दस साल में बच्चों के बजट पर सबसे कम प्रावधान

पिछले दस सालों में देश ने दो प्रमुख दलों की सरकारों को देखा है, यह कहते हुए निराशा होती है कि बजट में बच्चों को प्राथमिकता से शामिल करने की वह दृष्टि दोनों जगह ही गायब है, पिछले पांच सालों में तो यह और भी निराशाजनक है.

दस साल में बच्चों के बजट पर सबसे कम प्रावधान

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण.

बिहार में चंद दिनों में चमकी बुखार से डेढ़ सौ से ज्यादा बच्चों की मौत का असर कुछ तो बजट पर भी दिखाई देना था, यदि प्रधानमंत्रीजी ने इन बच्चों की मौत पर दुख प्रकट किया था तो वित्तमंत्री के पास एक मौका था कि वह बच्चों के लिए बजट का अधिक प्रावधान करके इस देश को भरोसा दिलातीं कि अब इस देश में बच्चों की मौत का सिलसला थम जाएगा, बच्चों के खिलाफ हो रहे अपराध कम होंगे और सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था में और अधिक ताकत लगाकर उसे इतना मजबूत बना दिया जाएगा कि अंतिम पंक्ति में खड़े बच्चे भी एक बेहतर भविष्य का सपना देख सकें. देश को पहली बार एक महिला वित्त मंत्री संबोधित कर रही थीं इसलिए उनसे उम्मीद और भी बढ़ी थी, लेकिन बजट बुक को पढ़ते हुए बच्चों के लिए बजट क्षेत्र को देखा तो पाया कि यह तो पिछले दस साल में सबसे कम प्रावधान है. 

पिछले दस सालों में देश ने दो प्रमुख दलों की सरकारों को देखा है, यह कहते हुए निराशा होती है कि बजट में बच्चों को प्राथमिकता से शामिल करने की वह दृष्टि दोनों जगह ही गायब है, पिछले पांच सालों में तो यह और भी निराशाजनक है.

जब हम बच्चों के लिए खास बजट की बात करते हैं तो उसका मतलब क्या है? उसका मतलब दो दर्जन से अधिक विभागों से जुड़ी उन 89 योजनाओं से है जो सीधे तौर पर देश की चालीस प्रतिशत आबादी यानी बच्चों से जाकर जुड़ती है. अच्छी बात है कि इसको अलग करके देखा जाता है यानी कि एक पूरा दस्तावेज ही बच्चों के कल्याण से जुड़ी योजनाओं पर आधारित होता है. भारी बहुमत लेकर संसद पहुंची बीजेपी सरकार ने 5 जुलाई को जो बजट पेश किया उसमें चालीस प्रतिशत आबादी यानी बच्चों का हिस्सा केवल 3.29 प्रतिशत है. भारत के कुल 27,86,349 करोड़ रुपये के बजट में से 91,644.29 करोड़ रुपये बाल कल्याण के लिए आवंटित किए गए हैं.

गौर कीजियेग यह दस साल पहले यानी 2009-10 में मनमोहन सिंह की सरकार के वित्तमंत्री पी. चिंदबरम की ओर से पेश किए गए बजट से तकरीबन 0.37 प्रतिशत कम है.

क्या सरकार को यह लगता है कि बच्चों की देश में जो स्थिति है वह ठीक है, अथवा बच्चों के लिए निवेश करने की उसकी मंशा नहीं है. मनमोहन सिंह की सरकार ने बाद में इस बजट को बढ़ाया भी, 2012-13 में यह सर्वाधिक 5.04 प्रतिशत रहा, लेकिन इसके बाद से यह लगातार कम होते रहा और अब यह दस साल का सबसे कम है, क्या न्यू इंडिया में बच्चों के लिए हम यही प्रावधान करेंगे?

क्या दस साल पहले ज्यादा बाल हितैषी होता था बजट

देश की बुनियादी जरूरत है शिक्षा. शिक्षा जितनी अच्छी मिलेगी नागरिक भी उतने ही बेहतर होंगे और यह बेहतर नागरिक आगे अपना देश बनाएंगे, इसलिए शिक्षा पर आवंटित रकम देश पर भार नहीं है, वह निवेश है, एक बेहतर राष्ट्र के निर्माण के लिए निवेश से डर कैसा? हम अपने परिवार के बच्चों पर निवेश करने में डरते हैं, नहीं न, फिर आखिर देश के बच्चों के साथ कंजूसी क्यों?

वह भी ऐसे दौर में जबकि तमाम मानक और राजनीतिक-आर्थिक परिदृष्य और वैश्विक, बाजारवादी नीतियां का बनाया जाल यह मांग करता हो कि सार्वजनिक क्षेत्र पर तो ज्यादा से ज्यादा खर्च करके उन्हें बेहतर बनाया ही जाएगा.

इस मामले में फिर बजट आवंटन आपको चिढ़ाएंगे. दस साल पहले बच्चों के लिए आवंटित कुल बजट का तकरीबन 83 प्रतिशत हिस्सा शिक्षा और हाशिये के बच्चों पर खर्च किया जा रहा था, अब यह रकम तकरीबन 67.6 प्रतिशत पर आ गई है, तकरीबन 16 प्रतिशत का निवेश शिक्षा जैसे सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र पर कम कर दिया. क्या दस साल पहले का देश शिक्षा के लिए अधिक संवेदनशील था, सोचिएगा और सवाल कीजिएगा कि बच्चों के सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र पर हमने यह कंजूसी भरा व्यवहार क्यों किया, क्या हमने यह मंशा दिखाकर निजीकरण के रास्तों को और नहीं खोल दिया है, क्या यह सबका साथ और सबका विकास की अवधारणा के अनुकूल किया गया व्यवहार है और क्या इससे हाशिये के उन बच्चों का भला होगा, जो अंत्योदय की श्रेणी में आते हैं, और गांधी 150 का जिक्र करते हुए इसके बारे में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा भी. उनकी बात को हम कैसे सही मानें कि उनकी हर योजना के केन्द्र में अंत्योदय है?

बाल स्वास्थ्य पर घट गया बजट आवंटन

2008 से 2015 के बीच करीब एक करोड़ 11 लाख पांच साल तक के बच्चों की मौतें हुई हैं. डायरिया, मलेरिया, निमोनिया जैसी बीमारियां लाखों बच्चों को समय से पहले मार रही हैं. इस परिस्थिति में बहुत जरूरी हो जाता है बच्चों के स्वास्थ्य पर खर्च किया जाए, स्वास्थ्य मानकों को ठीक किया जाए, क्योंकि बच्चों के बेहतर स्वास्थ्य का असर देश पर भी दिखाई देता है. पर सरकार बच्चों के मामलों में क्यों गंभीरता नहीं दिखा पा रही है?

दस साल पले 2010-11 में स्वास्थ्य बच्चों के कुल बजट आवंटन का 4.4 प्रतिशत हिस्से का निवेश किया गया था, यह पिछले दस साल का सर्वाधिक प्रतिशत है. इसके बाद केवल एक साल 2017-18 में यह 4.2 प्रतिशत रहा, लेकिन इस साल यह घटकर साढ़े तीन प्रतिशत पर आ गया है. इस साल सरकार ने बच्चों के स्वास्थ्य पर 3218.33 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है.

बिना पोषण के कैसे होगा स्वास्थ्य बेहतर

बेहतर स्वास्थ्य तभी होगा, जब बेहतर पोषण मिले. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-4 कहता है कि देश में तकरीबन 35.8 प्रतिशत बच्चे अब भी कुपोषण का शिकार हैं. भारत में शिशु मृत्यु और बाल मृत्यु दर अब भी अन्य देशों से अधिक है. ऐसे में यह आंगनवाड़ी सेवाएं महत्वपूर्ण हो जाती हैं. नेशनल न्यूट्रीशन मिशन को मजबूत करने की जरूरत लगती है. दस सालों के आंकड़े बताते हैं कि आईसीडीएस और एनएनएम पर बाल कल्याण को आंवटित बजट में सबसे अधिक 26.7 प्रतिशत राशि का आवंटन 2015-16 में किया गया था. दस साल पहले यह आवंटन कुल बच्चों के लिए बजट का 20.6 प्रतिशत था. वित्तमंत्री ने इस साल के लिए इस पर 21.2 प्रतिशत रकम खर्च की है, यह पिछले साल से भी कम है. 

यदि इन बजट प्रावधानों के बीच फिर कहीं बिहार जैसी घटनाएं सामने आएं तो खुद से और सरकार से पूछियेगा कि हमने बच्चों को बचने के लिए क्या किया?

(राकेश कुमार मालवीय NFI के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...)

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