बिना इंटरनेट कश्मीर में पत्रकारिता सूनी और डीयू में कैसे जी रहे हैं शिक्षक

कश्मीर के अखबार बेशक कंबोडिया पर संपादकीय लिख सकते हैं, लेकिन कंबोडिया पर लिखें और कश्मीर पर न लिखें, या कम लिखें, तो बात समझ नहीं आती

कश्मीर में आम लोगों के लिए 120 दिनों से इंटरनेट बंद है. पांच अगस्त से इंटरनेट बंद है. कश्मीर टाइम्स की अनुराधा भसीन ने दस अगस्त को सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई थी कि बगैर इंटरनेट के पत्रकार अपना मूल काम नहीं कर पा रहे हैं तो उन्हें छूट मिलनी चाहिए. इस केस को लेकर पहली सुनवाई 16 अगस्त हुई और नवंबर के महीने तक चली. बहस पूरी हो चुकी है और फैसले का इंतज़ार है. मगर बगैर इंटरनेट के कश्मीर के पत्रकार क्या कर रहे हैं. वे कैसे खबरों की बैकग्राउंड चेकिंग के लिए तथ्यों का पता लगा रहे हैं. दुनिया में यह अदभुत प्रयोग हो रहा है. न्यूयार्कर को इसी पर रिसर्च करना चाहिए कि बगैर इंटरनेट के अखबार छप सकते हैं. कश्मीर के न्यूज़ रूम में इंटरनेट बंद है लेकिन सरकार ने पत्रकारों के लिए एक मीडिया सुविधा केंद्र बनाया है.

वह सूचना प्रसारण विभाग का ही बनाया केंद्र है जो दस अगस्त से चल रहा है. इस सेंटर पर पत्रकारों को आना पड़ता है जब उन्हें इंटरनेट की ज़रूरत पड़ती है. इस सुविधा केंद्र पर एक पत्रकार को 15 मिनट के लिए इंटरनेट मिलता है. इंटरनेट ठीक ठाक चलता है. लाल चौक के नज़दीक है ये सेंटर. वहीं पर ज़्यादातर मीडिया के दफ्तर हैं. यह सुविधा सिर्फ श्रीनगर में है. दूसरे ज़िले में यह सुविधा नहीं है. अगर दूसरे ज़िले के पत्रकार को इंटरनेट की सुविधा चाहिए तो उसे कई घंटे की यात्रा करके इस केंद्र में आना होगा. नज़ीर ने बताया कि यहां पर 200-250 पत्रकार रोज़ आते हैं. आते हैं तो इंटरनेट के दौर में बिन इंटरनेट कैसे होता है. आप कल्पना कीजिए कि दिल्ली में इंटरनेट बंद हो जाए तो ट्विटर पर टाइम पास करने वाले पत्रकारों का क्या होगा. वे टाइम पास करने के लिए क्या करेंगे. पुरानी दिल्ली छोले खाने जाएंगे या फिर न्यूज़ रूम में कॉमेडी करेंगे.

नज़ीर की एक टिप्पणी से हम चौंके कि कश्मीर के अखबार वाकई किन चीज़ों पर संपादकीय लिख रहे हैं अगर वे कश्मीर को लेकर नहीं लिख रहे हैं. या लिख भी रहे हैं तो बहुत कम लिख रहे हैं. कश्मीर के अखबार बेशक कंबोडिया पर संपादकीय लिख सकते हैं लेकिन कंबोडिया पर लिखें और कश्मीर पर न लिखें या कम लिखें तो बात समझ नहीं आती है.

ग्रेटर कश्मीर सबसे बड़ा अखबार है. पहले हमने इनकी बेवसाइट चेक की. 6 अगस्त से लेकर 28 नवंबर तक कोई संपादकीय नहीं छपा है. कहा जा रहा है कि यह अखबार अपनी प्रिंट कापी में भी संपादकीय नहीं छाप रहा था. दूसरों के लेख ज़रूर छप रहे हैं जो कश्मीर की मौजूदा स्थिति से संबंधित नहीं हैं. ग्रेटर कश्मीर की वेबसाइट पर 2 दिसंबर का लिखा संपादकीय मिला है. हेल्थ इमरजेंसी सेवाओं की कमी पर है. 3 दिसंबर का संपादकीय जलवायु परिवर्तन पर है. इसमें एक लाइन बीच में है कि दुनिया के किसी हिस्से में हिंसा होती है तो ग्लोबल पॉलिटिक्स पर असर पड़ता है. 4 दिसंबर का ड्रग्स पर है. अब ये प्रिंट कापी के छपे लेख हैं. फर्स्ट मुस्लिम, ग्रेटेस्ट मैन द लास्ट राइट्स जैसे विषयों पर लिखे गए हैं. ऐसी किसी बात पर संपादकीय नहीं होते हैं जिसमें सरकार की आलोचना होती है. कश्मीर की आम समस्याओं को लेकर भी संपादकीय गायब हैं. कई अखबारों के संपादकीय का यही हाल है. कश्मीर पर या तो संपादकीय नहीं है या फिर नहीं के बराबर है. जैसे कश्मीर टाइम्स की वेबसाइट पर 29 नवंबर से लेकर 2 दिसंबर तक के संपादकीय मिले हैं. चार संपादकीय में से एक भी कश्मीर पर नहीं है. लेकिन खबरों में इंटरनेट मीडिया बंदी से लेकर अन्य घटनाओं का ज़िक्र है. राइज़िंग कश्मीर की वेबसाइट पर 20 नवंबर से संपादकीय मिलते हैं लेकिन धारा 370 पर नहीं है या जो बदलाव हुआ है उस पर नहीं है. रोड सेफ्टी पर है, कश्मीर में सर्दी में आग की घटना पर संपादकीय है. नौकरी या अवैध निर्माण को लेकर है.ख़बर और संपादकीय में अंतर होता है. किसी को अध्ययन करना चाहिए कि 5 अगस्त के बाद से कश्मीर के अखबारों के संपादकीय क्या कहते हैं. कहीं मौसम के गीत तो नहीं गा रहे हैं. वैसे खबरों में ये हालत नहीं है. खबरों में कश्मीर की घटनाओं का ज़िक्र है.
 
क्लास में गुरु नहीं और इंडिया बनेगा विश्व गुरु. आप सिर्फ अपने ही शहर और कस्बे के कालेज का हाल पता कर लें कि वहां छात्र कितने हैं और टीचर कितने हैं तो विश्व गुरु बनने की हवाबाज़ी पकड़ में आ जाएगी. सवाल सिर्फ दिल्ली का नहीं है, समस्तीपुर और बलरामपुर का भी. क्यों कालेज शिक्षकों से खाली हैं या फिर शिक्षक के नाम पर अस्थायी शिक्षक रखे गए हैं. जब राज्यों के विश्वविद्यालय खत्म हो गए तो देश भर से छात्र दिल्ली विश्वविद्यालय में आने लगे. क्या दिल्ली विश्वविद्यालय भी उसी राह पर है. अगर आपको दिल्ली विश्वविद्यालय के खंडहर होने से कोई फर्क नहीं पड़ता तो आप मारे खुशी के केक काटें लेकिन याद रखें बर्बाद गांव कस्बों और महानगरों के ही छात्र होंगे. जिसकी कीमत आप अपनी जेब से महंगी फीस देकर चुकाएंगे. अच्छी बात है कि एडहॉक और गेस्ट टीचर अब बोलने लगे हैं और परमानेंट उनका साथ देने लगे हैं. डीयू में करीब 4500 एडहाक टीचर हैं. अब इनसे कहा जा रहा है कि आप एडहाक नहीं रहेंगे अब गेस्ट टीचर होंगे. आज परमानेंट, गेस्ट और एडहाक टीचर ने दिल्ली यूनिवर्सिटी के इस फैसले के खिलाफ वीसी आफिस का घेराव किया. शिक्षकों का गुस्सा इतना था कि शिक्षक वीसी कार्यालय के भीतर पहुंच गए.

आक्यूपाई वीसी आफिस हो गया. आज प्रदर्शन पर जाने से पहले शिक्षकों ने अपने छात्रों को एक पत्र लिखा. हालत देखिए जिन कालेजों से निकल दिल्ली से चलने वाले अखबारों और चैनलों में पत्रकार हैं, संपादक हैं, उनकी कालेजों के शिक्षकों की हालत पर सामने से कवरेज नहीं है. इस विश्वविद्यालय के कई दिग्गज प्रोफेसर चैनलों के डिबेट में ज्ञान बांटते रहते हैं लेकिन उनके पीछे यूनिवर्सिटी की इतनी हालत खराब हो गई और मीडिया के लिए यह बड़ा सवाल नहीं बना. शायद इसलिए भी नहीं कि ऐसे कालेज में अब गांव कस्बों के छात्र पढ़ने आते हैं. पैसों वालों के लिए महंगे प्राइवेट कालेज बन गए हैं या फिर जो अधिक पैसे और प्रतिभाशाली बच्चे हैं वो विदेशों की शानदार यूनिवर्सिटियों की तरफ रुख करने लगे हैं. एडहाक शिक्षकों का गुस्सा सिर्फ अस्थायी बने रहने का नहीं है बल्कि उस यूनिवर्सिटी को बर्बाद होते देखने का भी है जिसे उन्होंने अपने पसीने से बनाया है. आज भी डीयू के शिक्षकों का एक लेवल है, उनका कमिटमेंट है. खराब पढ़ाने वाले शिक्षकों के नाम पर पूरी यूनिवर्सिटी की तबाही ठीक नहीं है.

दिल्ली यूनिवर्सिटी में जो हुआ है उसे समझिए. 2019 में जब मोदी सरकार पार्ट टू आई तो खबरें छपीं कि छह महीने के भीतर यूनिवर्सिटी की खाली सीटें पक्की हो जाएंगी. आप इंटरनेट पर सर्च कीजिए तो केंद्रीय शिक्षा मंत्री रमेश निशंक पोखरियाल ने 12 जुलाई को लोकसभा में कहा था कि केंद्रीय यूनिवर्सिटी में नियुक्तियों को लेकर सारी कानूनी बाधाएं दूर हो गई हैं. अगले छह महीने में सारे खाली पद भरे जाएंगे और युद्ध स्तर पर नियुक्तियां होंगी. रमेश पोखरियाल से पहले मोदी सरकार पार्ट वन में मार्च 2017 में  प्रकाश जावड़ेकर ने लोकसभा में कहा था कि पार्ट टाइम केंद्र सरकार की नीति नहीं है. हमारी परमानेंट नौकरी की नीति है. दिल्ली यूनिवर्सिटी में जहां 9000 से अधिक एडहाक केस हैं, हम एक साल के भीतर परमानेंट कर देंगे.

संसद में कुछ बोला जाता है और संस्थानों में कुछ और होता है. दो-दो मानव संसाधन मंत्री लोकसभा में खड़े होकर बोलते हैं कि एडहाक को परमानेंट किया जाएगा और 28 अगस्त की तारीख से वीसी की चिट्टी आती है जिसमें एडहाक को गेस्ट बनाने का फरमान लिखा होता है. इसकी भाषा कमाल की है. पत्र पढ़कर लगता है कि परमानेंट करने के लिए लिखा गया है मगर यह कह दिया गया है कि 2019-20 में जब पहली बार परमानेंट के पोस्ट आएंगे उन पर गेस्ट टीचर की नियुक्ति होगी.

शिक्षक संघ का कहना है कि गेस्ट टीचर शोषण का भयानक स्तर है. डीयू के नए नियमों के मुताबिक गेस्ट टीचर को एक महीने में 33 क्लास लेने के लिए कहा जाएगा मगर उसकी सैलरी 50,000 से अधिक नहीं होगी. पहले गेस्ट टीचर अधिकतम 25 क्लास ही ले सकते थे और 1000 रुपये प्रति क्लास के हिसाब से 25000 सैलरी मिलती थी. अब आपको लगेगा कि 50,000 की गई है तो बड़ी बात है लेकिन इस खेल को ऐसे समझिए. एडहाक शिक्षक को असिस्टेंट प्रोफेसर के बराबर सैलरी मिलती है. 89000. हालांकि उनकी नौकरी भी पक्की नहीं होती मगर सैलरी ठीक होती है. अब एडहाक को गेस्ट करने से 89000 के बदले 50,000 करने पड़ेंगे. आखिर ऐसी क्या नौबत आ गई कि विश्व गुरु भारत में जब वह सुपर पावर बन गया है तब एक एडहाक शिक्षक को गेस्ट टीचर बनाकर 39000 रुपये बचाए जा रहे हैं. यही नहीं गेस्ट टीचर की नियुक्ति का पैनल वैसा होगा जैसा परमानेंट टीचर के समय होता था. जब गेस्ट टीचर के लिए इतना बड़ा पैनल आएगा, उसमें वीसी का प्रतिनिधि होगा तो वही पैनल परमानेंट क्यों नहीं करेगा. ज़ाहिर है परमानेंट नहीं करने की यह अलग व्यवस्था निकाली गई है. हमारे सहयोगी सौरभ शुक्ल ने कुछ शिक्षकों से बात की जो महीनों सालों से पढ़ा रहे हैं, मगर उनका हक कुछ भी नहीं. नॉन रेजिडेंट इंडियन भी ध्यान से देखें कि उनके इंडिया में महिलाओं को मैटरनिटी अवकाश नहीं मिलता है.  

दिल्ली विश्वविद्यालय की साख उसके शिक्षकों से बनी है. अब शिक्षकों को ही खत्म किया जा रहा है. एडहाक जब परमानेंट नियुक्ति के लिए इंटरव्यू देने जाता है तो उसके सारे अनुभव गिने जाते हैं लेकिन गेस्ट का अनुभव भले दस साल पढ़ाने का हो, ज़ीरो माना जाएगा. नॉन रेज़िडेंट इंडियन फिर से ध्यान दें. क्या इस तरह से दिल्ली यूनिवर्सिटी कोलंबिया या आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी बन सकती है? गेस्ट टीचर का न तो कोई अधिकार होता है और न ही यूनियन में शामिल हो सकते हैं और न ही वे शिक्षक संघ के चुनाव में मतदान कर सकते हैं. इस बार परमानेंट शिक्षक भी एडहाक शिक्षकों के साथ आ गए हैं. आम तौर पर जब शिक्षक हड़ताल पर जाते हैं तो मां-बाप और छात्रों को गुमराह किया जाता है कि इन्हें पढ़ाने से मतलब नहीं है. इसलिए हड़ताल पर जाने से पहले शिक्षकों ने अपने छात्रों को पत्र लिखा है.

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4 दिसंबर को गांधीनगर में भी छात्रों का बड़ा प्रदर्शन हुआ है, दिल्ली में भारतीय जनसंचार संस्थान के छात्र प्रदर्शन कर रहे हैं और मध्यप्रदेश के अतिथि शिक्षकों को कब तक प्रदर्शन करना होगा?