आख़िरी चरण का चुनाव प्रचार समाप्त हो गया. अब आपको एग्ज़िट पोल झेलने के लिए तैयारी करनी होगी. सीटों की संख्या को लेकर बड़े बड़े दावे किए जाएंगे जो 19 मई की शाम से लेकर 23 मई को नतीजे आने तक वैलिड होंगे, उसके बाद एक्सपायर हो जाएंगे. वैसे व्हाट्सएप ग्रुप में एग्ज़िट पोल तो कब से चल रहा है. खासकर पत्रकारों के, जो अपने हिसाब से किसी राज्य में चार सीट कम कर देते हैं तो चालीस सीट बढ़ा देते हैं. कई लोग किनारे ले जाकर पूछते हैं कि अकेले में बता दो किसकी सरकार बनेगी, सही बात है कि हमें नहीं मालूम है. इस चुनाव की एक ख़ास बात यह रही कि इंटरव्यू की ख़ासियत समाप्त हो गई. जो नेता अपने इंटरव्यू में जवाब नहीं दे रहे थे, वो दूसरे नेता के इंटरव्यू का मज़ाक उड़ा रहे थे. ये काम प्रधानमंत्री मोदी और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी दोनों ने किया. दोहरावन तिहरावन इंटरव्यू दिए गए. उनसे निकला कुछ ख़ास नहीं मगर हर इंटरव्यू एक्सक्लूसिव कहलाया. टेंट के पीछे वाला भी एक्सक्लूसिव था और कमरे में लाइटिंग के साथ वाला इंटरव्यू भी एक्सक्लूसिव था. ध्यान से देखिए तो इंटरव्यू को भी नेताओं ने रणनीति का हिस्सा बना लिया. एक दिन एक ही नेता के चार चार जगह पर इंटरव्यू हो रहे हैं. प्रवक्ता पीछे हो गए और उनकी जगह मेन लीडर ही कैमरे पर आ गए. शायद डिबेट के कारण प्रवक्ताओं की अहमियत कम हो गई इसलिए उनकी जगह बड़े नेताओ ने ही मोर्चा संभाला. प्रधानमंत्री का इंटरव्यू एक घंटे से लेकर डेढ़ घंटे तक का रहा तो राहुल गांधी का 20 मिनट से 35 मिनट तक का रहा. इंटरव्यू करने वाले एंकरों की खूब समीक्षा हुई कि उन्होंने प्रधानमंत्री और राहुल गांधी से किस तरह के सवाल पूछे. क्या उन सवालों में दम था या पत्रकार कलाकार नज़र आ रहा था. यह भी दर्शक के जीवन का हिस्सा हो गया है. दर्शक सिर्फ नेता का जवाब नहीं सुनता है वह एंकर के सवाल को भी तौल रहा होता है. यह अच्छा है. दर्शक जितना समझे उतना अच्छा है. लेकिन दर्शकों के समझने से इंटरव्यू के स्तर पर कोई फर्क नहीं पड़ा. एंकरों ने तब भी उसी लेवल के सवाल पूछे जिसकी आलोचना हो रही थी. प्रधानमंत्री मोदी से पूछे जाने वाले और राहुल गांधी से पूछे जाने वाले सवालों के तेवर में फर्क दर्शकों ने नोटिस किया. इंटरव्यू की विश्वसनीयता कितनी गिरी है और कितनी बढ़ी है इस पर रिसर्च हो सकता है.
दैनिक भास्कर में कावेरी बमज़ई का एक लेख छपा था, जिससे अंदाज़ा मिलता है कि मीडिया के स्पेस में किस पक्ष को कितनी जगह मिली है. कावेरी ने ब्रॉडकास्टर्स ऑडिएंस रिसर्च काउंसिल (बार्क) के रिसर्च के आधार पर यह विश्लेषण किया है. इसके अनुसार टीवी पर 1 से 28 अप्रैल तक प्रधानमंत्री मोदी ने 64 रैलियां की थीं. कांग्रेस अध्यक्ष ने 65 रैलियां की थीं. इस दौरान प्रधानमंत्री मोदी को 722 घंटे जगह मिली, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को 251 घंटे जगह मिली. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह तीसरे नंबर पर रहे जिन्हें 123 घंटे जगह मिली. कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी को 84 घंटे दिखाया गया. बसपा अध्यक्ष मायावती को 84 घंटे टीवी पर दिखाया गया.
इससे पूरी तस्वीर नहीं मिलती है मगर अंदाज़ा होता है कि प्रधानमंत्री मोदी की रैली और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की रैली को 845 घंटे जगह मिली और राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को 335 घंटे दिखाया गया. पूरी तस्वीर इसलिए नहीं है कि हम नहीं जानते कि इसमें क्षेत्रीय चैनलों को शामिल किया गया या नहीं. कावेरी बमज़ाई ने सिर्फ 11 हिन्दी चैनलों का विश्लेषण किया है. हम नहीं जानते कि अखबारों में क्या हुआ है. जो रिपोर्टिंग हुई है उसमें दर्शक या पाठक को सूचना देने वाले कार्यक्रम कितने थे या डिबेट के नाम पर हंगामा दिखाने वाले कार्यक्रम कितने थे. चंदे के हिसाब से भी देखना चाहिए. इलेक्टोरल बान्ड खूब बिका है. आप जानते हैं कि इलेक्टोरेल बान्ड बेचने के लिए सिर्फ स्टैट बैंक ऑफ इंडिया ही अधिकृत है.
2017-18 में बीजेपी को 210 करोड़ के इलेक्टोरेल बान्ड मिले. जबकि इस दौरान कुल बान्ड 221 करोड़ का ही बिका था. कांग्रेस को इसमें से मात्र 5 करोड़ का बान्ड मिला. जनवरी और मार्च में 1716 करोड़ का इलेक्टोरल बान्ड बिका है. 2018 में छह महीने में मात्र 1,056 करोड़ के ही बान्ड बिके थे. सारे चंदों को मिला दें तो 2017-18 में बीजेपी को 990 करोड़ का चंदा मिला. कांग्रेस को मात्र 142 करोड़ का चंदा मिला.
मीडिया और फंड के लिहाज़ से असंतुलन दिखेगा लेकिन ये हमेशा से भी रहा है कि सत्ता में जो है उसे फंड ज़्यादा मिलता है. ज़रूर बीजेपी और कांग्रेस के बीच फंड और मीडिया स्पेस की कोई तुलना नहीं की जा सकती है. सिर्फ पैसा और मीडिया से चुनाव तो नहीं होता. संगठन, उम्मीदवार और रणनीति का भी बड़ा रोल होता है. जिसके बारे में मीडिया को कम ही अंदाज़ा होता है कि बूथ के स्तर पर कोई पार्टी कैसे लड़ रही होती है. क्या कर रही होती है. लेकिन इससे भी चुनावी नतीजे बदल जाते हैं यह भी कोई ठोस फार्मूला नहीं है. चुनाव में हार और जीत कई कारणों से तय होती है. यह ज़रूर है कि टीवी के स्पेस से जो आपको चुनाव की जानकारी मिलती है वो बेहद अधूरी होती है. अब चुनाव हो गया है. कई राज्यों की तो कोई रिपोर्ट ही नहीं आई और टीवी देखकर पता ही नहीं चला कि वहां चुनाव हुआ है या नहीं. तो इन सब अंतरों और अंतर्विरोधों के बीच फेक न्यूज़ की क्या भूमिका रही, जिसके बारे में चुनाव से पहले काफी चर्चा हुई, क्या फेक न्यूज़ ने 2019 के चुनाव को निर्धारित किया, तय किया.
आल्ट न्यूज़ की एक छोटी सी टीम ने फेक न्यूज़ की छानबीन के मसले को काफी महत्वपूर्ण बना दिया. फेक न्यूज़ का इस्तमाल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण फैलाने में भी किया गया. एक तो बकायदा वीडियो पर आकर बोलने लगा कि उसके पीछे जो इमारत है वो राहुल गांधी की है. ये तो आल्ट न्यूज़ के इंस्पेक्टर थे जिन्होंने इस तरह का झूठ पकड़ लिया. प्रधानमंत्री मोदी को लेकर भी झूठे दावे किए गए कि वो गाली दे रहे हैं. आल्ट न्यूज़ ने बताया कि ये पूरी तरह गलत है. ट्विटर ने बहुत सारे फेक अकाउंट हटाए. प्रधानमंत्री के एक लाख फोलोअर को हटा दिया. राहुल गांधी के 9000 फोलोअर हटाया. अमित शाह के 16,500 फोलोअर हटा दिये. केजरीवाल के 40,000 फोलोअर हटा दिए. व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी पर क्या चल रहा है इसे लेकर कम ही रिपोर्टिंग हुई. फेसबुक ने भी कांग्रेस और बीजेपी के नकली पेज हटाए हैं. तो क्या 2019 का चुनाव फेक न्यूज़ मुक्त चुनाव हुआ.