दिलीप यादव जेएनयू में कई दिनों से भूख हड़ताल पर बैठा है. कई दिनों से भूख हड़ताल के कारण उसे अस्पताल में भर्ती न कराया गया होता तो शायद ही किसी की नजर जाती. दिलीप यादव जिस मुद्दे के लिए अपनी जान से खेल रहा है, कायदे से वे हिन्दी भाषी समाज के मुद्दे होने चाहिए थे. हिन्दी अखबारों के जिला संस्करणों में इसे छा जाना चाहिए था. हिन्दी के दर्शकों के बीच पता नहीं क्या-क्या दिखाकर छा जाने वाले तमाम चोटी के चैनलों को भी इसे अपना सवाल बनाना चाहिए था. कोई इन चोटी के चैनलों के संपादकों से भी नहीं पूछता. क्या पता पूछने पर सकारात्मक जवाब भी जाए. हिन्दी के अखबार हों या चैनल, उनके लिए हिन्दी का बाजार तो है मगर हिन्दी का सवाल कभी सवाल नहीं होता है. हिन्दी के प्रति न तो भाषाई प्रतिबद्धता होती है न ही हिन्दी के अवसरों के प्रति. यही हाल हिन्दी भाषी सांसदों और विधायकों का है.यूपीएससी में हिन्दी माध्यम के छात्रों का मामला गरमाया था, जब तक विरोध करने वाले छात्र लाठी न खा लिए, पानी की बौछारों से भीगा नहीं दिए गए, किसी का ध्यान नहीं गया. जबकि इससे प्रभावित ज्यादातर छात्र दलित, आदिवासी पृष्ठभूमि के थे. तब भी इनकी नुमाइंदगी करने वाले दलित आदिवासी सांसद और विधायक चुप ही रहे. इनकी चुप्पी पर कोई नहीं बोलता. सबको मीडिया की चुप्पी नजर आती है.
तमाम तरह की शून्यताओं और अवहेलनाओं के बीच दिलीप यादव हिन्दी या भारतीय भाषाओं के छात्रों को लेकर भूख हड़ताल पर बैठा है. जितना समझ आया है, उसके अनुसार पहले एमफिल और पीचडी में सत्तर अंक की लिखित परीक्षा पास करने के बाद तीस अंकों का वायवा यानी मौखिक साक्षात्कार देना होता था. पुरानी कमेटी की रिपोर्ट कहती है कि अक्सर इस तीस अंक में भी हकमारी हो जाती थी. दलित, आदिवासी और कमजोर तबके के गैर अंग्रेजी छात्रों को कम नंबर मिलते थे. इसलिए इंटरव्यू तीस की जगह पंद्रह अंकों का होना चाहिए. इंटरव्यू के नाम पर आदिवासी,अल्पसंख्यक और दलित छात्रों को किनारे लगा दिया जाता है. एक तर्क दिया जा रहा है कि बहुत चतुराई से जेएनयू ने यूजीसी के इस आदेश को मान लिया कि लिखित परीक्षा सिर्फ क्वालिफाई करने के लिए होगी और इसके नाम पर कैंपस में आदिवासियों और दलितों के राजनीतिक उभार पर अंकुश लगाया जा सके.
हमें यह भी देखना चाहिए कि क्या इंटरव्यू की वजह से छात्रों के लिए आरक्षित सीटें खाली रहती हैं? इस वक्त जेएनयू के अधिकृत आंकड़े नहीं हैं. कई बार ऐसी सूची तो निकली है कि जेएनयू में प्रोफेसरों के मामले में अन्य संस्थानों की तरह ही घोर असंतुलन है. जब इंटरव्यू के ही सारे अंक तय करेंगे कि आप एडमिशन के लायक हैं या नहीं तब लिखित परीक्षा भी बंद कर दीजिए. इंटरव्यू को इतनी छूट देने से अच्छी अंग्रेजी बोलने वाला और प्रतिभाशाली आदिवासी,अल्पसंख्यक और दलित छात्र भी चयन प्रक्रिया से बाहर किया जा सकता है.
भारत में जहां संस्थाएं सवाल न पूछने को प्रोत्साहित करती हैं, वहां कोई बागी तेवर का छात्र आ जाए तो उसकी किस्मत अधर में लटक सकती है. एम फिल और पीएचडी में एडमिशन के नाम पर नई राजनीतिक चेतनाओं और गोलबंदी की संभावना को रोका जाएगा. ताकि जेएनयू के अपने छात्र एमए के दौरान विश्वविद्यालय की बताई राह पर ही चलें और वैकल्पिक राजनीतिक रास्ता चुनते वक्त ख्याल रखें कि एफ फिल में एडमिशन रुक सकता है. उन्हें एमए के बाद बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा. इससे एडमिशन में पर्याप्त मनमानी बढ़ जाएगी.
सामाजिक तौर से हम लोग संस्थाओं में रहते हुए और संस्थाओं से बाहर रहते हुए बेहद दब्बू किस्म के होने लगे हैं. हम बाहर भीतर से इसे खोखला करते चलते हैं. कायदे से यूजीसी को जेएनयू की पुरानी कमेटी के आधार पर दूसरे विश्वविद्यालयों को नोटिस भेजना चाहिए था कि कहीं उनके यहां भी तो इंटरव्यू में भेदभाव नहीं होता है. उसके आंकड़े क्या हैं. अंग्रेजी के कारण मराठी, बांग्ला, तमिल, उड़िया और हिन्दी के छात्रों के साथ भेदभाव होता है. हर जगह भारतीय भाषाओं के छात्र कम संभावनाओं के बीच अधिक संभावनाएं पैदा करने में मर-खप जा रहे हैं.
अब सवाल ये है कि ये सवाल क्या सिर्फ दिलीप यादव का है. क्या ये सवाल बिहार का नहीं है, यूपी का नहीं है, बंगाल का नहीं है, उड़ीसा का नहीं है. बाकी विश्वविद्यालयों के छात्रों को संविधान निर्माताओं ने मना किया है कि तुम चुपचाप पढ़ाई करके दहेज लेने की तैयारी करना,अपनी ही तरह की दहेज देने वाली मूर्खा से शादी करना, डीजे बुलाकर डांस करना क्योंकि प्रदर्शन करना होगा तो जेएनयू वाला करेगा वर्ना प्रदर्शन नहीं माना जाएगा और प्रदर्शन होगा तो ये कहना कि जेएनयू वाले पढ़ते कब हैं, दिन भर प्रदर्शन ही करते हैं क्या. भाई मेरे, पढ़ते हैं तभी तो प्रदर्शन करते हैं न. आप जब नोटिफिकेशन नहीं पढ़ेंगे, फीस का ढांचा नहीं देखेंगे, सस्ती शिक्षा के अपने अधिकार को लेकर पढ़ाई नहीं करेंगे तो प्रदर्शन कहां से करेंगे.अ रे भाई, विरोध ही जरूरी नहीं है, किसी फैसले का समर्यथन भी तो किया जा सकता है. वहीं दिलीप यादव के सामने जेएनयू के समर्थन में प्रदर्शन करो. कहो कि हममें से जो गरीब शोषित तबके से आते हैं, जिनकी अंग्रेजी ठीक नहीं है, जो अपनी भाषा में बोलने में ठीक नहीं हैं, घबरा जाते हैं, लिखते हैं तो ही बेहतर रहते हैं मगर हमारे जैसे छात्रों को एडमिशन में चांस कम हो, इससे अच्छी बात क्या हो सकती है. हम सभी अपनी संभावनाओं के खत्म होने का समर्थन करते हैं. हम पहले भी खत्म थे, अब भी खत्म रहने का प्रण करते हैं. समर्थन में भी तो प्रदर्शन हो सकता है. वो भी क्यों नहीं होता है.
जेएनयू की एक खूबी है. यहां दूरदराज़ से आने वाले अपनी-अपनी भाषाओं के प्रतिभाशाली छात्रों को मौका मिलता है. अब अगर इंटरव्यू के आधार पर ही एमफिल और पीएचडी में एडमिशन होंगे तो ऐसे छात्रों को कहां से मौका मिलेगा. यही छात्र आगे चलकर पढ़ाई लिखाई से लेकर प्रशासन तक में अच्छा करते हैं. इनमें से ज्यादातर दूरदराज़ के कस्बों से आए होते हैं. महानगरों के छात्रों में भी साधारण पृष्ठभूमि के छात्र होते हैं. अस्सी के दशक में भी इस तरह की छेड़छाड़ हुई थी. नए फैसले को लेकर बहस होनी चाहिए कि आपके हित में कितना है, आपके खिलाफ कितना है.
यह फैसला सामाजिक के साथ-साथ भाषाई पृष्ठभूमि के कारण भेदभाव की गुजाइश पैदा करता है. हिन्दी का छात्र हिन्दी का छात्र होता है. वो हर जगह पाने के लिए पाने से ज्यादा खोता चलता है. उसकी कोई भी उपलब्धि खोए हुए की लंबी सूची के बगैर नहीं होती है. खुद हिन्दी माध्यम का छात्र रहा हूं और इसी भाषा के पत्रकार को तो हर पल एक खाई लांघनी पड़ती है.आप प्राप्ति के शिखर पर भी वंचित की तरह खड़े होते हैं. यह अनुभव हिन्दी का ही नहीं है. बांग्ला, तमिल,उड़िया और मराठी छात्रों का भी है. फिर भी अंग्रेजी के वर्चस्व के खिलाफ भारतीय भाषाएं कभी एकजुट नहीं हो पाती हैं. उनकी ट्रेनिंग आपस में बंटने की है, एकजुट होकर लड़ने की नहीं है.
इसीलिए दिलीप यादव अकेला है. दलित पिछड़े और आदिवासी विधायक और सांसदों को बोलना चाहिए. हर दल में यह पूरी ताकत के साथ मौजूद हैं. दिलीप यादव को इनसे सवाल करना चाहिए. मीडिया सिर्फ दिलीप के लिए नहीं आता है वो और भी बहुतों को छोड़ देता है. जेएनयू के छात्र दिलीप का साथ दे रहे हैं मगर हिन्दी या भारतीय भाषाओं का समाज चुप है. यह समाज अपनी भाषा के कमजोर लोगों से सहानुभूति नहीं रखता. हिन्दी का नाम लेने वाली सरकारें भी उसी संदर्भ में लेती हैं जब इसके सहारे दूसरी भाषाओं से टकराव की संभावना हो. दूसरी भारतीय भाषाओं पर दबदबा बनाए रखने या धमकाने के लिए हिन्दी का इस्तेमाल कर लिया जाएगा मगर जहां हिन्दी के मूल सवाल होंगे वहां हर कोई चुप रहेगा. दिलीप यादव को अपनी सेहत का ख्याल रखना चाहिए. अकेले की लड़ाई तकलीफदेह होती है.
नोट: बेशक कोई जेएनयू के छात्रों से न सीखे. उसे दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों और शिक्षकों से सीखना चाहिए. सोमवार को किसी अखबार में रिपोर्ट पढ़ रहा था कि यहां के 28 बड़े कालेजों में कई साल से स्थाई प्रिंसिपल नहीं है. साढ़े चार हजार तदर्थ शिक्षक हैं. यानी इतने शिक्षकों को स्थाई नौकरी मिल सकती थी. इसी तरह दिल्ली सरकार के स्कूलों में भी भारी संख्या में शिक्षकों के पद खाली हैं. हमारी सरकारें बेरोजगारी पैदा करती हैं, हमारा समाज सरकारों को इतना पसंद करता है कि अपने सवाल भी नहीं करता है. सोचिए जिस शहर में एक विश्वविद्यालय में हजार नौकरियां हों, उसे हासिल करने के लिए नौजवानों ने दिल्ली की तरफ कूच भी नहीं किया है. जो ठेके पर पढ़ा-पढ़ाकर इस महानगर में मुश्किल जिंदगी जी रहे हैं, उनमें अब वह ताकत नहीं बची है कि एक साथ जमा होकर शहर के किसी हिस्से को भर दें. निराश होने की जरूरत नहीं है. सोचिए देश के बाकी विश्वविद्यालयों और स्कूलों में कितनी नौकरियां होंगी. लेकिन नौजवान चुप हैं, समाज चुप है. वो दिलीप यादव जैसे छात्रों को लेकर जेएनयू के बारे में राय बना रहा है. अमरीका में लाखों महिलाओं के सड़क पर आने की तस्वीरें उम्मीद जगाती हैं. भारतीय नौजवानों के लिए यह क्या कम बड़ी बात है कि वे अमरीकी महिला मार्च की खबरों को पढ़ रहे हैं. पढ़ना ही तो सीखा है इन लोगों ने.
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