हैं तो वे नाप-तौल करने लायक नहीं हैं। कुछ नाप-तौल लायक हैं तो वे खर्चे के लिहाज से सुसाध्य नहीं हैं। बारहों महीने-चौबीसों घंटे बिजली जैसा लक्ष्य है तो देश में पर्याप्त बिजली उपलब्ध नहीं होने के कारण यह विश्वसनीय लक्ष्य नहीं है। इस पर कोई बहस करे तो उससे समयबद्धता के बारे में पूछा जा सकता है।

चाहे सार्थकता के लिहाज से देखें और चाहे आक्रामक चुनावी प्रचार अभियान के लिहाज से, चुनावी माहौल में जान आई नहीं दिखती। भारी-भरकम रकम खर्च होने के बाद भी वोटर उतने उत्साह में क्यों नहीं दिख रहे हैं, इसे अनुभवी चुनावी पंडित ही बता पाएंगे। फिर भी हम एक-दो संभावित कारणों की परिकल्पना कर सकते हैं। पहला यह कि सवा साल पहले ही लोकसभा चुनाव के दौरान सनसनीखेज चुनाव प्रचार अभियान चला था। वोटरों के मन में भारी उम्मीदें पैदा की गई थीं। सत्ता परिवर्तन के बाद छह महीने लोगों ने हर दिन इंतजार में गुजारा, और फिर गुजरते-गुजरते सवा साल गुजर गया, यानी आज माहौल कुछ इस ढंग का है कि अब जरा-सी बड़ी बात पर भी शक होने लगा है।

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