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This Article is From Aug 16, 2019

एक डॉक्टर और उसका कश्मीर, एक पत्रकार और उसका हिन्दी प्रदेश

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 16, 2019 23:22 pm IST
    • Published On अगस्त 16, 2019 23:22 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 16, 2019 23:22 pm IST

अचानक दरवाज़ा खुला और एक शख़्स सामने आकर खड़ा हो गया. कंधे पर आला लटका हुआ था. नाम बताने और फैन कहने के कुछ अधूरे वाक्यों के बीच वह फफक पड़ा. पल भर में संभाला, लेकिन तब तक आंखों से आंसू बाहर आ चुके थे. वह डॉक्टर होने की गरिमा बनाए रखना चाहता था मगर कश्मीरी होने के कारण वह भरभरा गया था. मैं जितना कश्मीर से दूर जाता हूं, कश्मीर उतना ही करीब आ जाता है. मैं चुप खड़ा हो गया. वह मुझसे गले मिलने के फासले पर खड़ा रहा. अपनी नज़रों को वहां मौजूद अन्य लोगों से बचाता रहा, लेकिन कहने से ख़ुद को रोक नहीं पाया.

मुझ तक आने से पहले उसने अपनी मां से बात की थी. मां मनोरोगी हैं. उन्हें कुछ पता नहीं कश्मीर में क्या हुआ. उसका बेटा मेरे सामने खड़ा था. बोला मां ने डांटा कि मैं इतने दिनों से फोन क्यों नहीं कर रहा था. मैं जवाब नहीं दे पाया. 12 दिनों से मैं कैसे ख़ुद को संभाल रहा हूं बता नहीं सकता. कमरे में सन्नाटा पसर गया. एक डॉक्टर अपने रोने और कहने के बीच बहुत सारे ग़ुबार लिए खड़ा था. गले लगा लेता तो उसकी बातें पीछे रह जातीं इसलिए उसके सामने खड़ा रहा. सब कुछ छोड़ कर सुनने लगा.

'सबको एक ब्रैकेट में डाल दिया. कोई अलगाववादी है तो कोई संविधानवादी. कोई वोट देता है, कोई नहीं देता. वहां अलग-अलग ब्रैकेट रहे हैं, लेकिन अब सबको एक कर दिया गया है. मैं हमेशा से इंडिया में इंटिग्रेट मानता रहा, लेकिन अब कहा जा रहा है कि तुमको इंटीग्रेट होना पड़ेगा. मैं इंडिया के लिए दोस्तों से बहस करता था. कश्मीर के लोगों को समझाता था. आज मैं तन्हा हो गया. अपनी सारी बहस हार गया. कोई मुझे समझने वाला नहीं है. मैं अपनी मां से बात नहीं कर सका. कुछ पता नहीं चल रहा है कि घर में क्या हो रहा है. एक एक दिन भारी पड़ रहा है. हमारी ये हालत कर दी गई कि हम फोन से बात न कर सकें और मीडिया कहता है कि हम सब ख़ुश हैं. इस मीडिया ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा है. आपसे एक सवाल करना है.'

'उत्तर भारत के हिन्दी भाषी लोग हमसे इतनी नफ़रत क्यों करते हैं? वो हमारे बारे में जानते ही क्या हैं? क्या उन्हें पता है कि कश्मीर की समस्या क्या है. हर किसी की इतनी ओपिनियन किसने बनाई है. डॉक्टर अपने आवेग में बह चुका था. अब वह एक मरीज़ की तरह पूछ रहा था और मैं एक डॉक्टर की तरह सुनता जा रहा था. वह मरीज़ हो गया है. उसे मरीज़ बना दिया गया है.'

बीच-बीच में वह ख़ुद को संभालने के लिए अंग्रेज़ी बोलता है. फिर फ़ैज़ की नज़्में सुनाता है. फिर संभलता है और मुझसे हिन्दी में बातें करने लगता है. कभी कश्मीर तो कभी मां तो कभी मीडिया की बातें करने लगा. एक अच्छे ख़ासे इंसान को जितना सरकार के फ़ैसले ने नहीं, उतना मीडिया के झूठ ने तोड़ दिया है. हर वाक़्ये के साथ फ़ैज़ और उनकी नज़्म के एक टुकड़े को दवा की तरह गटकता रहा. आज मुझे फ़ैज़ के होने की सार्थकता समझ आ गई. हम सभी को अपने ऐसे किसी दिन के लिए किसी शायर या कवि को याद रखना चाहिए. वो याद रहेगा तो उसकी नज़्में और कविताएं याद रहेंगी. क्या पता हम अंधेरी सुरंग में भी ज़िंदगी काट दें.

'कश्मीरी पंडितों के साथ गलत हुआ. नहीं होना था. क्या हमारे साथ ग़लत नहीं हुआ. क्या हम ये डिज़र्व करते थे? कि हमें अपने से बात तक नहीं करने दिया गया. हम घर वालों का हाल तक न पूछ सके.' 'आपने हमें घरों में क्यों बंद किया. जब वहां फैसले पर ख़ुशी है तो हमें निकलने क्यों नहीं दिया गया. घर वालों से बात करने क्यों नहीं दी गई.' एक ही मुल्क के दो लोग. एक छोर पर संपर्क से काट दिया गया डॉक्टर खड़ा था. एक छोर पर मैं उस हिन्दी प्रदेश के समंदर में डूबता महसूस कर रहा था जहां के अख़बारों और चैनलों ने भारत के इतने बड़े हिस्से को झूठ और नफरत की बातों से भर दिया है. क्या किसी का व्यक्तिगत प्रयास करोड़ों लोगों तक फैल चुके झूठ और प्रोपेगैंडा को दूर कर सकता है? नहीं.

हिन्दी प्रदेश अभिशप्त प्रदेश हैं. हिन्दी और हिन्दी प्रदेश को उसके अख़बारों से आज़ाद होना ही होगा. वर्ना वो हिन्दी के नाम पर अपने पाठकों को दूसरा कश्मीर बना देंगे. सूचना के नाम पर सूचनाविहीन कर देंगे. आप हिन्दी के अख़बारों और चैनलों से सावधान रहें. आप ज़हर हो रहे हैं. डॉक्टर का बोलना जारी था. 'एक झटके में सब ख़त्म कर दिया. इस मीडिया की झूठी ख़बरों को सुनकर मुझसे लोग पूछ रहे हैं कि आप लोग तो बहुत ख़ुश हैं. पूछा था हमसे पहले, बताया था हमें, जब फैसला लिया तो हमें घर वालों से बात नहीं करने दी. गिड़गिड़ाया हूं पुलिस वाले से कि बात करा दो. उसने करा दी. बहुत शुक्रिया उसका.'

'डर लग रहा है कि कोई घर वालों को उठा कर तो नहीं ले गया. सोच-सोच कर दिमाग़ फटा जा रहा है. हम अपने लोगों के बीच संदेह की नज़र से देखे जा रहे हैं. मैं कितना भी भारतीय होना चाहूं, कश्मीरी ही नज़र आता हूं. अब तो कश्मीरी पहचान बचेगी, पता नहीं.' मुझे अब उसकी बातें शब्दश याद नहीं हैं. सिर्फ याद है कि एक शख़्स का भरभरा जाना. उसके बिखर जाने में उन वादों का भरभरा जाना है जो हम सब भारतीय रोज़ एक दूसरे से करते हैं. इस लेख को पढ़ कर फैसले लेने वाले लोग हंस सकते हैं. ख़ुश हो सकते हैं कि उन्होंने एक आम इंसान की क्या हालत कर दी है. उनके पास कितनी ताक़त है. उन्हें इस जीत पर बधाई. इतिहास बना है. झूठ का इतिहास. कमरे में उसकी बातचीत लंबी होती जा रही थी. वह अपने आंसुओं को दिखने से बचाने के लिए बातें बदलता रहा. लेकिन उसका दिमाग़ एक ही जगह अटका रहा. वह इस बात को समझ नहीं पा रहा था कि उसे क्यों कश्मीर से काट दिया गया? उसके घर से क्यों काट दिया गया? क्यों वह मां से 12 दिनों तक बात नहीं कर सका?

उसने फोन निकाला. नंबर डायल किया. बताने लगा कि दो हफ्ते से हज़ार बार घर पर फोन लगा चुका है. हर बार यही आवाज़ सुनाई देती है. अंग्रेज़ी, कश्मीरी और हिन्दी में ऑपरेटर की आवाज़ सुनाई देती है. 'आपने जिन्हें कॉल किया है, उनकी इनकमिंग कॉल की सेवा स्थगित की गई है.' मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं था. सुनने के लिए धीरज था. सुनता रहा. गले लगाने की पहली शर्त है. पहले सुनना होता है. जाते-जाते गले लगा लिया. एक नौजवान को अपने कंधे पर ढेर सारे सवालों के साथ अपनी पहचान को ढोता देख सहम गया. घर आकर बीबीसी हिन्दी पर कश्मीरी पंडित श्वेता कौल का एक लेख पढ़ने लगा. 'इतनी बुनियादी बात लोग समझने को तैयार नहीं हैं कि इंसाफ़ और बदले की भावना एक ही नहीं है. मुसलमानों का पीड़ित होना कश्मीरी पंडितों के लिए न्याय नहीं है, यह समझना चाहिए.'

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) :इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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