कंगाली के कगार पर श्रीलंका, भारत के लिए क्या है सबक

जिन आर्थिक नीतियों के कारण श्रीलंका की तबाही आई है उसमें सभी सरकारों और दलों का हाथ है. आज की वैश्विक आर्थिक नीतियां लगता है कि एक ही किताब से हर जगह लागू की जाती हैं

पड़ोसी का घर जल रहा है. इसका मतलब यह नहीं कि अपने घर में आग लगाकर हम तापना शुरू कर दें. इसका मतलब है कि हम थोड़ा और सतर्क हो जाएं कि उस तरह की आग कहीं हमारे घर तक न आ जाए. जब तक सरकारें सुधार के नाम पर सब कुछ बेच रही होती हैं तब तक जनता का ध्यान उधर नहीं जाता लेकिन जब उसके नतीजे में जनता का घर जला तो वही जनता तो राजपक्षे के समर्थन में नारे लगाती है, उन पर और उनके परिवार के सदस्यों के खिलाफ नारे लगा रही है कि देश को मत बेचो. लेकिन जो बिकना था वो तो बिक चुका है. परिवारवाद को कारण बताया जा रहा है लेकिन जिन आर्थिक नीतियों के कारण श्रीलंका की तबाही आई है उसमें सभी सरकारों और दलों का हाथ है. आज की वैश्विक आर्थिक नीतियां लगता है कि एक ही किताब से हर जगह लागू की जाती हैं. जब तक अच्छा लगता है सौ दावेदार होते हैं, जैसे ही संकट आता है कोई जिम्मेदार नज़र नहीं आता है. क्या श्रीलंका के संकट के बहाने हम उन आर्थिक नीतियों की तरफ लौटने का साहस रखते हैं जिनके कदमों में हमने अपने सारे सपने गिरवी रख दिए हैं. 

तीन साल पहले जिस व्यक्ति को श्रीलंका ने भारी बहुमत से राष्ट्रपति पद पर बिठाया था उसी के खिलाफ जनता सड़कों पर हैं. तब गोटाब्या राजपक्षे श्रीलंका को सिंगापुर बनाने का सपना बेच रहे थे. पेशेवर लोगों को आगे कर जनता का विश्वास जीत रहे थे और तमिल जनता के खिलाफ गोलबंदी कर सिंहली और बौद्धों के ध्रुवीकरण से वोट हासिल कर रहे थे. धर्म की राजनीति और विकास के फर्ज़ी सपने ने राजपक्षे को भारी जीत दिला दी थी. उस राजनीति का ढोल इतनी जल्दी फट जाएगा किसी ने नहीं सोचा था. आप 2019 के विश्लेषणों को पढ़िए, पूर्व रक्षा सचिव राजपक्षे चीन के करीब थे, जनता जानती थी लेकिन उसे लगा कि यह नेता सेना की पृष्ठभूमि का है, धर्म के गौरव की बात करता है, श्रीलंका को 15 साल की आर्थिक सुस्ती से बाहर निकालेगा, हुआ उल्टा. कई लेखों में गोटाब्या राजपक्षे को मज़बूत नेता कहा गया है. श्रीलंका की सरकार के सभी मंत्री इस्तीफा दे चुके हैं. शेयर बाज़ार क्रैश कर गया तो बंद करना पड़ा.श्रीलंका की सरकार के पास आयात का बिल चुकाने के लिए पैसे नहीं हैं. जनवरी में मुद्रा स्फीति 16.8 प्रतिशत बढ़ गई और फरवरी में बढ़ कर 17.5 प्रतिशत हो गई. मुल्क के अलग अलग हिस्सों में 10-13 घंटे बिजली काटी जा रही है.चावल खाने वाला श्रीलंका चावल नहीं खरीद पा रहा है. श्रीलंकाई रुपये में एक किलो चावल 300 से 500 रुपये हो चुका है. महंगाई इतनी बढ़ गई है कि श्रीलंका की आधी आबादी एक वक्त का खाना भी नहीं ख़रीद सकती है. 55 प्रतिशत लोग दिहाड़ी कमाते खाते हैं. उनकी कमाई महीने की 22000 से भी कम है. इस सैलरी पर चार लोगों का परिवार दो हफ्ते भी गुज़ारा नहीं कर सकता है. श्रीलंका इस हालत में कैसे पहुंचा? 

भारत में भी कारपोरेट टैक्स कम किया गया ठीक उसी तरह से श्रीलंका में भी हुआ. डायरेक्ट टैक्स भी कम किया गया तो कुल मिलाकर वहां की सरकार का राजस्व 560 अरब रुपये कम हो गया. सरकार अपनी कमाई बढ़ाने के लिए ज्यादा से ज्यादा चीज़ों को टैक्स के दायरे में लाने लगी तो दाम बढ़ गए. वैट और जीएसटी में कितना अंतर है इसकी ज्यादा समझ मुझे नहीं है लेकिन एक उदाहरण यहां देना चाहूंगा. मलेशिया में भी जीएसटी लागू की गई लेकिन जब वहां पर छोटे कारोबारी बर्बाद हुए तो राजनीतिक मुद्दा बना और 2018 में इसके कारण वहां की सरकार बदल गई. मलेशिया से जीएसटी समाप्त कर दी गई. भारत में ऐसी आशंका जताई जाती है कि जीएसटी के कारण छोटे कारोबारी बर्बाद हो रहे हैं मगर हेडलाइन छपती है कि हर महीने कैसे जीएसटी का संग्रह रिकार्ड तोड़ रहा है. यह भी सही है कि व्यापारिक संगठन ने जीएसटी को लेकर इस तरह के गंभीर आरोप नहीं लगाए हैं. लेकिन श्रीलंका का संकट एक सवाल भारत के नागरिकों से करता है कि क्या हम आर्थिक जगत में हो रहे बदलावों को लेकर गंभीर रहते हैं. 

मिसाल के तौर पर भारतीय रिज़र्व बैंक की रिपोर्ट है कि पिछले सात साल के दौरान हर दिन 100 करोड़ का बैंक फ्राड होता है. एक अप्रैल 2015 से 31 दिसंबर 2021 के बीच  2.5 लाख करोड़ से अधिक की राशि का फ्राड हो गया. पर सोचिए ढाई लाख करोड़ रुपये कितने आम लोगों के होंगे, क्या ये पैसे इन्हें वापस मिले होंगे, क्या आपने कभी सवाल पूछा कि आनलाइन से पहले कितने लाख करोड़ का फ्राड होता था, अब क्यों होता है? ऐसा लगता है बैंक फ्राड अलग से एक उद्योग है. हर दिन सौ करोड़ का फ्राड. ऐसी खबरों से हम परेशान भी रहते हैं और नकारते भी रहते हैं कि हमारे साथ नहीं किसी और के साथ होता है. जैसे कि जो श्रीलंका में हुआ है वह भारत में कभी नहीं होगा. श्रीलंका की तरह तो नहीं होगा लेकिन उस संकट के निशान यहां तो मिल ही जाते हैं. श्रीलंका का संकट वहां के नहीं बल्कि यहां के भी नागरिकों से एक सवाल कर रहा है कि क्या इन आर्थिक नीतियों से जुड़े सवालों पर हम ध्यान देते हैं, तभी क्यों देते हैं जब सारा कुछ बर्बाद हो चुका होता है. 

जैसे कांग्रेस नेता पी चिदंबरम का यह ट्वीट कि पिछले 8 साल में मोदी सरकार ने पेट्रोल डीज़ल से 26 लाख 51 हज़ार 919 करोड़ का उत्पाद शुल्क वसूला है. भारत में करीब 26 करोड़ परिवार हैं. हर परिवार से उत्पाद शुल्क के रूप में एक लाख रुपये वसूले गए हैं. 

क्या आपके पास यह हिसाब तैयार है कि पिछले दो साल में पेट्रोल और डीज़ल के भयंकर दामों के कारण आपकी बचत का कितना हिस्सा हवा में उड़ गया. आप कितने ग़रीब हुए हैं? क्यों सरकार को पेट्रोल और डीज़ल पर इतना टैक्स लेना पड़ा था. क्या इसलिए कि कारपोरेट टैक्स कम किया गया था? भारत में महंगाई तो बढ़ ही रही है.यहां विपक्ष ही महंगाई का विरोध कर रहा है, उस विरोध में जनता नज़र नहीं आती है. ज़ाहिर है जनता महंगाई से परेशान तो है मगर विरोध प्रदर्शन से महंगाई कम होती है, उसका भरोसा उठ गया लगता है. पिछले चौदह दिनों में डीज़ल 8 रुपये 40 पैसे महंगा हो गया है. आल इंडिया मोटर ट्रांसपोर्ट कांग्रेस के महासचिव नवीन गुप्ता का कहना है कि पिछले दो हफ्तों में डीजल की कीमतों में अप्रत्याशित वृद्धि की वजह से छोटे और बड़े ट्रांसपोर्टरों के लिए ट्रांसपोर्ट बिजनेस करना बहुत मुश्किल हो गया है.

श्रीलंका में भी ट्रांसपोर्ट महंगा हो गया है. आम लोग बस का किराया नहीं दे पा रहे हैं, बच्चों को स्कूल नहीं भेज पा रहे हैं. महंगाई की नज़र से आप श्रीलंका को ही नहीं, भारत को भी देखिए. श्रीलंका की जनता पर्यटन से होने वाली आय के भरोसे बैठी थी. कोविड के दौर में पर्यटन बंद हो गया. सरकार चीन से कर्ज़ ले रही थी, ज़रूर वहां के नेता चीन-श्रीलंका संबंधों के नए युग टाइप भाषण दिया करते होंगे और आज वो सारे नए युग समंदर में गोते लगा रहे हैं. जनता को सड़क पर आना पड़ा है. 

जब उसकी कमाई और बचत साफ हो गई, खाने से लेकर दवा तक की चीज़ों को खरीदना उसके बस से बाहर हो गया. वर्ना जाति धर्म के झगड़ों में फंसी श्रीलंका की जनता और वहां की सरकार को लग रहा था कि जनता कभी भी आर्थिक मुद्दों को लेकर सड़कों पर नहीं आएगी. श्रीलंका का एक अखबार है डेली मिरर. इसके संपादकीय से वहां के हालात के बारे में कुछ अंदाज़ा होता है. अखबार लिखता है कि श्रीलंका ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से 16 समझौते किए हैं. यह समझौता पिछले दस बारह वर्षों के दौरान कई सरकारों के दौरान किया गया और आज के संकट में इसकी शर्तों की भी भूमिका है. IMF का दबाव था कि सरकार अपनी तरफ से निवेश कम करे, रोज़गार कम पैदा करे, कर्मचारियों की सैलरी न बढ़ाए और अपनी संपत्तियां बेचकर सब कुछ बाज़ार के हवाले कर दे. श्रीलंका अंतरराष्ट्रीय बाज़ार और पूंजी के सिस्टम की गोद में बैठ गया. नतीजा यह हुआ कि तमाम देशों संस्थाओं का कर्जदार बनता चला गया. सरकारी निवेश और सब्सिडी हटा देने से आम लोगों की आर्थिक शक्ति कमजोर हो गई. महंगे बिजली बिल और पेट्रोल डीज़ल के अधिक दाम के कारण जनता की बचत समाप्त हो गई. 

श्रीलंका के लोग भी अपने देश की हालत पर लतीफे बना रहे हैं. खूब मीम बन रहे हैं. भारत में भी लोग बना ही रहे हैं. ये वो हंसी नहीं है जो अपने हाल पर हंसी जाती है ये वो हंसी है जो मूर्खता के कारण हंसी जाती है. इसका सीधा मतलब है कि संकट से परेशान जनता IMF और अन्य वैश्विक संस्थाओं के दबाव में लागू होने वाली आर्थिक नीतियों में दिमाग़ नहीं खपाना चाहती है. अपनी इन्हीं लापरवाहियों के कारण भी जनता का यह हाल हुआ है.  

एक पुरानी रिपोर्ट में पढ़ने को मिला कि प्रो सेनाके ने आम लोगों तक सस्ती दवा और स्वास्थ्य की सुविधा पहुंचाने की एक योजना बनाई मगर अमेरिका के दबाव में सिरीमावो भंडारनायके की सरकार ने प्रोफेसर बिबिले को बर्खास्त कर दिया. उनकी मौत रहस्यमयी स्थिति में हो गई. बाद मे बिबिले की योजना कभी लागू नहीं की गई. लोकल दवा माफिया ने राजनीतिक दल को कई हज़ार करोड़ रुपये का चंदा दिया. आम लोगों की पहुंच से दवा तक बाहर हो गई. दुनिया की बड़ी दवा कंपनियों के आगे सरकार घुटने टेकने लगी और आम लोगों तक सस्ती दवा पहुंचाने की योजनाओं को बंद कर दिया गया. आंखें बंद कर वैश्विक आर्थिक नीतियों को लागू करने देने की सज़ा श्रीलंका भुगत रहा है. मुनाफे के लिए देश के कई हिस्सों को बेच दिया गया, जंगलों की कटाई होने लगी. रिश्वतखोरी बढ़ गई. श्रीलंका का आर्थिक पतन नैतिक पतन के साथ साथ हुआ. 

श्रीलंका का संकट आर्थिक नीतियों में भागीदारी की लापरवाही का भी है. जब तक संकट नहीं था तब तक जनता ऐसी नीतियों पर अपने नेता का चेहरा देखकर नारे लगाया करती थी अब संकट आया है तो नेता का विरोध हो रहा है. क्या भारत में आम जनता स्वास्थ्य के मुद्दों पर बहस करती है? क्या वो इस सवाल से टकराना चाहती है कि बीमा का कार्ड तो बन जाता है मगर अस्पताल कहां है, है तो डाक्टर और दवा कहां है, इन सब सवालों से भागते रहने वाली जनता एक दिन खुद ही घिर जाती है, उस अस्पताल में जहां कुछ नहीं होता और अपनों की जान दांव पर लगी होती है.

बिहार के पूर्वी चंपारण ज़िले का यह सदर अस्पताल है.मोबाइल फोन की रोशनी में सड़क दुर्घटना में आए मरीजों का इलाज किया जा रहा है.अस्पताल में भर्ती मरीज़ों की मानें तो दिनभर गर्मी से बेड पर छटपटाते रहे लेकिन किसी ने परवाह नहीं की. ज़रूरी नहीं कि ऐसी बातों पर हमारा ध्यान तभी जाए जब श्रीलंका की तरह सब बर्बाद ही हो जाए. यह तो भारत का ही अस्पताल है जहां टार्च की रोशनी में मरीज़ का इलाज हो रहा है और हम श्रीलंका से महान भी हैं. ये हमेशा नोट करते रहना है. क्या आप जानते हैं कि भारत में अनूसूचित दवाओं की कीमत तय करने के लिए एक संस्था है नेशनल फार्मा प्राइसिंग अथारिटी आफ इंडिया. इस संस्था ने दवाओं के दाम बढ़ाए हैं जिसके कारण 800 दवाएं 10.7 प्रतिशत महंगी हो सकती हैं. ये सभी अनिवार्य दवाएं हैं. दावे तो बहुत हैं मगर यह तस्वीर भी भारत की ही है महिलाएं चारपाई पर शव लेकर जा रही हैं. इन तस्वीरों से वोट नहीं मिलता है, ठीक बात है, लेकिन जान तो आपकी ही जाती है. मेडिकल अफसर बीएल मिश्रा ने ठीक कहा था कि कोई बड़ी बात नहीं है अब उसका तबादला हो गया है लेकिन हालात में क्या बदलाव आया?

भारत सरकार इन दिनों निर्यात के आंकड़ों पर बहुत ज़ोर दे रही है. निर्यात में भारत ने उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल की है लेकिन दूसरी तरफ सच्चाई यह भी है कि अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देना पड़ रहा है. ये लोग सरकारी योजना के लाभार्थी कहे जाते हैं मगर क्या इन्हें आर्थिक नीतियों का लाभार्थी कहा जा सकता है? केंद्र के कर्मचारियों का महंगाई भत्ता जुलाई 2021 में 17 प्रतिशत था अब 34 प्रतिशत हो गया है. जनता को महंगाई का भत्ता नहीं मिलता है, उसका तो महंगाई से भर्ता बनता जा रहा है. तो क्या आप ग्लोबल पूंजी व्यवस्था के हिसाब-किताब को पलट कर देखने के लिए तैयार हैं? अगर श्रीलंका के सकंट से कुछ सीखना चाहते हैं तो वहां या यहां या कहीं के अर्थशास्त्रियों की भाषा पर गौर कीजिए. खास कर वैसे अर्थशास्त्री जो मुख्य आर्थिक सलाहकार टाइप पदों पर बिठाए जाते है जिनके पास संकट में भी समाधान की भाषा रेडीमेड तैयार होती है. श्रीलंका के केंद्रीय बैंक के गर्वनर का पिछले साल अक्तूबर का एक इंटरव्यू है. वास्तविक हालत यह है कि विदेशी पूंजी निगेटिव में जा सकती है लेकिन यह अस्थायी तौर पर होगा लेकिन नए निवेशों के प्रवाह से रातों रात चीज़ें बदल जाएंगी. इसलिए मैं नहीं चाहता कि लोग अपने आस-पास के माहौल से असहज महसूस करें

अभी संकट है लेकिन हमने कदम उठाए हैं. जल्दी हम ये हो जाएंगे, वो हो जाएंगे. ऐसी बातों में लोगों को टहलाया जाता है. विश्व बैंक आर्थिक आमदनी के आधार पर देशों को अलग अलग श्रेणियों में रखता है. इसके अनुसार श्रीलंका 2020 में अपर मिडिल क्लास में चला गया था जबकि भारत निम्न मध्यमवर्गीय आय वाले देशों की श्रेणी में ही रहा. मतलब श्रीलंका ने तरक्की तो की लेकिन साथ साथ 2020 में उसका बजट घाटा इतिहास में सबसे अधिक हो गया.श्रीलंका को चीन मिल गया साहूकार के रुप में. कर्ज मांगा कर्ज़ मिला लेकिन चीन ने एक देश को कर्ज़ में डूबो दिया. चीन ने डुबोया या श्रीलंका ने डूबने का रास्ता खुद चुना? भारत का बाहरी कर्ज़ बहुत नहीं बढ़ा है लेकिन जीडीपी के अनुपात में कर्ज़ 90.5 प्रतिशत है. श्रीलंका का कर्ज़ जीडीपी के अनुपात में 101 प्रतिशत से अधिक है. कई देशों का यही हाल है. कई विद्वान बताने आ जाएंगे कि कर्ज की चिन्ता न करें. खूब कर्ज़ लें और खर्च करें. श्रीलंका में भी ऐसे विद्वान खूब होंगे. हमने अरुण कुमार से पूछा कि क्या दोनों के संकटों में कुछ समानताएं हैं और किन बातों को लेकर भारत को सतर्क रहने की ज़रूरत है. 

भारत की हालत श्रीलंका जैसी नहीं होगी, भारत की अर्थव्यवस्था श्रीलंका की तुलना में काफी बड़ी है लेकिन ऐसा नहीं है कि भारत की अपनी आर्थिक चुनौतियां श्रीलंका की तुलना में छोटी हैं? श्रीलंका की जनता का इस सच्चाई से पहले ही सामना हो जाता लेकिन तब वह इस बात से बेखबर थी कि वहां के पत्रकारों पर किस तरह के हमले हो रहे हैं. पत्रकारों के घरों पर हमले हो रहे थे. उनकी हत्या हो रही थी. खबरों में तबाही की जगह वाहवाही लिखी जा रही थी. भारत में भी पत्रकार इस तरह के हमले का सामना कर रहे हैं. किसी को एयरपोर्ट पर रोका जा रहा है तो किसी को खबर लिखने के लिए. बलिया में नकल की खबर लिखने पर तीन पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया. वे जेल में हैं. वहां के पत्रकार लगातार प्रदर्शन कर रहे हैं

ये तस्वीरें बताती हैं कि जनता को संकट के समय मीडिया तो चाहिए लेकिन मीडिया के संकट के समय जनता नज़र नहीं आती. हर जगह पत्रकार अपनी लड़ाई अकेला लड़ रहा है और हार रहा है. जनता सत्ता की साइड चुनने में लगी है. बलिया के पत्रकारों ने प्रशासन के खिलाफ नारे लगाते हुए गिरफ्तार पत्रकारों की रिहाई की मांग की और मार्च किया. 

भारत के उपभोक्ता मामलों के आंकड़ों के अनुसार दो साल में सरसों का तेल 55 प्रतिशत महंगा हुआ है. सोया तेल 59 प्रतिशत और वनस्पति 63 प्रतिशत. आपमें से कितने लोगों की कमाई 50 प्रतिशत बढ़ी है? श्रीलंका को लेकर चीन चीन करने से पहले देख लेना चाहिए कि भारत के भीतर की संस्थाएं भारत की सरकारों के बारे में क्या कह रही हैं. 

CAG ने अपनी रिपोर्ट में गुजरात सरकार को चेतावनी दी है कि राज्य कर्ज़ की जाल में फंसने जा रहा है. सोच समझ कर कर्ज ले और चुकाने की ठोस नीति पर काम करे.गुजरात सरकार को 2028 तक 1.87 लाख करोड़ का कर्ज़ा चुकाना पड़ेगा. सरकार का कर्ज़ा 3 लाख करोड़ से अधिक का हो गया है. सरकार को अगले सात साल में कुल कर्ज़े का 61 प्रतिशत कर्ज़ चुकाने हैं. इससे उसके संसाधनों पर दबाव पड़ेगा. गुजरात सरकार की कंपनियों का घाटा 30 हज़ार 400 करोड़ का हो चुका है. सरकार इनमें पैसे लगाए जा रही है. पांच साल में राज्य सरकार की सब्सिडी दो गुनी हो गई है.

श्रीलंका के संकट के पीछे एक और कारण है. आर्गनिक खेती की नीति. मौजूदा राष्ट्रपति गोटाब्या राजपक्षे ने 2019 के चुनाव में वादा किया था कि दस साल में देश की खेती को जैविक खेती में बदल देंगे. पिछले साल देश भर में खाद के आयात और इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई. आदेश दिया कि बीस लाख किसान जैविक खेती करेंगे. इस तरह से अचानक लिए गए फैसले ने श्रीलंका की खेती को ध्वस्त कर दिया. उत्पादन में 20 प्रतिशत की गिरावट आ गई. अपना चावल खुद उगाकर खाने वाला श्रीलंका आयात करने लगा. चाय बागान की खेती बर्बाद हो गई. जिसके निर्यात से श्रीलंका को विदेशी मुद्रा की आमदनी होती थी. चंद महीनों के भीतर जिस देश का दर्जा अपर मिडिल क्लास का हुआ था उसकी आधी से अधिक जनता गरीबी में चली गई.हमने 22 नवंबर के प्राइम टाइम में इस संकट के बारे में दिखाया था, यानी सबको संकट आता दिख रहा था मगर कोई देख नहीं रहा था. तब भी जनता सड़क पर आई थी और श्रीलंका को यह फैसला वापस लेना पड़ा. 

श्रीलंका की हालत देखकर एक सवाल उठता है कि क्या वहां जैविक खेती का नारा इसलिए बेचा गया ताकि इसके बहाने दुनिया की अनाज कंपनियों को श्रीलंका का बाज़ार लूटने का मौका मिल जाए? सवाल तो पक्का है मगर इस सच्चाई तक हम कभी नहीं पहुंच पाएंगे. भारत में कई साल से जैविक खेती की बात हो रही है. गनीमत है कि श्रीलंका की तरह एक झटके में लागू नहीं किया गया. धीरे धीरे लोग अपना रहे हैं. लेकिन मध्य प्रदेश से अनुराग द्वारी की रिपोर्ट बता रही है कि जैविक खेती के नाम पर फर्ज़ीवाड़ा करने वाले भी काफी जैविक लोग हैं. 

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श्रीलंका का संकट उन आर्थिक नीतियों का संकट है जिसकी किताब भारत में भी कई लोग बेच रहे हैं. 5 ट्रिलियन डॉलर की इकानमी का दर्शन नहीं हुआ, दस ट्रिलियन इकानमी की बात होने लगी है. भारत का हाल श्रीलंका जैसा नहीं है और न होगा सिर्फ इस दावे के आधार पर उन नीतियों के असर को अनदेखा नहीं कर सकते हैं. जिनसे कुछ लोग अमीर होते हैं और बाकी लोग अमीर होने के सपने देखते रह जाते हैं. यही कारण है कि श्रीलंका की जनता सड़क पर है. घर में रहकर क्या करेगी वहां न बिजली है न भोजन है. आप और हम अंदाज़ा नहीं कर स कते कि वहां की जनता एक शाम खा कर कैसे गुज़ारा कर रही होगी?