गांधी की बुनियादी तालीम में शिक्षक और छात्रों के बीच केवल किताबें नहीं हैं. इसके बीच एक ऐसा हिस्सा भी है, जो बच्चों को उनके जीवन की सच्चाई से जोड़ता है. इस हिस्से को हमारे पाठ्यक्रम से यह जानते हुए भी गायब कर दिया गया कि यह गांधी का अकेला मौलिक आविष्कार है, बाकी सब के बारे में वह कहते थे कि वह तो उन्होंने समाज से ही लिया है.
बुनियादी तालीम इस जमाने में बीते दिनों की बात ही लगती है, क्योंकि इसमें श्रम पर जोर दिया गया है. खेती, किसानी, साफ-सफाई, खाना बनाने, सिलाई, कढ़ाई, चित्रकारी और बहुत सारी गतिविधियों पर जोर दिया गया है, अब ये काम यदि स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल कर लिए जाएं, तो अख़बार या टीवी चैनल की ख़बर बनते देर नहीं लगेगी.
गांधी की किताबों में लिखी बुनियादी तालीम का जीवंत रूप देखने को मिला सेवाग्राम में. वही सेवाग्राम, जहां महात्मा ने साबरमती आश्रम छोड़कर कुटिया बनाई. तकरीबन 80 साल से मिट्टी की बनी यह बापू कुटी, आदि निवास और आखिरी निवास अब भी वैसी ही अवस्था में है, जबकि हर साल तकरीबन सात लाख लोगों के पैरों का वज़न यहां पड़ता है.
इसी परिसर में नई तालीम का हिस्सा भी है, जहां गांधी की बुनियादी शिक्षा की सोच ने आकार लिया था. देश में जब शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन होने के बाद श्रम को एक तरह से अपराध की श्रेणी में डाल दिया गया, उसी दौर में आनंद निकेतन स्कूल गांधी के इस सपने को ज़मीनी रूप दे रहा है.
पिछले दिनों इस स्कूल में जाना हुआ. पहला ही पाठ सफाई का. शाला के बाहर एक बोर्ड लगा है. ब्लैक बोर्ड पर कक्षा की सफाई की जिम्मेदारियां लिखी हुई हैं. इसके लिए बच्चों के समूह हैं. हर समूह का एक खूबसूरत नाम है, मोगरा, सदाफुली, कमल, चमेली, मधुमालती, पारिजात, शेवंती, गुलाब. साथ में एक-एक प्रभारी शिक्षक का नाम भी. साईकिल स्टैंड से लेकर क्लासरूम तक. हर एक की जिम्मेदारी बच्चे बखूबी निभा रहे हैं.
पर क्या ऐसा दूसरे स्कूलों में संभव हो पाता होगा, या जीवन में और अपने आसपास की सफाई का क्या महत्व है, इसे किस उम्र में आकर सीखा जाना चाहिए. क्या यह हमारे समाज के लिए विचित्र स्थिति नहीं है कि साफ-सफाई के सहज पाठ हमारे पाठ्यक्रम से छीन लिए गए और फिर हमें इसी पाठ को पढ़ाने के लिए तमाम तरह के अभियान चलाने पड़े! शहरों में प्रतियोगिताएं करानी पड़ीं और नंबर एक और नंबर दो बनाने पड़े.
बच्चों को साफ-सफाई करते देख, अपने खेतों में काम करते देख हमें अपने स्कूल के दिन याद आ गए, जब हम भी ऐसे ही सहज भाव से अपनी शाला को सुंदर बनाने की जुगत में रहते थे. अलबत्ता ऐसा इसलिए था, क्योंकि कक्षा एक से आठ तक के हमारे स्कूल में कोई चपरासी नहीं था. हम चाहें, तो इसे बच्चों पर अत्याचार का नाम भी दिया जा सकता है, लेकिन हर शनिवार को बारी-बारी से गांव से गोबर लाने, पानी लाने और लीपने की कक्षा हमें अपनी कक्षा से प्रेम करना ही सिखाती रही. यहां तक कि मिडिल कक्षाओं तक आने में हम सहपाठियों ने तय करके बबूल की झाडियों से बागड़ तक कर डाली, ताकि पौधे लगाए जा सकें.
हां, यह ज़रूर था कि इसमें कोई भेदभाव नहीं था. इसमें कभी जाति-बिरादरी की बंदिशें नहीं आईं, तो फिर विकास के साथ जिंदगी के यह पाठ कैसे इतने कठिन होते गए...? भेदभाव की दीवारें कहां से आईं...? क्या इन दीवारों को गिराने की शुरुआत बचपन से नहीं हो जानी चाहिए...?
इतना सरल नहीं है यह काम. खासकर इस दौर में, जब छोटे-छोटे विषयों पर भी बखेड़ा खड़ा होने में देर नहीं लगती. यही चिंता है इस स्कूल की निदेशक ताई सुषमा शर्मा का. 2005 से इस नई तालीम आधारित स्कूल को संभालने वाली ताई की चिंता है कि यह बेहद संवेदनशील विषय है, लेकिन जरूरी है.
केवल सफाई का मसला ही नहीं, खेती का पाठ भी पढ़ाया जाता है. गांधी की चिंता भी यही थी कि स्कूली शिक्षा गांव आधारित नहीं है. उसमें गांव की दृष्टि नहीं है. दृष्टि तो शहर की भी नहीं है. ऐसे में आनंद निकेतन स्कूल एक नज़ीर है, जो बच्चों को उनके आसपास से जोड़ती है, हर कक्षा का एक खेत है, खेत में तरह-तरह के बीज हैं, बच्चे उन्हें हाथ से लगा रहे हैं, कम पानी में फसल लगाने की चिंता उन्हें पानी और पर्यावरण बचाने से जोड़ देती है, उसके लिए अलग से कोई अभियान चलाकर या पाठ पढ़ाकर जागरूक करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी.
स्कूल के हर बच्चे का एक पेटी चरखा है, एक कक्षा सूत से धागा बनाने की भी है. छोटे बच्चों को नहीं पता, वे यह क्यों कर रहे हैं, बस श्रम का पाठ पढ़ रहे हैं, यह जरूरी नहीं है कि हर कार्य के पहले उसके सिद्धांत को जान ही लिया जाए, यदि हम सिद्धांत से अधिक व्यवहार के पाठ पढ़ाते, तो शायद हमारी स्कूली शिक्षा की इतनी दुर्गति नहीं हुई होती, स्कूल इंसान भी बना रहे होते.
इसी स्कूल से कुछ किमी दूर वर्धा शहर में गांधी ज्ञान मंदिर-बजाज साइंस सेंटर है, जहां तकरीबन पांच सौ बच्चे हर साल व्यावहारिक शिक्षा का पाठ पढ़ते हैं. 10वीं क्लास के निखिल तकरीबन 70 किलोमीटर दूर से यहां आए हैं. आने-जाने में तकरीबन पांच घंटे का समय लग जाता है, फिर भी उन्हें यहां आना इसलिए अच्छा लगता है, क्योंकि किताबों के साथ प्रयोग करने, खुद करके सीखने, और खेल-खेल में सीखने को मिलता है. वहां भय नहीं लगता. हर कक्षा में प्रयोगशाला है.
क्या हम अपनी बुनियादी शिक्षा पर इतना निवेश कर रहे हैं, क्या ऐसे प्रयोगों को और नहीं बढ़ाया जाना चाहिए. आखिर क्यों आनंद निकेतन या साइंस सेंटर जैसे प्रयोग, प्रयोग ही कहलाते रहें, मुख्यधारा नहीं...!
राकेश कुमार मालवीय NFI के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...
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