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This Article is From Mar 11, 2017

यूपी चुनाव नतीजे : गैर भाजपा दलों के लिए यह आत्‍ममंथन का समय

Ratan Mani Lal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मार्च 11, 2017 17:11 pm IST
    • Published On मार्च 11, 2017 17:08 pm IST
    • Last Updated On मार्च 11, 2017 17:11 pm IST
आखिरकार उत्तर प्रदेश में वही नतीजे आए जिसकी बहुत लोगों को उम्मीद नहीं थी. लगभग 27 सालों से सत्ता से बाहर रही कांग्रेस पार्टी हो या 2014 के लोकसभा में मिली अभूतपूर्व हार से आहत बहुजन समाज पार्टी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दमदार व्यक्तित्‍व पर लहराती बीजेपी हो या समाजवादी पार्टी पर सम्पूर्ण कब्ज़ा पा लेने के बाद अति-उत्साहित अखिलेश यादव (जिनको कांग्रेस के राहुल गांधी का साथ मिला) सभी को इस विधानसभा चुनाव में पूरी उम्मीद थे कि इतिहास तो रचा जाएगा.... और इतिहास तो रच ही दिया गया. बीजेपी के घोर समर्थक भी पार्टी के 200 के करीब का आंकड़ा पाने की उम्मीद कर रहे थे, लेकिन जिस तरह से संप्रदाय, जाति या क्षेत्र के सीमाएं तोड़ते हुए कुल वोट का 40 प्रतिशत से भी ज्यादा पाकर बीजेपी ने उत्तर प्रदेश की सत्ता हासिल की है, उससे प्रदेश के लोगों और राजनीतिक माहौल के बारे में नई परिभाषाएं गढ़ने के जरूरत महसूस हो रही है.

अखिलेश यादव के नेतृत्‍व में समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया.अखिलेश और राहुल गांधी ने अपने गठबंधन को दो युवाओं की दोस्ती के रूप में पेश किया और नारा दिया कि 'यूपी को ये साथ पसंद है.'  लेकिन प्रदेश को ये साथ पसंद नहीं आया, यह स्पष्ट हो गया है. 'तीसरे खिलाड़ी' की तरह चुनाव मैदान में उतरी बहुजन समाज पार्टी  को तो लगता है कि प्रदेश की जनता के बड़े हिस्से ने पूरी तरह से नकार दिया है. यहां तक कि यदि जनसंख्‍या में बसपा के स्थापित समर्थकों के समुदाय की हिस्सेदारी को ही आधार माना जाए तो शायद उस समुदाय ने भी बहन मायावती से मुंह मोड़ लिया है.

चुनाव से पहले कयास लगाए जा रहे थे कि गठबंधन द्वारा बिहार के चुनावी नतीजे दोहराए जा सकते हैं. नोटबंदी का नुकसान झेल रही भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कोई करिश्मा नहीं दिखला पा रहे हैं और लोगों को अखिलेश द्वारा शुरू किए गए काम (लखनऊ की मेट्रो, एक्सप्रेसवे आदि) इतने पसंद हैं कि प्रदेश के इतिहास में दशकों बाद कोई सरकार दोहराई जा सकती है. लेकिन न नोटबंदी, न गठबंधन और न ही दलित-मुस्लिम गठजोड़ लोगों को प्रभावित कर पाया और मोदी का जादू फिर चल ही गया.

केवल सपा ने गलतियों से सबक लेने की बात कही
जैसे-जैसे शनिवार (11 मार्च) को नतीजे आते जा रहे थे, वैसे-वैसे ही एक समुदाय के लोगों में बेचैनी बढ़ती जा रही थी. इस समुदाय के एक वरिष्ठ नागरिक ने यहां तक कहा कि उन्हें अब लखनऊ में रहने के बारे में सोचना पड़ेगा, वहीं कांग्रेस के एक बहुत वरिष्ठ नेता ने एक कार्यक्रम में प्रदेश के लोगों की समझदारी पर ही सवाल खड़े कर दिए. अपनी प्रतिक्रिया में मायावती ने भाजपा पर ठीकरा इलेक्‍ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) से छेड़छाड़ का आरोप लगा दिया. केवल सपा के प्रतिनिधियों ने ही ईमानदारी से स्वीकार किया कि उनकी पार्टी में पिछले कुछ महीनों के घटनाक्रम की वजह से उनकी हार हुई और यह भी माना कि उनकी पार्टी को अपनी गलतियों से सबक लेना होगा.

पिछड़े-दलित समाज ने बड़े पैमाने पर बीजेपी को दिया समर्थन
उत्तर प्रदेश की राजनीति में कुछ अनुमान पहले से ही लगाये जाते रहे हैं, जैसे, यहां जातिवाद का बोलबाला है, यहां बाहुबली राजनीतिक नेता ज्यादा महत्‍वपूर्ण होते हैं, यहां ध्रुवीकरण काम कर जाता है, यहां राष्ट्रीय दलों का महत्‍व कम होता जा रहा है और क्षेत्रीय, जाति-आधारित दल प्रभावशाली होते जा रहे हैं, और यहां प्रादेशिक क्षत्रप ही मायने रखते हैं. लेकिन भाजपा की इस जीत ने इन सभी अनुमानों को दरकिनार कर कर दिया है. सपा और बसपा के हाशिये पर जाने से यह स्पष्ट है कि पिछड़ी और दलित जातियों के लोगों ने बड़ी मात्रा में भाजपा को समर्थन दिया है. साथ ही, एक राष्ट्रीय पार्टी द्वारा केवल एक राष्ट्रीय नेता (नरेन्द्र मोदी) को आगे रखकर क्षेत्रीय क्षत्रपों के महत्‍व को एकदम से घटा कर रख दिया है. इसके साथ ही कई मुस्लिम बहुल इलाकों में भाजपा के प्रत्याशी का जीतना यह भी स्थापित करता है कि शायाद अल्पसंख्यक वर्ग ने भी बड़ी हद तक भाजपा का समर्थन किया है और ऐसा तब हुआ जब भाजपा ने एक भी मुस्लिम प्रत्याशी चुनाव में नहीं उतारा था.

मायावती ने ईवीएम पर हार का ठीकरा फोड़ दिया
चुनाव के बाद मुख्यमंत्री का चयन पार्टी का आंतरिक फैसला है क्योंकि भाजपा ने किसी एक चेहरे को आगे किया ही नहीं था. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा भी है कि एक-दो दिन में मुख्यमंत्री का चयन हो ही जाएगा. प्रदेश की राजनीति में अब बड़ा सवाल अगला मुख्यमंत्री नहीं है, बल्कि यह है कि दो भूतपूर्व मुख्यमंत्री अब क्या करेंगे. मायावती अब  पहले ही तरह दिल्‍ली में राज्य सभा में दिखती रहेंगी और अखिलेश यादव वैसे भी विधान परिषद के सदस्य हैं. अखिलेश यादव को भले ही समाजवादी पार्टी की पूरी कमान मिल चुकी है लेकिन उनके नेतृत्‍व में 224 सीटों के साथ सरकार चला रही समाजवादी पार्टी इस चुनाव में 50 के आंकड़े पर सिमटकर रह गई है. इससे उनके नेतृत्‍व और कार्यशैली पर सवाल उठेंगे. जहां तक मायावती का सवाल है, उन्होंने अपनी बौखलाहट  में अपनी हार का ठीकरा ईवीएम में छेड़छाड़ पर फोड़ दिया है. यही नहीं, उन्होने यहां तक कहा कि अन्य पार्टियों के समर्पित मतदाताओं का भाजपा के पक्ष में चले जाना किसी के गले नहीं उतर रहा है. गैर भाजपा दलों को अब यह समझना होगा कि जाति और संप्रदाय के इतर लोगों को मोदी के वादे और उनका काम करने का तरीका पसंद आ रहा है. शायद समय आ गया है कि भाजपा और मोदी का तार्किक और अतार्किक विरोध करने के बजाय  अन्य राजनीतिक दलों को आत्मनिरीक्षण और मंथन करना चाहिए कि वे भविष्य में अपने को कहां  देखना चाहते हैं...

रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...

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