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This Article is From Nov 22, 2016

अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन में क्यों होती है लाखों-करोड़ों की टैक्स चोरी

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 22, 2016 11:43 am IST
    • Published On नवंबर 22, 2016 11:43 am IST
    • Last Updated On नवंबर 22, 2016 11:43 am IST
अमेरिका में 30 से 32 लाख करोड़ की सालाना टैक्स चोरी होती है. जिस तरह भारत में आयकर विभाग है, उसी तरह अमेरिका के इंटरनल रेवेन्यू सर्विस की एक रिपोर्ट इसी साल अप्रैल में छपी है, जिसके अनुसार 2008 से 2010 के बीच हर साल औसतन 458 अरब डॉलर की टैक्स चोरी हुई है. अगर मैंने इसका भारतीय मुद्रा में सही हिसाब लगाया है तो अमेरिका में 30 से 32 लाख करोड़ रुपये सालाना टैक्स चोरी हो जाती है. यह आंकड़ा इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है, क्योंकि भारत में नोटबंदी के बाद से कैशलेस का ऐसा प्रचार किया जा रहा है, जैसे यह हींग की गोली है, जो अर्थव्यवस्था की बदहज़मी को दूर कर देगी. कहा जा रहा है कि भारत में टैक्स चोरी बंद हो जाएगी या कम से कम हो जाएगी, लेकिन अमेरिका में कहां कम हो गई, कहां बंद हो गई.

फ्रांस की संसद की रिपोर्ट है कि हर साल 40 से 60 अरब यूरो की टैक्स चोरी होती है. 60 अरब यूरो को भारतीय मुद्रा में बदलेंगे तो यह चार लाख करोड़ रहता है. वहां का टैक्स विभाग 60 अरब यूरो की कर चोरी में से 10 से 12 अरब यूरो ही वसूल पाता है. यानी 30 से 50 अरब यूरो की टैक्स चोरी वहां भी हो ही जाती है. ब्रिटेन में हर साल 16 अरब यूरो की टैक्स चोरी होती है. भारतीय मुद्रा में 11 हज़ार करोड़ की चोरी. जापान की नेशनल टैक्स एजेंसी ने इस साल की रिपोर्ट मे कहा है कि इस साल 13.8 अरब येन की टैक्स चोरी हुई है. भारतीय मुद्रा में 850 करोड़ की टैक्स चोरी होती है. 1974 के बाद वहां इस साल सबसे कम टैक्स चोरी हुई है.

मान लीजिए कि पूरी आबादी इलेक्ट्रॉनिक तरीके से लेन-देन करती है तो भी यह गारंटी कौन अर्थशास्त्री दे रहा है कि उन तमाम लेन-देन की निगरानी सरकारें कर लेंगी. क्या यह उनके लिए मुमकिन होगा. अगर ऐसा है तो सरकार सभी बैंक खातों की जांच कर ले. हमारे बैंक तो इलेक्ट्रॉनिक हैं न. कई लोग कहते हैं कि बैंकों में अभी भी लोगों के कई नामों से खाते खुले हैं. बैंक अपने ग्राहकों से पहचान पत्र मांगता है तब भी बैंकों में खाता खोलकर काला धन रखा ही जाता है. आयकर विभाग तमाम शहरों के कुछ बड़े दुकानदारों या बिजनेसमैनों के यहां छापे डालकर लोगों में भ्रम पैदा करता है, सरकार सबको पकड़ रही है. क्या आप यह बात आसानी से मान लेंगे कि सांसदों, विधायकों के पास काला धन नहीं है. क्या सभी दलों के सांसदों या विधायकों के यहां छापे की ख़बर आपने सुनी है.

दुनिया में आप कहीं भी टैक्स चोरों का प्रतिशत देखेंगे कि ज़्यादातर बड़ी कंपनियां टैक्स चोरी करती हैं. आप उन्हें चोर कहेंगे तो वे आपके सामने कई तरह के तकनीकी नामों वाले बहीखाते रख देंगे. लेकिन कोई किसान दो लाख का लोन न चुका पाए, तो उसके लिए ऐसे नामों वाले बहीखाते नहीं होते. उसे या तो चोर बनने के डर से नहर में कूदकर जान देनी पड़ती है या ज़मीन गिरवी रखनी पड़ती है. क्या उनके लिए आपने सुना है कि कोई ट्रिब्यूनल है. 2015 में Independent Commission for the Reform of International Corporate Taxation (ICRIT) ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि अंतरराष्ट्रीय कॉरपोरेट टैक्स सिस्टम बेकार हो चुका है.

अब बताइए, जिसकी तरह हम होना चाहते हैं, उसे ही बेकार और रद्दी कहा जा रहा है. इंटरनेट सर्च के दौरान ब्रिटेन के अख़बार 'गार्जियन' में इस रिपोर्ट का ज़िक्र मिला है. इतने तथ्य हैं और रिपोर्ट हैं कि आपको हर जानकारी को संशय के साथ देखना चाहिए. इस रिपोर्ट का कहना है कि मल्टीनेशनल कंपनियां जिस मात्रा में टैक्स चोरी करती हैं, उसका भार अंत में सामान्य करदाताओं पर पड़ता है, क्योंकि सरकारें उनका तो कुछ बिगाड़ नहीं पाती हैं. एक-दो छापे मारकर अपना गुणगान करती रहती हैं. इन मल्टीनेशनल कंपनियों की टैक्स लूट के कारण सरकारें गरीबी दूर करने या लोक कल्याण के कार्यक्रमों पर ख़र्चा कम कर देती हैं.

इसका मतलब यह है कि दुनिया भर की कर प्रणाली ऐसी है कि एक देश का अमीर दूसरे देश में अपना पैसा ले जाकर रख देगा. उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता है. इसी साल 'इंडियन एक्सप्रेस' ने पनामा पेपर्स पर कई हफ्तों की रिपोर्ट छापी कि कैसे यहां के बड़े-बड़े लोग फर्ज़ी कंपनियों और शेयरों के ज़रिये विदेशों में अपना पैसा रखे हुए हैं. सरकार जांच-वांच का ऐलान करती है, मगर इस रफ्तार से काम करती है कि अंतिम नतीजा आते-आते आप सब कुछ भूल चुके होंगे. नोटबंदी के सिलसिले में सब स्लोगन बांच रहे हैं. काला धन चला जाएगा. टैक्स चोरी बंद हो जाएगी. क्या भारत में नेशनल और मल्टीनेशनल कंपनियों की टैक्स चोरी बंद हो जाएगी...? इस विश्वास का आधार क्या है...? क्या अमेरिका में 30 लाख करोड़ रुपये की टैक्स चोरी ग़रीब और आम आदमी करता है. वहां भी बड़ी कंपनियां टैक्स चोरी करती हैं. जानबूझकर करती हैं, ताकि टैक्स अदालतों में लंबे समय तक मामला चले और फिर अदालत के बाहर कुछ ले-देकर सुलझा लिया जाए.

यह कहना कि नकदी नोट का प्रचलन समाप्त हो जाए या कम से कम हो जाए, तो अर्थव्यवस्था में रात की रानी के फूल खिलते हैं, इसका आधार क्या है. अर्थव्यवस्था में उछाल या मंदी के दूसरे कारण होते हैं. बेहतर टैक्स प्रशासन ज़रूर इसकी गति को सुगम बनाता है, लेकिन वह गति नहीं देता है. इलेक्ट्रॉनिक तरीके से लेन-देन करने का मतलब यह नहीं कि सारा पैसा सफेद ही है. उसी तरह से नगदी मुद्रा में लेन-देन का यह मतलब नहीं कि सारा कारोबार काले धन में हो रहा है. नोटबंदी के फैसले से खुश आम आदमी क्या इस बात की जानकारी रखता है कि काले धन के जितने भी स्वरूप हैं, उसका छह प्रतिशत ही नकदी है. बाकी मकान, ज़मीन, सोना और शेयर के रूप में रख जाते हैं. जिस तरह से सरकार ने आम लोगों की बचत पर हाथ डाल दिया, क्या वह सभी शेयरों के लेन-देन को सीमित कर, उनकी जांच करने का ऐसा फैसला कर सकती है. संदेह तो उन शेयरों की खरीद-बिक्री को लेकर भी होता है. अगर शेयरों के ज़रिये काला धन एडजस्ट किया जाता है, तो क्या कोई शेयरबंदी जैसा सुझाव है किसी के पास.

अमेरिका में 70 प्रतिशत लोगों के पास डेबिट या क्रेडिट कार्ड हैं. आखिर अमेरिका जैसे अतिविकसित देश में 30 प्रतिशत लोगों के पास कार्ड क्यों नहीं है. ज़ाहिर है वे निर्धन होंगे. उनके पास बैंक में रखने के लिए पैसे नहीं होंगे. बैंक भी सबका खाता नहीं खोलते हैं. ग़रीब लोगों को अमेरिका क्या, भारत में भी कंपनियां क्रेडिट कार्ड नहीं देतीं. अमेरिका में भी दिहाड़ी मज़दूर होते हैं, जो नगद में कमाते हैं. वहां क्यों नहीं इसे पूरी तरह ख़त्म कर दिया गया, जो भारत में कुछ लोग इसे राष्ट्रवाद में लपेट कर धमकी भरे स्वर में बता रहे हैं कि यह आर्थिक तकलीफों से मुक्ति का श्रेष्ठ मार्ग है. 'गार्जियन' अखबार में कैशलेस अर्थव्यवस्था पर आर्थिक पत्रकार Dominic Frisby का एक आलोचनात्मक लेख पढ़ा. इसमें उन्होंने कहा है कि कैशलेस का नारा दरअसल ग़रीबों के खिलाफ युद्ध का नारा है, गरीबी के खिलाफ नहीं. उन्होंने कहा है कि जिस तरह इसकी वकालत की जा रही है, उन नारों को सुनेंगे तो लगेगा कि नकद का इस्तेमाल करने वाले लोग अपराधी हैं, आतंकवादी हैं, टैक्स चोर हैं.

नोटबंदी ने हमें अपनी आर्थिक समझ का विस्तार करने का सुनहरा मौका दिया है. हमें नारों को ज्ञान नहीं समझना चाहिए. किसी बात को अंतिम रूप से स्वीकार करने की जगह, तमाम तरह की जानकारियों को जुटाइए. तरह-तरह के सवाल पूछिए. फैसला सही है या नहीं है, इसके फेर में क्यों पड़े हैं. फैसला हो चुका है. इसके अच्छे-बुरे असर को जानना चाहिए और इसके बहाने समझ का विस्तार करना चाहिए. हम सब जानते हैं कि राजनीतिक रैलियों में लोग कैसे लाए जाते हैं. ज़ाहिर है, अब नेता उन्हें हज़ार-पांच सौ का चेक देकर तो नहीं लाएंगे. नेता ही कहते हैं कि उनकी रैली में पैसे देकर लोग लाए गए थे. अब ऐसी रैली में अगर कोई काले धन की समाप्ति का ऐलान करे तो पैसे लेकर आई भीड़ ताली तो बजा देगी, लेकिन जिस असलियत को वह जानती है, उससे आंखें कैसे चुरा सकती है. एक काम हो सकता है कि जिस रैली में काले धन की समाप्ति का ऐलान हो, उसमें कहा जाए कि यहां आई जनता को पैसे देकर नहीं लाया गया है. इस रैली के आयोजन में इतना पैसा खर्च हुआ है, कुर्सी से लेकर माइक के लिए इतना इतना किराया देना पड़ा है, इन-इन लोगों ने रैली के लिए चंदा दिया है.

बेहतर है कि नोटबंदी को लेकर किए जा रहे दावों को छोड़ हम सवालों को देखें. हर जवाब हमारी आर्थिक समझदारी को विकसित करेगा. हम पत्रकार भी उतने योग्य नहीं है कि अर्थव्यवस्था के इन बारीक सवालों को दावे के साथ रख सकें. मैंने कोई अंतिम बात नहीं की है. आप भी अंतिम बात जानने का मोह छोड़ दें, नई बातें जानने की बेचैनियों का विस्तार करें.

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