आपको याद होगा कि मोदी सरकार के पूर्व आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने कहा था कि 2011 से लेकर 2016 के बीच जीडीपी का डाटा सही नहीं है. जो बताया गया है वो 2.5 प्रतिशत अधिक है. उनके दावे के आधार पर कई प्रश्न उठे थे जिसका जवाब अरविंद ने दिया है. बताया है कि 2011 से 2016 के बीच भारत की अर्थव्यवस्था को कई गंभीर झटके लगे हैं. निर्यात ध्वस्त हो गया, बैंक घाटे में आ गए, कॉरपोरेट का अतिविस्तार, सूखा और नोटबंदी. इसके बाद भी इस दौरान जीडीपी 7.7 प्रतिशत से घटकर 6.9 प्रतिशत पर ही आई. ऐसा हो ही नहीं सकता कि इन बड़े झटकों के बाद भी जीडीपी पर मामूली असर पड़े. उनके सवाल अंग्रेजी के कुछ अखबारों में विस्तार से छपे हैं. उनका कहना है कि यूपीए 2 के आखिरी वर्षों में कहा जाता था कि नीतियों को लकवा मार गया है. लेकिन उसी दौर में उत्पादकता भी बढ़ी हुई है. संभव तो यही है कि इस दौरान उत्पादकता भी काफी घट गई होगी और अगर उत्पादकता बढ़ी थी तो फिर उसे कंपनियों के मुनाफे में झलकना था जो कि नहीं हुआ.
मोबाइल उत्पादन को लेकर सरकार क्या सही बोल रही है?
फाइनेंशियल एक्सप्रेस के ऋषि रंजन काला की रिपोर्ट है. 2017-18 में इलेक्ट्रानिक मंत्रालय ने कहा था कि 120 कंपनियां हैं जो मोबाइल फोन और उनके पुर्जे बनाती हैं. फरवरी 2019 में जब नेशनल पॉलिसी ऑन इलेक्ट्रानिक बनाई गई तब कहा गया कि मोबाइल हैंडसेट और पुर्जे बनाने वाली कंपनियों की संख्या 268 हो गई है. यह सारा कुछ पिछले 3-4 साल में हुआ है. दिसंबर 2018 में प्रधानमंत्री कहते हैं कि 120 कंपनियां मोबाइल बना रही हैं. 1 फरवरी 2019 के अंतरिम बजट में वित्त मंत्री ने इसकी संख्या 268 बताई.
जब फाइनेंशियल एक्सप्रेस ने पड़ताल की तो पता चला कि भारत में 127 यूनिट हैं जो मोबाइल फोन बनाती हैं. इनमें से मात्र 41 प्रतिशत ऑपरेशनल हैं यानी चालू हालत में हैं. 65 यूनिट में से 55 प्रतिशत तो केवल बैटरी बनाती हैं. 85 कंपनियां चार्जर बनाती हैं. संवाददाता ने जब मंत्रालय से पूछा कि कितनी कंपनियां या यूनिट मोबाइल फोन का उत्पादन कर रही हैं तो जवाब नहीं मिला. संवाददाताओं के ज्यादातर सवालों के जवाब यही होते हैं. यही नहीं इन कंपनियो को ब्यूरो ऑफ स्टैंडर्ड में पंजीकरण कराना होता है, उनके पास भी आंकड़े नहीं हैं.
नेशनल पॉलिसी ऑन इलेक्ट्रानिक 2019 के अनुसार भारत में हैंडसेट का उत्पादन 2014-15 में 6 करोड़ से बढ़कर 2017-18 में 22.5 करोड़ हो गया. इसमें प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से 6.7 लाख लोगों को काम मिला. 2015 में पूरी तरह से तैयार मोबाइल फोन के सामानों का आयात 8 अरब डॉलर का हुआ था. 2018 में 3.5 अरब डॉलर का रह गया. यानी काफी घट गया. दूसरी तरफ मोबाइल फोन के सामान का आयात 2.8 अरब डॉलर से बढ़कर 11.6 अरब डॉलर हो गया. इस साल कुछ कम हुआ है. हिन्दुस्तान टाइम्स में भी पिछले साल ऐसी रिपोर्ट छपी थी. जिसके बारे में हमने फेसबुक पेज पर लिखा था.
फाइनेंशियल एक्सप्रेस के पत्रकार ऋषि रंजन काला कहते हैं कि आरटीआई के जवाब में बताया गया कि 342 यूनिट हैं. कुछ ओवरलैप हो सकता है इसलिए मंत्रालय ने यूनिट की संख्या 268 ही बताई. जैसे 15 ऐसे यूनिट हैं जिन्होंने अपना पंजीकरण मोबाइल फोन और बैटरी पैक बनाने के लिए कराया है. एक ही कंपनी दो काम कर रही है तो एक ही गिना जाए. काला साहब लिखते हैं कि इन्हें 1 गिना जाना चाहिए.
BIS की वेबसाइट पर इसका कोई हिसाब नहीं है कि कितने मोबाइल फोन का उत्पादन होता है. लेकिन इसका हिसाब है कि कितने यूनिट चालू हैं और कितने बंद हो चुके हैं. इसके अलावा ऋषि रंजन काला ने रजिस्ट्रार ऑफ कंपनी के डेटा से भी चेक किया है.
एक कंपनी है राइजिंग स्टार्स मोबाइल इंडिया प्राइवेट लिमिटेड जो मोबाइल फोन बनाती है. BIS की साइट बताती है कि महाराष्ट्र में इस कंपनी की एक यूनिट है जिसका पंजीकरण लैप्स हो गया है. आंध्र प्रदेश में भी दो यूनिट हैं. जहां कई कंपनियों के फोन बनते हैं.
आंकड़ों को लेकर झांसेबाजी कामयाब होती रहेगी. ऐसे विश्लेषण जनता के बीच पहुंचते ही नहीं है. अब देखिए एक खबर है कि बंगलुरू सबसे डिजिटाइज़्ड शहर है. हेडलाइन देखकर आप खुश हो जाएंगे. लेकिन यह तमगा इसलिए मिला है कि वहां सबसे अधिक कार्ड पेमेंट होता है. क्या इससे कोई शहर डिजिटाइज़्ट घोषित किया जा सकता है? उस शहर की हालत जाकर देखिए. ट्रैफिक जाम से तो प्राण ही निकल जाएंगे.
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