राजनीति में कुछ भी हो सकता है. इस फ़लसफ़े के बाद भी राजनीति का सबसे बड़ा फ़लसफ़ा यह है कि राजनीति में जब सब तय हो जाए और सामने वाला हारते हारते बाज़ी पलट दे, उससे बड़ा कुछ नहीं होता है. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी तीस दिनों से उत्तर प्रदेश की यात्रा पर हैं. मैं उनकी यात्रा के अंतिम चरण को कवर करने गया था इसलिए बाकी के उनतीस दिनों पर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा. जो मैंने नहीं देखा उसके बारे में क्या कहना. लेकिन जो आख़िरी दिन देखा है वो अगर उन उनतीस दिनों में भी हुआ है तो राहुल गांधी को गंभीरता से सोचना चाहिए. एक राज्य में तीस दिनों की यात्रा करना आसान नहीं है, लेकिन इतनी मेहनत के बाद भी असर पैदा न हो तो फिर मुश्किल है.
राहुल गांधी में दिलचस्पी इसलिए है कि लोकतंत्र में कभी भी विपक्ष कमज़ोर नहीं रहना चाहिए. इसी के साथ यह भी कहना चाहता हूं कि प्रधानमंत्री मोदी को कमज़ोर विपक्ष का लाभ नहीं मिला है, बल्कि उन्होंने कई प्रकार के मज़बूत विपक्षों से लोहा लेते हुए अपनी जगह बनाई है. उन्होंने संसाधनों से लैस दस साल की सत्ताधारी कांग्रेस को हराया है. राहुल गांधी ने भी अपनी वापसी के लिए सुविधाजनक राज्य का चुनाव नहीं किया. वे चाहते तो कर्नाटक से अपनी वापसी का ज़ोर लगा सकते थे, उत्तराखंड या पंजाब या दिल्ली से लगा सकते थे, लेकिन राहुल ने उत्तर प्रदेश को चुना. जहां पहले की उनकी यात्राओं का कोई लाभ नहीं हुआ. जहां उनकी पार्टी सत्ताईस साल से शून्य की सी स्थिति में जीने की आदी हो चुकी है. ऐसी विपरीत परिस्थिति वाले जगह से कोई नेता अपनी और अपनी पार्टी की वापसी की यात्रा शुरू करे, तो मैं उसकी दाद देना चाहूंगा.
यह इरादा बताता है कि राहुल गांधी घर से निकलते वक्त फैसला मज़बूती से करके निकलते हैं, लेकिन मैं तो रास्ते का हाल देखने गया था. जब वे रास्ते में हैं तो लोगों से कैसे संवाद करते हैं, अपनी बात को कैसे चर्चा का मसला बना देते हैं, कार्यकर्ताओं में कैसे जोश भरते हैं. मैं राजनीति में कुर्ता पजामा वालों को गंभीरता से लेता हूं, बशर्ते वे भी ख़ुद को गंभीरता से लें. राहुल के राजनीतिक जीवन में उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है जिसे उन्होंने ठीक ठाक छान मारा है. अब राहुल को यूपी के बारे में जानने की ज़रूरत नहीं है, राहुल को यूपी के सामने राहुल बनकर आने की ज़रूरत है. एक ज़िद शुरू से दिख रही है कि वे यूपी पाना चाहते हैं, बार बार हार कर फिर से प्रयास करने लगते हैं. हो सकता है उनकी यही प्रवृत्ति आगे चलकर उन्हें नेता के रूप में स्थापित कर दे, लेकिन बात फिलहाल की हो रही है.
मैं अपना अहं लेकर नेताओं के पास नहीं जाता. बीजेपी के नेता भी मुझसे बात नहीं करते हैं. कोई बात नहीं. राहुल ने भी मुझसे बात नहीं की, कोई बात नहीं. जब वह हमारे सामने आए तो वे ख़ुद में सिमट कर रह गए. चुपचाप निकल गए. उनकी जगह कोई भी नेता होता तो मीडिया में स्पेस पाने के लिए कुछ न कुछ बात तो कर लेता, ख़ासकर जब वो तीस दिनों की थका देने वाली यात्रा पर निकला हो, उन यात्राओं को मीडिया में बेहद संक्षिप्त जगह मिल रही हो. हैरानी की बात ये रही कि राहुल के अलावा दूसरे दर्जे के लोकप्रिय कांग्रेसी नेताओं ने भी बात करने की उत्सुकता नहीं दिखाई. ऐसा लग रहा था कि वे मुझसे बात कर लेते तो उनकी जेब से उनका विशाल जनाधार छिटक कर गिर जाता. जब पार्टी के नेताओं में ही जिजीविषा नहीं है, ज़िद नहीं है तो राहुल क्या कर लेंगे. एक जगह बागीचे जैसी छोटी सी जगह में राहुल गांधी सभा को संबोधित कर रहे थे. उनके साथ के बड़े नेता बाहर टहल रहे थे और कुछ बस में बैठे थे. यही अगर प्रधानमंत्री मोदी की सभा होती तो कम से कम केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद तो मीडिया को लेकर चलने वाली खुली बस में ज़रूर होते. राहुल के अलावा बाक़ी नेताओं में वापसी की होड़, आक्रामकता नहीं दिखी. उनके चेहरे से ज़्यादा उनके मन में थकावट दिख रही थी. जबकि नेता जनता को अपनी थकान ही तो दिखाता है कि देखो हम कितनी मेहनत कर रहे हैं. ये नेता न तो अपनी पार्टी के लिए नारे लगा रहे थे और न ही अपने उपाध्यक्ष और भावी अध्यक्ष के लिए. हमने और उमाशंकर सिंह ने बस में सवार अभियान समिति के चेयरमैन संजय सिंह से गुज़ारिश की कि आप बाहर आ जाएं बात करते हैं. संजय सिंह मुस्कुराए. बाहर नहीं आए. शायद इस वजह से कि कहीं उनकी सीट पर कोई दूसरा न बैठ जाए.
कसूर इन नेताओं का है या उस अच्छी बस का जिसमें ये सवार थे, मुझे नहीं पता. लेकिन जिस पार्टी ने इतनी लड़ाइयां लड़ी हों, हार के बाद वापसी की हो, उस पार्टी के सबसे बड़े प्रदेश के नेताओं का ये हाल है तो भगवान ही मालिक है. दिल्ली में आम आदमी पार्टी रोज़ बीजेपी से लड़ती है. बीजेपी भी आप से लड़ती है लेकिन यह लड़ाई सिर्फ अरविंद केजरीवाल की नहीं है. इस लड़ाई को आशुतोष भी उसी सघनता से लड़ते हैं जितनी सघनता से संजय सिंह या दिलीप पांडे. कांग्रेस के लोगों का कांग्रेसीपन ख़त्म हो गया है. राहुल की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि ज़मीन पर कांग्रेस को कैसे लड़ाकू बनायें. उनकी पार्टी ज़रूरत से ज़्यादा घरेलू हो गई है.
कांग्रेस में राहुल के अलावा कौन लड़ रहा है, ये राहुल ही बेहतर जानते होंगे. राहुल को अब इन नेताओं का साथ छोड़ उन युवा नेताओं को ले लेना चाहिए जो उनके साथ ज़ोर लगा सकते हैं. उनकी यात्रा के अंतिम चरण में युवा कांग्रेस के अध्यक्ष ने वो तेवर दिखाए भी. सैंकड़ों बाइक सवारों के साथ जब यह नेता आया तो अपने झंडों और नारों के साथ समां बदल दिया. लगा कि पार्टी में ज़ोर और शोर है. बुज़ुर्ग नेताओं को दर्शक दीर्घा में बिठा देने का वक्त आ गया है. उन नेताओं से छुटकारा पा लेना चाहिए जो खुद कुछ नहीं करते मगर राहुल गांधी की कमियों पर पीएचडी किये बैठे हैं. इससे कांग्रेस का सुधार होगा यह तो मैं नहीं जानता, लेकिन कम से कम कुछ नए लड़के नारे लगाने के लिए तो आ ही जाएंगे. राहुल की बस में सवार नेताओं में तो उतना भी जोश नहीं बचा था.
राहुल की भी कमियां नज़र आईं. लोग घंटों इंतज़ार कर रहे थे. राहुल को लगा कि वे इस यात्रा में जल्दी जल्दी भाषण देने निकले हैं. वे इतना कम बोलते हैं कि जब तक लोगों का ध्यान जाता है, उनका भाषण समाप्त हो चुका होता है. उन्हें कम से कम अपने किसी थके हारे कार्यकर्ता को ही संबोधित करना चाहिए था कि हिम्मत मत हारना. हम हारे हैं तो हम जीतेंगे भी. केरल में प्रधानमंत्री मोदी ने वहां रैली की, जहां से उनकी पार्टी ने जनसंघ के रूप में यात्रा शुरू की थी. जीत के लम्हों में भी प्रधानमंत्री मोदी केरल के कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ा रहे थे कि हम यहां भी एक दिन जीतेंगे. राहुल ने यह मौका खो दिया. उनके चलते कार्यकर्ता बाहर तो आए, झंडे लेकर आए मगर नेता ने उनके कंधे पर हाथ नहीं रखा और न ही उनसे हाथ मांगा. राहुल गांधी नारे नहीं लगा रहे थे और न ही कार्यकर्ताओं से नारा लगाने के लिए कह रहे थे.
राहुल गांधी की जगह अगर प्रधानमंत्री मोदी होते तो चार बार 'वंदे मातरम्' और 'भारत माता की जय' कहते.
राहुल गांधी को प्रधानमंत्री मोदी पर संक्षिप्त हमले के अलावा अपनी ग़लतियों की भी बात करनी चाहिए थी. खुलकर अपने बारे में लोगों से बातें करते. पूछते कि हम ये सोचते हैं, आप क्या सोचते हैं. समर्थन मूल्य बढ़ा देना या किसानों का कर्ज़ा माफ कर देना यह बेहद ज़रूरी मुद्दा है, लेकिन खेती की समस्या का समाधान इसी से नहीं होने वाला है. नेता जब विपक्ष में होता है तो उसके बनने का स्वर्णिम अवसर होता है. वो खुद पर हंस सकता है, जनता के बीच रो सकता है, उनकी हिम्मत बंधा सकता है. राहुल गांधी ने बहुत मेहनत की. मुझे यह अच्छा लगा, लेकिन सिर्फ तैयारी करने से कोई परीक्षा पास नहीं कर जाता है. कमरे में जाकर पर्चे में लिखना पड़ता है. सवाल हल करने होते हैं. सवालों का सामना करना होता है.
मेरी यह समझ उनकी तीस दिनों की यात्रा के आख़िरी चरण के चंद घंटों के आधार पर बनी है. मुझे पांच-दस सभाओं में वह कांग्रेस पार्टी नहीं दिखी जिसे खोजने वे निकले थे. झंडे नए आ गए हैं. बैनर भी खूब लग गए हैं. राहुल गांघी के साथ राहुल गांधी ही अकेले चल रहे थे. कांग्रेस नहीं चल रही थी. प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा होती तो अलग अलग राज्यों से नेता आ गए होते. गांवों में घूम रहे होते. कहीं सिंधिया नज़र आते तो कहीं सचिन पायलट तो कहीं कोई और. उम्मीद है बाकी दिनों में लोगों या पत्रकारों का राहुल को लेकर ऐसा अनुभव नहीं रहा होगा.
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