किसी भी सार्वजनिक बहस में सार्थकता तभी आती है, जब वह अपने वर्गहितों से ऊपर उठकर तार्किक आधार पर की जाए। अन्यथा उसकी सामाजिक भूमिका एक फूलझड़ी से अधिक नहीं रह जाती। वह मात्र एक बौद्धिक-विलास बनकर रह जाती है।
इस पृष्ठभूमि में अभी-अभी भारतीय ओलिंपिक संघ द्वारा फिल्म स्टार (अभिनेता नहीं) सलमान खान को अपना 'गुडविल एम्बेसडर' नियुक्त किए जाने की घोषणा से उत्पन्न बहस को देखा जा सकता है। यह बहस कबड्डी के खेल की तरह हो गई है - मध्य रेखा के इस ओर तथा मध्य रेखा के उस ओर। फिल्म जगत के लोग इस ओर हैं, तो उस ओर खेल जगत के लोग। विवाद का कारण है कि 'खेल के मैदान में एक फिल्म स्टार का भला क्या काम।' आइए, इस मुद्दे पर थोड़ा तटस्थ होकर बात की जाए।
फिल्म लेखक सलीम खान ने मिल्खा सिंह की तीखी आपत्ति को उनसे भी अधिक तीखे तरीके से खारिज करते हुए कह दिया कि 'इसी बॉलीवुड ने आपको गुमनामी से बचाया है।' इस वक्तव्य को दो कोणों से परखा जाना चाहिए। पहला यह कि यह वक्तव्य एक प्रबुद्ध फिल्मकार का ही नहीं, बल्कि सलमान खान के पिता का भी है। यानी कि मामला 'हितों के टकराव' का भी है। दूसरा यह कि उनके इस वक्तव्य का संबंध मुद्दे से, कम व्यक्ति से अधिक है। शायद वे कहना यह चाह रहे हैं कि 'तुम्हें फिल्म जगत का एहसानमंद होना चाहिए कि उसने तुम्हें फिर से जीवित कर दिया।' यानी कि सलमान का विरोध मिल्खा सिंह की एहसानफरामोशी है।
कुछ ऐसी ही बात सुनील शेट्टी ने भी कही। उन्हें कहना ही था, क्योंकि वे खुद इंडियन हॉकी के पूर्व ब्रैंड एंबेसडर रह चुके हैं। इसके विरोध में जाना अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारना होता। इसी टीम में शामिल अभिनेत्री और सांसद हेमा मालिनी का कहना है कि 'लोग उसे पसंद करते हैं। वह ब्रांड एम्बेसडर है, तो इसमें परेशानी क्या है।'
दरअसल परेशानी है, और यह जबर्दस्त स्तर की परेशानी केवल खिलाड़ियों को ही नहीं है, बल्कि उन सभी लोगों को है, जो थोड़े भी तार्किक हैं, और समाज के प्रति संवेदनशील हैं। गुडविल एम्बेसडर बनाए जाने के पीछे केवल प्रचार पाने के उद्देश्य को रखना इसे अत्यंत छोटा बना देना है। यदि यह भी है, तो ओलिंपिक संघ को यह क्यों लगता है कि उसे ओलिंपिक के लिए प्रचार करने की जरूरत है? क्या सचमुच ओलिंपिक इवेंट इतनी गुमनामी वाला इवेंट है? तो फिर उज्जैन में चल रहे कुंभ मेले का एम्बेसडर कोई क्यों नहीं है? यानी कि इस 'तथाकथित राजदूत' की आवश्यकता संदेह से परे नहीं है।
फिर सवाल आता है कि क्या उससे खेल का माहौल बनेगा, जैसा कि ऐसा करने वाले अधिकारी कहते हैं। वे शायद यहां कबीर की उलटवासी वाली भाषा बोल रहे हैं। उनसे सीधे-सीधे पूछा जाना चाहिए कि 'बताओ कैसे बनेगा? इससे तो फिल्मवाला (सलमान जैसा) बनने का माहौल बनेगा, क्योंकि वह तुरूप का पत्ता है। यह कुछ ऐसा ही है कि देश में विज्ञान के अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिए आलिया भट्ट को एम्बेसडर बना दिया जाए। सच तो यह है कि सलमान खान के एम्बेसडर बनने से न केवल खिलाड़ियों का मॉरल डाउन हुआ है, बल्कि उन्हें समाज में खिलाड़ियों की औकात भी बता दी है। क्या हमारे पास, इतने बड़े देश के पास सलमान के स्तर का कोई लोकप्रिय (स्टार) खिलाड़ी नहीं है? मेरीकॉम के बारे में आपका क्या ख्याल है? सलीम जी को यहां थोड़ा सोचना होगा कि प्रियंका चोपड़ा ने मेरीकॉम को अंधेरे से प्रकाश में लाया है, या कि मेरीकॉम ने प्रियंका की टोपी को एक पंख दिया है। उनका कथन 'बॉलीवुड के भयावह अहम्’ की ओर खुलेआम संकेत करता है।
समाज अपनी सम्पूर्णता में सांस लेता है, और स्वस्थ भी रहता है। इसके किसी भी पक्ष की उपेक्षा करके वह स्वयं को ही विकलांग बनाएगा। सलमान के सिनेमा को भले ही 'भारत के सिनेमा' के नाम से न जाना जाये, लेकिन जब एक खिलाड़ी मैदान में खेलता है, तो उसे 'हिन्दुस्तान' के नाम से जाना जाता है। प्लीज, जीवन में संतुलन के इस सिद्धांत को समझिए। किसी को अमरबेल बनाने के बचकाने एवं हास्यास्पद प्रयास बंद कीजिए। सभी को उनका स्थान मिलना चाहिए, न कि कुछ लोगों को सभी का स्थान।
डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
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This Article is From Apr 27, 2016
सलमान खान : सिनेमा के स्टार ओलिंपिक खिलाड़ी
Dr Vijay Agrawal
- ब्लॉग,
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Updated:अप्रैल 27, 2016 01:50 am IST
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Published On अप्रैल 27, 2016 01:50 am IST
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Last Updated On अप्रैल 27, 2016 01:50 am IST
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