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This Article is From Aug 26, 2019

सवालों में अर्थव्यवस्था और स्वदेशी पर विचार

Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 26, 2019 14:50 pm IST
    • Published On अगस्त 26, 2019 14:50 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 26, 2019 14:50 pm IST

ठीक सौ बरस पहले जब भारत अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष कर रहा था, गांधी स्वदेशी का बिगुल भारतीयों को ही नहीं, अंग्रेजों को भी समझा रहे थे. अगस्त के इसी महीने में वह गर्वनर से मिलकर स्वदेशी पर लंबी बातचीत करने के लिए वक्त मांग रहे थे. वक्त नहीं मिलने पर उन्होंने गर्वनर के सहायक एम.वी. कॉम्बी को एक लंबा पत्र लिखकर स्वदेशी के बारे में अपने विचार और उन विचारों के पीछे तर्क भी प्रस्तुत किए थे.

सौ साल के विकास के बाद आज जब हर दिन बाजार में मंदी की खबरें हमें डराती हैं, हर दिन नौकरी जाने की खबरें अखबार के पन्नों पर अंदर डर-डरकर, छिपा-छिपाकर छापी जाती हों, शेयर बाजार के उठती-गिरती रेखाओं से धड़कनें सामान्य गति से नहीं चल रही हों, उन परिस्थितियों में क्या केवल सरकार के राहत पैकेज भर को एक उचित इलाज माना जाना चाहिए, जैसा वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने दो दिन पहले प्रस्तुत किया और गिरते बाजार को राहत देने की कोशिश की. निश्चित ही आज की परिस्थितियों में सौ साल पहले की गांधी की बातें आपको अप्रासंगिक लग सकती हैं, लेकिन पूंजीवाद को अपनाकर भी यदि आप आज अपनी अर्थव्यवस्था मजबूत होने के बारे में आश्वस्त नहीं हैं, तो एक बार यह भी जरूर सोचिएगा कि गांधी सौ साल पहले क्या कुछ कह रहे थे.

25 अगस्त, 1919 को अंग्रेज अधिकारी एम.वी. कॉम्बी को लिखे पत्र में गांधी का कहना था कि स्वदेशी का मतलब उनके लिए यह है कि भारत की जरूरत भर का कपड़ा तैयार करना और उसका समुचित वितरण करना. इसमें घरेलू उत्पादन को प्रोत्साहित करना और लोगों को यह शपथ लेने के लिए राजी करना कि वह स्वदेशी ही पहनेंगे, और जितने विदेशी वस्त्र हों, उन्हें जरूरत होने पर पहनते रहें, उन्हें एकदम खारिज न करें.

इसके आगे उनकी सोच थी कि स्वदेशी केवल आर्थिक और धार्मिक पहलुओं तक सीमित न रहे. वह उसमें उच्च नैतिक स्तर के राजनैतिक परिणामों की संभावनाएं भी देख रहे थे, जो उस वक्त की सबसे बड़ी जरूरत थी. इस पत्र के आसपास के वक्त को देखें तो इन विचारों के आसपास के काम आपको समझ में आएंगे ही.

इधर सौ साल के विकास ने हमें बता दिया है कि सब कुछ बेहतर नहीं है. आजादी के सत्तर सालों में भी गांधी की कल्पना का भारत बहुत पीछे छूट गया है, जो हाशिये पर है, वह हाशिये पर ही पड़ा है. वैश्विक भूख सूचकांक में हम पिटे हुए हैं और हिन्दुस्तान की कुल दौलत भी चंद हाथों में है. शिक्षा और स्वास्थ्य निजी क्षेत्र में लगभग पहुंच चुके हैं, अब जिसके पास पैसा है, उसी को अच्छी शिक्षा और अच्छा इलाज उपलब्ध है, वरना नहीं. समावेशी विकास, अंत्योदय केवल भाषणों में है, जमीनी परिस्थितियों में भारत वैसा बिलकुल नहीं हो पाया है, जैसा हो जाना चाहिए था. यह केवल कुछ सालों की या किसी एक राजनैतिक दल की बात भी नहीं है.

यदि गांधी स्वदेशी में, चरखे में, एक ऐसा उद्योग देख रहे थे, जो कृषि का पूरक हो और उससे रोजगार पैदा करने की भी पर्याप्त क्षमता हो, उसमें अकाल जैसी स्थितियों से निपटने का हल भी शामिल हो, उस उद्योग की हालत हम देख रहे हैं.

कृषि की हालत तो वैसे ही इस मुकाम तक आ गई है कि हिन्दुस्तान में किसान होने का मतलब एक लाचार व्यक्ति होना है, जिसे सत्ता की ताकत हर चुनावी साल में कर्जमाफी का लॉलीपाप खिलाकर अगले चार साल भूल जाती है. उसकी आय दोगुनी करने का वायदा किया जाता है, पर यह नहीं बताया जाता कि वह होगा कैसे. किसान आत्महत्याएं चालू रहती हैं और कृषि से बड़े पैमाने पर किसान बाहर होते रहते हैं.

ऐसे में एक बार ठहरकर गांधी की स्वदेशी की बातों पर सोचना प्रासंगिक नहीं हो जाता. ऐसे समय में, जब अमेरिकी राष्ट्रपति तक चीनी सामान को अपने देश से बाहर करने का ऐलान कर रहे हों, उस वक्त में क्या हम भी अपने देश और समाज के प्रति पैकेज देने से अलग कुछ सोच सकते हैं, कर सकते हैं.

आज के वक्त में तो यह और संभव इसलिए भी है, क्योंकि देश लोगों के लिए सर्वोपरि है, राष्ट्रवाद की भावना चारों ओर बह रही है और उसका ऐतिहासिक प्रतिनिधित्व कर रहे हैं नरेंद्र मोदी. मोदी जी ने गांधी के चश्मे से स्वच्छता को ऐतिहासिक रूप से एक मुद्दा बना दिया, गांव-गांव में शौचालय स्थापित भी हो गए, क्या स्वच्छता से एक कदम आगे बढ़ाकर अब स्वदेशी को नए संदभों में नहीं परखा जाना चाहिए.

गांधी जिसे तमाम मुश्किलों का हल बता रहे थे और जिसे हमारी सत्तर साल की आजादी ने भी ठीक तरह से नहीं माना, क्या एक बार वैसा करके देख लिया जाए. निश्चित तौर पर यह काम चंद गांधीवादी संस्थाएं या लोग नहीं कर सकते, उसके लिए एक मजबूत राजनैतिक इच्छाशक्ति की जरूरत पड़ेगी, वह इस वक्त संभव है.

राकेश कुमार मालवीय NFI के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...

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