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This Article is From Mar 13, 2016

समय के साथ बदलता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

Akhilesh Sharma
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मार्च 13, 2016 19:08 pm IST
    • Published On मार्च 13, 2016 18:59 pm IST
    • Last Updated On मार्च 13, 2016 19:08 pm IST
राजस्थान के नागौर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तीन दिनों की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में मीडिया की दिलचस्पी इस बात पर ही ज्यादा रही कि यूनिफॉर्म को लेकर बहुप्रतिक्षित बदलाव होता है या नहीं। संघ ने भी मीडिया को निराश नहीं किया। बैठक के अंतिम दिन संघ महासचिव ने बाकायदा यूनिफॉर्म में बदलाव का ऐलान कर दिया। स्वयंसेवक अब नियमित शाखाओं में खाकी निकर के बजाए भूरी या कॉफी रंग की फुलपैंट पहन कर आएंगे। 90 साल से संघ की पहचान बनी खाकी निकर को आखिर तिलांजलि देने का निर्णय कर लिया गया। संघ ने इसे समय के बदलाव के साथ खुद को बदलने का एक प्रयास बताया। संघ महासचिव भैय्याजी जोशी ने फैसले का ऐलान करते हुए कहा कि ''सामान्य जीवन में फुलपैंट चलती है और हमने उसे स्वीकार किया। हम समाज के साथ चलने वाले लोग हैं।'' और जैसा कि अपेक्षित था, मीडिया ने पूरा ध्यान इसी निर्णय पर केंद्रित किया। मगर क्या नागौर की बैठक सिर्फ खाकी निकर के आसपास ही घूमती रही? जवाब है नहीं।

ये सही है कि अब संघ पहले जैसा नहीं दिखेगा। संघ के विरोधी स्वयंसेवकों का खाकी निकर को लेकर जैसा मजाक बनाते आए हैं उन्हें अब शायद फुलपैंट को लेकर कुछ नया शब्द गढ़ना होगा। मगर बदलाव की ये छटपटाहट संघ की बदली सोच को भी दिखाती है। गौरतलब है कि यूनिफॉर्म में बदलाव की बात संघ के भीतर से ही उठी। संघ में फैसले धीरे-धीरे और लंबे विचार-विमर्श के बाद होते हैं। कुछ लोग मजाक करते हैं कि संघ के लोग यात्रा के लिए सबसे धीमी और सबसे लंबे रूट पर चलने वाली ट्रेन का इस्तेमाल करते हैं। निकर के बजाए फुलपैंट पहनने का ये फैसला होने में भी कई साल लग गए। बदलाव का मकसद यही है कि बदले वक्त के साथ खुद को भी चलते हुए दिखाया जाए। 1925 में संघ की स्थापना के समय जब फूली हुई खाकी निकर यूनिफॉर्म में रखने का फैसला हुआ तब वो सबसे अधिक फैशन में थी। तब खाकी कमीज थी। चमड़े के फीतेदार जूते के ऊपर मुड़े खाकी मोजे पहनने की रवायत थी। स्वयंसेवक के हाथ में लाठी थी। सीटी रखना जरूरी था। चमड़े की लाल बेल्ट थी। और सिर पर काली टोपी। हिंदू समाज को इकट्ठा रखना और उसके चारित्रिक प्रशिक्षण के जिस मकसद से संघ चला शायद उसके लिए ये वेश-भूषा जरूरी रही होगी। द्वितीय विश्व युद्ध के समय सक्रिय जिन यूरोपीय दक्षिणपंथी गुटों से संघ प्रेरित था, शायद यूनिफॉर्म के कई हिस्से भी वहां से उधार लिए गए। एक तरह का सैनिक अनुशासन बनाने का उद्देश्य इसके पीछे रहा। पर धीरे-धीरे सब कुछ बदलता गया।

सबसे पहले खाकी कमीज गई। उसकी जगह सफेद शर्ट ने ली। प्रतिबंधों के चलते सैनिक स्वरूप भी बदलना पड़ा। हाथ से लाठी छूट गई। सीटी भी चली गई। चमड़े को लेकर भी सवाल उठने लगे। कुछ जैन मुनियों ने कहा कि जानवरों के चमड़े से बने जूते और बेल्ट अहिंसा के इस युग से मेल नहीं खाते। इसके बाद चमड़े के लाल बेल्ट के बजाए सिंथेटिक कपड़े की लाल बेल्ट शुरू हुई। जूते के बारे में कह दिया गया कि प्लास्टिक या कैनवास के जूते पहने जा सकते हैं। यूपीए सरकार के वक्त हिंदू आतंकवाद का शोर हुआ तो शाखाओं की संख्या में कमी भी आई। युवाओं को खींचने के लिए ऑनलाइन शाखाएं लगाई जाने लगीं। विदेशों में शाखाओं में यूनीफॉर्म में छूट दे दी गई। वहां ट्रैक पैंट पहन कर आने की अनुमति मिल गई। पर कुछ युवा निकर को लेकर हिचकिचाते रहे। इसलिए बदलाव की ओर कदम बढ़ाया गया। केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद से शाखाओं की संख्या में बढ़ोतरी दर्ज की गई है। अब अनुकूल माहौल पाकर इरादा इसे ज्यादा व्यापक करने का है।

लेकिन नागौर में कुछ और भी बदलाव के संकेत मिलते हैं। प्रतिनिधि सभा को अपनी रिपोर्ट में संघ के सरकार्यवाह भैय्याजी जोशी ने मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश का मुद्दा उठाया। इसे व्यापक प्ररिप्रेक्ष्य में रखा गया। संघ ने कहा कि मंदिरों में प्रवेश में पुरुषों और महिलाओं में भेदभाव नहीं किया जाता था। मगर बीच में ये शुरू हुआ। अब इसे मिटाने के लिए आपसी बातचीत और सहमति की जरूरत है। संघ ने सामाजिक समरसता की बात की। हिंदू समाज को जोड़ने और छुआछूत से लड़ने के लिए संघ पहले ही एक गांव में एक कुआं, एक मंदिर और एक श्मशान की बात कर चुका है। आरक्षण पर भी संघ ने राय रख दी कि इससे समाज के कमजोर तबके को लाभ मिला है। लेकिन अगर समाज के संपन्न और समृद्ध तबके इसकी मांग करेंगे तो ये ठीक नहीं है।

बीजेपी अपने बूते सत्ता में है। एक स्वयंसेवक देश का प्रधानमंत्री है। शायद इसीलिए संघ अब समाज की बेहतरी के लिए सरकार को निर्देश देने की मुद्रा में आ गया है। सस्ती शिक्षा और चिकित्सा सुविधाओं तक सबकी पहुंच के बारे में प्रतिनिधि सभा में पारित उसके प्रस्ताव यही दिखा रहे हैं। ये प्रस्ताव यूपीए सरकार के वक्त होने वाली प्रतिनिधि सभाओं के प्रस्तावों से अलग हैं जब तत्कालीन सरकार को चीनी घुसपैठ या बिगड़ी अर्थव्यवस्था को लेकर चेतावनियां दी जाती थीं। उच्च शैक्षणिक संस्थानों को राजनीतिक उठापटक का मैदान न बनने देने का संघ का निर्देश मौजूदा राजनीतिक माहौल से निकल कर आया है। ऐसा लगा कि संघ सरकार के लिए एजेंडा तय कर रहा है। बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की नागौर में मौजूदगी और संघ को उनका ये आश्वासन कि बीजेपी विचारधारा के मूल मुद्दों से नहीं भटकेगी, यही दिखाता है।

मगर इसी के साथ कई सवाल भी उठ रहे हैं। जिस समय नागौर में संघ देश की दशा और दिशा पर चिंतन कर रहा था, तभी राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद उसकी तुलना आतंकवादी संगठन आईएसआईएस से कर रहे थे। संघ ने इसका खंडन किया और कॉन्‍ग्रेस की मानसिकता पर सवाल उठा दिया। मगर संघ को शायद अब ये भी सोचना होगा कि क्या सिर्फ खाकी निकर उतार कर फुलपैंट पहन लेने से उसके विरोधियों की उसके बारे में राय बदल जाएगी। विरोधी तो अब यही कहेंगे कि तन बदला, मन नहीं।

(अखिलेश शर्मा एनडीटीवी इंडिया के राजनीतिक संपादक हैं।)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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