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संकट के समय सत्ता-विपक्ष की एकता: क्या हम वो दौर खो चुके हैं?

डॉ. अजय कुमार सिंह
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 12, 2025 13:25 pm IST
    • Published On अगस्त 12, 2025 13:04 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 12, 2025 13:25 pm IST
संकट के समय सत्ता-विपक्ष की एकता: क्या हम वो दौर खो चुके हैं?

पहलगाम आतंकी हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ 'ऑपरेशन सिंदूर'चलाया. इसमें भारत ने पाकिस्तान में आतंकी और सैन्य ठिकानों को निशाना बनाया. लेकिन 10 मई को सरकार ने अचानक सीजफायर की घोषणा कर दी. इसकी जानकारी लोगों को सबसे पहले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के एक ट्वीट से मिली. इसके बाद से विपक्ष सरकार पर हमलावर है. उसका आरोप है कि सरकार ने अमेरिकी दबाव में सीजफायर किया, जबकि सरकार कह रही है कि तय लक्ष्य हासिल करने और पाकिस्तान की अपील पर सीजफायर किया गया. इस बात को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष आमने-सामने हैं. लेकिन भारत के संसदीय लोकतंत्र में यह पहला मौका नहीं है, जब सत्ता पक्ष और विपक्ष आमने-सामने हों. इस संसदीय लोकतंत्र में कई मौके ऐसे भी आए हैं, जब सत्ता पक्ष और विपक्ष एक सुर में भारत की बात बुलंद करते हुए नजर आए हैं. 

भारत की राजनीति में राजनीतिक सुचिता

साल 1977 के आम चुनाव के बाद लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने कहा कि जनता ने अपना फैसला सुना दिया है और अब हम इंदिरा पर राजनीतिक चोट करें, ये सभ्य समाज अनुमति नहीं देता.राजनीतिक सुचिता हिंदुस्तान के लोकतांत्रिक परंपरा की उपलब्धि रही है. ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं जब सत्ता शीर्ष पर बैठे लोगों को विपक्ष के प्रति उदारता दिखाने की जरूरत हुई या कठिन परिस्थितियों में विपक्ष के समर्थन की जरूरत पड़ी, यह देश एकजुट दिखा.

हाल के सालों में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच वैचारिक असमानता से इतर गहरा मतभेद दिख रहा है. पुलवामा, पहलगाम की आतंकी घटना हो या ऑपरेशन सिंदूर, सत्ता पक्ष और विपक्ष एक साथ नहीं दिख रहे हैं. यह लोकतांत्रिक व्यवस्था की साझी विरासत से अलग कहानी बयां करती प्रतीत हो रही है. सरकार कामकाज की समीक्षा और कार्यशैली पर सवाल खड़े करना विपक्ष का कर्तव्य है. इसके साथ हीं स्वस्थ लोकतांत्रिक मूल्यों की यह कसौटी भी है. देश की एकता और अखंडता के समक्ष चुनौतियां खड़ी हुई विपक्ष भी सत्ता पक्ष के साथ दिखा. 

पंडित नेहरू ने स्वीकार की सरकार की कमजोरी

जब अक्टूबर 1962 में भारत-चीन संघर्ष शुरू हुआ, तो राममनोहर लोहिया, अटल बिहारी वाजपेयी और अन्य विपक्षी नेता लोकतंत्र में एक आदर्श के प्रदर्शन के साथ सरकार के पीछे लामबंद हो गए. युद्ध के बाद इन्हीं नेताओं ने जवाबदेही की मांग करके विपक्ष की भूमिका भी निभाई. उन्होंने फॉरवर्ड पॉलिसी की आलोचना की, जिसके कारण युद्ध हुआ और यहां तक कि जवाहर लाल नेहरू के आदर्शवाद की भी आलोचना की गई.

संसदीय लोकतंत्र के एक सच्चे नेता की तरह नेहरू आलोचना और जवाबदेही से नहीं कतराते थे. युद्ध के बाद,नेहरू ने अपनी सरकार की कुछ नीतियों पर खेद व्यक्त किया, जिनके कारण युद्ध की स्थिति बनी.इसके साथ ही यह भी स्वीकार किया कि चीन के हमले के सामने भारत पूरी तरह तैयार नहीं था. 18 दिसंबर, 1962 को संसद में प्रधानमंत्री नेहरू के संबोधन के कुछ अंश हैं, जिसमें उन्होंने युद्ध में विफलता की जिम्मेदारी ली. नेहरू ने रक्षा तैयारियों और आदर्शवादी विदेश नीति की कमियों को स्वीकार किया. 

उन्होंने कहा, "मैं इस मामले में सरकार के आचरण की पूरी जिम्मेदारी लेता हूं. मैं देश की रक्षा तैयारियों में विफलता और कमियों के लिए दोष स्वीकार करता हूं.हम शायद बहुत आशावादी थे, शायद बहुत आदर्शवादी थे कि चीन शांतिपूर्ण तरीकों से सीमा विवादों को सुलझा लेगा. हमने उनके दृढ़ संकल्प और बल प्रयोग करने की उनकी इच्छा को कम करके आंका.''

लोहिया पर लग रहे आरोपों का किया खंडन

यह संसदीय लोकतंत्र की खूबसूरती है, संकट के समय में एकजुटता के साथ-साथ संकट के प्रति कार्यपालिका की जवाबदेही भी सुनिश्चित करती है.

जयप्रकाश नारायण ने 12 फरवरी 1952 को पंडित नेहरू को एक पत्र लिखा था. उन्होंने लिखा था कि कम्युनिस्ट कह रहे हैं कि राम मनोहर लोहिया पर सोशलिस्ट पार्टी के चुनाव के लिए हजारों अमेरिकी डॉलर लाने के जो आरोप लगे हैं, दरअसल इस अफवाह के लिए वाशिंगटन स्थित भारतीय दूतावास जिम्मेदार है. जयप्रकाश नारायण ने कम्युनिस्टों के आरोपों पर राममनोहर लोहिया का बचाव किया कि लोहिया को अमेरिकी दूतावास से धन मिला था. अनुकरणीय राजनीतिक संवेदना का प्रदर्शन करते हुए प्रधानमंत्री नेहरू ने मामले को गंभीरता से लिया. उन्होंने इसकी जांच की. पत्र के जवाब में नेहरू ने लिखा कि भारतीय दूतवास ने कभी ऐसा कुछ नहीं कहा. मैंने खुद भारतीय राजदूत विजयलक्ष्मी पंडित से इस बारे में पूछताछ की. नेहरू ने ये भी लिखा कि लोहिया जी की अमेरिका यात्रा चंदा इक्कठा करने के मकसद के अफवाह का खंडन उनके राजदूत ने स्वंय किया है. 

साल 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद में कहा था, "प्रधानमंत्री को अब देश को दुश्मन पर पूरी जीत दिलाने के लिए नेतृत्व करना चाहिए. यदि सरकार स्थिति को संभालने के लिए और अधिक शक्तियां सुरक्षित करना चाहती है, तो यह पार्टी अपना पूरा सहयोग देने में संकोच नहीं करेगी." उन्होंने इंदिरा को 'दुर्गा' के रूप में भी संदर्भित किया. दिसंबर 1971 में पाकिस्तान के आत्मसमर्पण के बाद इंदिरा गांधी संसद में पहुंचीं तो सदस्यों ने 'जय बांग्लादेश,जय इंदिरा' के नारों से उनके सम्मान में खड़े होकर उनका अभिनंदन किया. 

आपसी सम्मान और सौहार्द्र संसद और नीतियों से परे व्यक्तिगत स्तर तक भी था. साल 1988 में, राजनीतिक मतभेदों के बावजूद, प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी, जो गंभीर गुर्दा रोग से जूझ रहे थे, के प्रति संवेदनशीलता दिखाई. उन्होंने वाजपेयी को संयुक्त राष्ट्र महासभा के लिए भारत के प्रतिनिधिमंडल में शामिल किया. इसका उद्देश्य था कि वाजपेयी को अमेरिका में रहते हुए आवश्यक चिकित्सकीय देखभाल मिल सके. यह एक ऐसा क्षण था जब राजनीतिक मतभेदों से ऊपर उठकर मानवीय संबंधों की गहराई उजागर हुई.

तोड़ी दलगत राजनीति की सीमा

1990 के दशक के मध्य में जब देश की राजनीति गहरे ध्रुवीकरण के दौर से गुजर रही थी, तब भी कुछ नेता ऐसे थे जिन्होंने राष्ट्रीय हित को व्यक्तिगत या दलगत राजनीति से ऊपर रखा. एक उल्लेखनीय उदाहरण है जब प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी और मुलायम सिंह यादव जैसे अलग-अलग विचारधारा के नेता एक साथ आए और सुखोई-30 लड़ाकू विमानों की खरीद को अंतिम रूप दिया. यह सौदा भारत की रक्षा क्षमता के लिए एक मील का पत्थर साबित हुआ. 

इसी तरह का एक और प्रसंग अटल बिहारी वाजपेयी के बतौर विदेश मंत्री कार्यकाल का है. उन्होंने एक दिन देखा कि साउथ ब्लॉक की दीवारों से पंडित जवाहरलाल नेहरू की तस्वीर हटा दी गई है. उन्होंने इसे कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं बनाया, बल्कि शालीनता से कहा कि देश के पहले प्रधानमंत्री के सम्मान में वह तस्वीर फिर से लगाई जाए.यह एक विरोधी दल के नेता के प्रति उनकी व्यक्तिगत श्रद्धा और लोकतांत्रिक मर्यादाओं का उदाहरण था.

देश के अहम फैसलों में विपक्ष की सहमति जरूरी है. सत्ता पक्ष का यह दायित्व है कि देश की अस्मिता से जुड़े वास्तविक प्रश्न पर वह विपक्ष का विश्वास हासिल करे. विपक्ष की भी जिम्मेदारी बनती है कि देश की कठिन चुनौतियों के समय समालोचना की जगह बेहतर सुझावों के साथ विश्वास का हाथ बढ़ा कर सत्ता पक्ष का समर्थन करें.

अस्वीकरण: डॉक्टर अजय कुमार सिंह बिहार विधान परिषद के सदस्य हैं. वो राष्ट्रीय जनता दल से जुड़े हुए हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए  विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है. 
 

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