बच्चों का अपराधी है हमारा समाज...

बच्चे हैं. यूं भी हाशिये पर हैं. लेकिन जो शेल्टर होम के बच्चे हैं, वे तो भयावह पीड़ा को पहले ही भोग चुके होते हैं.

बच्चों का अपराधी है हमारा समाज...

प्रतिकात्मक चित्र

बच्चे हैं. यूं भी हाशिये पर हैं. लेकिन जो शेल्टर होम के बच्चे हैं, वे तो भयावह पीड़ा को पहले ही भोग चुके होते हैं. एक जो बच्‍चा शेल्‍टर होम में दाखि‍ल होता है, उसकी सैकड़ों दारुण कहानियां बन चुकी होती हैं. मामला लड़कियों का हो, तब इनमें पीड़ा की एक परत को और जोड़ लीजिए. इन भयावह परिस्थितियों में यदि आश्रय देने के नाम पर ही दुराचार किया गया हो, तो सोच लीजिए, हम किस समाज में जी रहे हैं. दुख-भय-पीड़ा की एक विचित्र-सी अवस्था में अपनी हवस को अंजाम देने का ऐसा काम कोई मनुष्य तो नहीं ही कर सकता है. फिर कौन हैं वे लोग, कैसा है यह वक्त और इसका गुनहगार है कौन...? क्या वही, जो यह कर रहा है, या वह भी, जो ऐसा होते हुए देख रहे हैं, मौन. मुज़फ़्फ़रपुर का ताज़ा मामला क्यों हमारे ज़हन में आक्रोश पैदा नहीं कर पाता...? आक्रोश तो इस बात पर भी पैदा नहीं होता कि हिन्दुस्तान ने 15 साल के अंदर बच्चों के मामलों में किए गए अपराधों को 889 प्रतिशत तक बढ़ा लिया है. वर्ष 2001 में NCRB की रिपोर्ट में बच्चों के विरुद्ध अपराधों के 10,814 मामले दर्ज हुए थे, जो वर्ष 2016 तक बढ़कर 1,06,958 हो गए. क्या खूब तरक्की की है...!

कुछ साल पहले छत्तीसगढ़ के झलियामारी आदिवासी आश्रम शाला में एक विचित्र मामला सामने आया था. इस आदिवासी-बहुल इलाके में हॉस्टल के वॉर्डन ने यह बताते हुए बारी-बारी से कई बच्चियों का यौन शोषण किया कि यह सेक्स एजुकेशन का हिस्सा है. लड़कियां भी जाने कैसे इसे शिक्षा समझती रहीं, राज तब खुला, जब यहां की लड़की गर्भवती हो गई. ऐसे कई मामले सामने आते रहे हैं, जिन्हें समय के साथ केवल बासी होती ख़बरें ही माना गया. कभी झलियामारी है, कभी मुज़फ़्फ़रपुर है, और उसके बाद अब उत्तर प्रदेश का देवरि‍या, जहां मुज़फ़्फ़रपुर जैसा ही मामला सामने आया है. फोड़ा बड़ा है, जिसका मवाद रिस-रिसकर यहां-वहां निकलता है. नहीं हो पाता है, तो इसका इलाज. कोई गंभीर है भी तो नहीं, क्योंकि जो भोग रहे हैं, वे बच्‍चे हैं.

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार साल 2012, 2013 और 2014 में देश के भीतर बच्चों (18 साल से कम आयु वाले) के साथ बलात्कार के क्रमश: 8,541, 12,363 और 13,766 मामले दर्ज हुए थे, लेकिन सज़ा कितनों को मिली. आंकड़े बताते हैं कि 2012 में केवल1,447, 2013 में केवल 2,062 और 2014 में 2,015 आरोपियों को ही दोषसिद्ध किया जा सका. ये बच्चों के खिलाफ किए गए यौन अपराध हैं. देखिए, आरोप लगाए जाने और आरोप सिद्ध होने में कितना बड़ा अंतर है. हमारे यहां माना जाता है कि बच्चे भगवान का रूप हैं, और वे झूठ नहीं बोलते हैं. तो क्या बलात्कार जैसे संगीन अपराधों में बच्चे झूठ बोल रहे हैं या उन पर जो अत्याचार किए जा रहे हैं, उन्हें सिद्ध ही नहीं किया जा पा रहा है...? यदि आरोप सिद्ध ही नहीं किया जा पा रहा है, तो कैसे उन्हें उनके दुष्कर्मों की सजा मिल रही है...?

सज़ा देने के अलावा अपराध को कम करने का कोई विकल्प अब तक बना ही नहीं है, और विकल्प खोजे भी गए हैं, तो वे कारगर नहीं हो पाए हैं. अपराधों की वीभत्सता हमें अंदर तक हिलाती है और तुरत-फुरत फांसी पर लटका देने के अलावा न समाज को कोई रास्ता दिखता है, न सरकार को. सवालों के जवाब में सरकार कानूनों को बदल देती है, सुधार करती है, अधिकतम सज़ाओं के प्रावधान कर दिए जाते हैं, लेकिन अधिकतम सज़ाओं के बाद भी अपराधियों के इरादे क्यों नहीं बदलते हैं. मध्य प्रदेश में सबसे पहले 12 साल तक की बच्चियों के साथ अपराधों के मामलों में फांसी की सज़ा के लिए प्रावधान किया गया, लेकिन इसके बाद भी मध्य प्रदेश में मंदसौर कांड जैसे देश के सबसे वीभत्स मामले सामने आए. सोचना चाहिए कि हमारे समाज में क्या बच्चे सुरक्षित हैं, क्या उनकी रक्षा करने वाली दीवारें ही उन्हें नोंचने पर उतारू हो गई हैं. यदि हां, तो यही समझिए कि जिस देश में बच्चे सुरक्षित नहीं हैं, उस देश का भविष्य भी सुरक्षित नहीं हैं.

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...

 

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