ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी आतंकवाद को कुछ इस तरह से परिभाषित करती है कि आतंकवाद राजनीतिक मकसद साधने के लिये या सरकार पर दबाव डालकर कुछ कराने के लिये की गयी हिंसक गतिविधि है. आतंकवाद हिंसा का नपातुला इस्तेमाल करके डर पैदा करना है. इस परिभाषा के आधार पर मैं बीते हफ्ते मुंबई के पवई इलाके में रोहित आर्या नाम के शख्स ने जो कुछ भी किया उसे एक आतंकी हरकत मानता हूं. ऐसे लोगों को लोन वुल्फ (Lone Wolf) भी कहा जाता है जो अकेले ही किसी आतंकी वारदात की साजिश रचते हैं और उसको अंजाम देते हैं.
रोहित आर्या को महाराष्ट्र सरकार से शिकायत थी और सरकार तक अपनी बात पहुंचाने के लिये या अपनी बात मनवाने के लिये उसने आतंक का रास्ता अख्तियार किया. करीब तीन घंटे तक उसने 17 छोटे छोटे बच्चों को बंधक बना कर रखा, उन्हें और उनके माता-पिता को मानसिक तौर पर प्रताडित किया. आखिर उसका भी वही हश्र हुआ जो आमतौर पर आतंकवादियों का होता आया है. पुलिस की गोली ने उसे यमलोक पहुंचा दिया.
इस मामले में अब तक मैने अपने परिचित पुलिस अधिकारियों और साथी पत्रकारों से बातचीत और सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध तथ्यों के आधार पर जो भी जानकारी हासिल की है, उससे यही निष्कर्ष निकलता है कि रोहित आर्या पर पुलिस अधिकारी की ओर से गोली चलाना सही था, उस वक्त के घटनाक्रम की जरूरत था और कानून के दायरे में था. ये वे बिंदु हैं जो कि इस एनकाउंटर को जायज ठहराते हैं :
पुलिस ने रोहित आर्यो का जिंदा पकडने की कोशिश की थी
मरे आरोपी से जिंदा आरोपी का पकडा जाना हमेशा पुलिस के लिये फायदेमंद होता है. 26 नवंबर 2008 की रात अजमल कसाब गिरगांव चौपाटी पर जिंदा पकडा गया तब ही तुरंत पाकिस्तान में रची गयी साजिश का खुलासा हो पाया. इस मामले में भी पुलिस ने रोहित आर्या को जिंदा पकडने की कोशिश की. फोन पर करीब ढाई घंटे तक पुलिस अधिकारियों ने उससे बातचीत कर उसे समझाने का प्रयास किया. बंधक बनाये गये बच्चों के माता-पिता से उसकी वीडियो कॉल पर बातचीत कराई। एक अधिकारी ने बच्चों को छोडने के एवज में खुद बंधक बनने की पेशकश की, लेकिन आर्या नहीं माना.
बंधक ड्रामा लंबा खींचने की तैयारी थी
रोहित आर्या ने पवई के स्टूडियो में इस तरह के बदलाव किये थे कि वो लंबे वक्त तक बच्चों को बंधक बना कर रख सके. सीसीटीवी कैमरों को इस तरह से लगाया था कि पुलिस की ओर से की जाने वाली कोई भी हरकत उसे पता चल सके. अगर बंधक ड्रामा ज्यादा चलता तो भूख-प्यास और मारे जाने के डर के कारण बच्चों की तबियत बिगड सकती थी.
रोहित कोई स्थिर (Stationary) टार्गेट नहीं था
सवाल उठाया जा रहा है कि पुलिस ने रोहित के पैर पर गोली क्यों नहीं मारी. यहां ये बात ध्यान रखना जरूरी है कि वो कोई पुलिस अकादमी में टार्गेट प्रैक्टिस करने वाला डमी इंसानी पुतला नहीं था जिस पर निशाना साध कर गोली मारी जा सके। वो एक जीता जागता इंसान था जो कि लगातार अपनी जगह बदल रहा था.
पैर में गोली मारने से क्या होता?
अगर पुलिस उसके पैर में भी गोली मारती तब भी पिस्तौल उसके हाथ में थी. पैर में गोली लगने पर भी इंसान पिस्तौल का ट्रिगर दबा सकता है. फौज में ऐसी कई मिसालें हैं जहां सिपाही ने गोली लगने के बावजूद अपने हथियार से दुश्मन पर फायरिंग की. अगर रोहित आर्या के पैर में गोली मार भी दी जाती तो वो और ज्यादा हिंसक हो सकता था. उसके हाथ से चली गोली पुलिस अधिकारी या किसी बच्चे को लग सकती थी.
एयर गन भी जान ले सकती है
कई लोग तर्क दे रहे हैं कि रोहित आर्या के पास सामान्य पिस्तौल के बजाय महज एयर गन थी जिसका इस्तेमाल वो सिर्फ डराने के लिये कर रहा था. पहली बात ये कि उसके पास एयर गन थी, खिलौने वाली गन थी, पिस्तौल थी या रिवॉल्वर था, ये उसके पकडे जाने के बाद ही पता चल पाता. मौके पर उसका सामना करने वाले पुलिस अधिकारी के सामने तो आर्या एक हथियारबंद शख्स के रूप में मौजूद था जिसने 17 बच्चों को बंधक बनाया लिया था और वीडियो के जरिये धमकी दी थी कि वो उस परिसर को आग लगा देगा.
यहां इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि एयर गन से चलाई गोली भी जानलेवा हो सकती है और गोली अगर आंख में लगी तो रोशनी भी हमेशा के लिये जा सकती है. पुलिस ने किसी निहत्थे आदमी पर गोली नहीं चलाई. पुलिस के पास अपनी और दूसरों की जान बचाने के लिये गोली चलाने का कानूनी अधिकार है.
ये कोई पूर्व नियोजित एनकाउंटर नहीं था
इस एनकाउंटर की तुलना 90 के दशक में मुंबई पुलिस के विशेष एनकाउंटर स्पेशलिस्ट अफसरों की ओर से किये जाने वाले कथित एनकाउंटर्स से बिलकुल नहीं की जा सकती. वैसे एनकाउंटर्स हमेशा शक की नजर से देखे जाते थे और पुलिस पर आरोप लगता था कि आरोपी को पकड कर मारा गया.फर्जी एनकाउंटर के आरोप में कुछ पुलिस अधिकारी जेल भी गये. पवई का एनकाउंटर पूर्व नियोजित नहीं था. पुलिस की टीम रोहित आर्या की द्वारा बच्चों को बंधक बनाये जाने की शिकायत मिलने के बाद वहां पहुंची थी. तत्तकालीन घटनाक्रम के मद्देनजर पुलिस को बच्चों की सुरक्षा के लिये जो उचित लगा वो किया और ये फैसला कुछ पलों में ही लिया गया.
कमांडो कार्रवाई क्यों नहीं हुई?
मौके पर मुंबई पुलिस की क्विक रिस्पॉंस टीम (QRT) के कमांडो भी पहुंच गये थे. सवाल उठाया जा रहा है कि बच्चों को छुडाने के लिये कमांडो कार्रवाई क्यों नहीं हुई, स्थानीय पुलिस ने क्यों कार्रवाई की. ये सवाल ही बेमानी है. कमांडो और खाकी वर्दी वाले अधिकारी दोनों ही मुंबई पुलिस के अंग हैं. कमांडो टीम वहां ऐहतियातन बुलाई गयी थी. आमतौर पर कमांडो कार्रवाई तब वाजिब होती है जब आतंकियों की संख्या ज्यादा हो और उनके कब्जे में ज्यादा बडा परिसर हो.
न्यायिक परीक्षण के लिये तैयार रहे पुलिस
इस घटना के बाद कई लोगों को पब्लिसिटी हासिल करने का मौका मिल गया है. पुलिस पर आरोपों की शुरूवात हो गयी है. पुलिस इस तरह के मामलों में बडी आसानी से पंचिग बैग बन जाती है क्योंकि पुलिस अधिकारी राजनेताओं या पत्रकारों की तरह खुलकर अपने आप को अभिव्यक्त नहीं कर सकते. ये मामला भी अदालत की दहलीज तक पहुंचना लगभग निश्चित है. पुलिस के लिये भी ये बेहतर ही होगा कि वो इस न्यायिक परीक्षा से गुजर कर दूध का दूध और पानी का पानी हो जाने दे.
इस घटना के जरिये समाज का एक कडवा सच भी देखने मिला कि कई लोगों की सहानुभूति जहां होनी चाहिये उसके विपरीत थी (Misplaced Sympathy)। मेरी सहानुभूति उन बच्चों और उनके माता-पिता के साथ है और न कि बच्चों को बंधक बनाने वाले रोहित आर्या के प्रति. कई लोग पुलिस को ही कठघरे में खडा कर रहे हैं जबकि कठघरे में सिस्टम से जुडे उन लोगों को होना चाहिये जिन्होने रोहित आर्या को ऐसी हरकत करने के लिये मजबूर कर दिया जो समाज विरोधी थी, कानून विरोधी थी और जो उसके लिये जानलेवा साबित हुई.