प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम एक गिरे मनोबल वाले 'सैनिक' का खुला खत

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम एक गिरे मनोबल वाले 'सैनिक' का खुला खत

सीमा की सुरक्षा में चौकस जवान.

आदरणीय प्रधानमंत्री जी और रक्षामंत्री जी,

नमस्कार,

मैं एक पूर्व सैनिक का बेटा हूं. एक सैनिक का बेटा होने के नाते देश, सेना, सेना के सम्मान और देशभक्ति को लेकर मेरे भीतर की भावनाओं का आलम यह है कि हम देश के लिए मर मिटने को तैयार हैं. वहीं, मैं यह भी मानता हूं कि शहीद होने से अच्छा है कि दुश्मन को शहीद कर दिया जाए और आखिरी सांस तक उम्मीद खत्म न हो.

बचपन से ही सेना के अलावा कुछ और नहीं समझा, न ही जाना. सेना के कैंपस में ही पैदाइश से लेकर जवानी तक का जीवन बीता और हरी वर्दी ने अपनी ओर ही आकर्षित किया. सेना में ही अधिकारी बनने का सपना रहा, अपने को हमेशा ही एक 'सैनिक' ही समझा, लेकिन चयन प्रक्रिया की जटिलताओं ने सपना पूरा नहीं होने दिया. खैर, इस बात का मलाल नहीं है. कारण, सेना के कैंपस से बाहर की दुनिया को जब समझा और जाना तब पता लगा की देश की सेवा, देश के लोगों की सेवा और जीवन स्तर में सुधार करने के और भी माध्यम हैं. अब मैं कई सालों से दूसरे रोजगार से जुड़ा हूं. अब एक पत्रकार हूं. पत्रकारिता ने देश, देशभक्ति और समाज से जुड़ी कई बातों के मायने अलग से समझाएं. यहां तक कि सेना, उसकी जरूरतों, उसके काम और उसके सम्मान की परिभाषाएं भी समझाईं.

हम पिछले काफी समय से ऐसी बातें सुनते आ रहे हैं जिसे लेकर भारतीय सेना के जवानों, अधिकारियों या कहें कि पूरी सेना का मनोबल गिरता है. इस प्रकार के तमाम बयान टीवी पर नेता, मंत्री और सेना के अफसर देते रहते हैं. कई बार तो ऐसी बातों पर मनोबल गिरने की बात सुनने को मिली हैं जो भ्रष्टाचार, कदाचार और सेना के नियमों के विरुद्ध होती हैं. इन सब के बारे में सार्वजनिक मंच, मीडिया और नेताओं के बयानों में चर्चा किए जाने पर लगता है कि सेना का मनोबल गिर रहा है. तमाम रक्षा विशेषज्ञ कैमरों पर हाय तौबा, हो हल्ला करने लग जाते हैं. अक्सर लगने लगता है कि सेना के अधिकारी से लेकर जवान मोम से बने हुए हैं. जरा-सी आंच आई तो पिघल जाएंगे. ऐसा भी होता रहा है कि सेना के गैर-कानूनी काम के जिक्र पर भी मनोबल गिर जाता है. कोई रक्षा विशेषज्ञ उस समय सेना की छवि की बात नहीं करता.

हम लोग यह भी देखते हुए आए हैं कि सेना में (यहां पर स्पष्ट तौर पर थल सेना की बात कर रहा हूं) जवानों के मानवाधिकार, उनके सम्मान की कोई बात नहीं होती है. यह देखा गया है कि सैन्य अधिकारी अपने अधिनस्थ का बेजा इस्तेमाल करते हैं. अंग्रेजों के कानून और नियम अभी भी सेना में हैं. आदरणीय पीएम जी, आपकी जबसे सरकार आई है तब से आप कहते हैं कि आपने हर रोज एक बेकार का कानून समाप्त किया है. अब आपको इस ओर भी ध्यान देना चाहिए और अंग्रेजों के सेना को लेकर बने कानून को वाकई में सेना के जवानों के सम्मान के हिसाब से बदलाव की जरूरत है. कृपया इस ओर भी ध्यान दें.

सैन्य अधिकारियों के घर में सेना के जवान झाड़ू पोछा करते हैं. उनके और उनके परिवार के लोगों के सारे कपड़े धोते हैं यहां तक कि साहब लोग अपने, हर कपड़ा धुलवाते हैं. घर में खाना बनवाते हैं, बर्तन साफ करवाते हैं. घर में बच्चों से लेकर बड़ों तक के जूतों पर पॉलिश करवाते हैं. बच्चों के स्कूल ले जाने और लाने की ड्यूटी पर जवानों के तैनात कर देते हैं. इतना ही नहीं इसमें सोचने की बात यह है कि जब वह जवान स्कूल के बाहर अपने अधिकारी के बच्चों को लेने के लिए खड़ा रहता है. जब बच्चों की छुट्टी होती है और वह उनका बस्ता और बोतल लेकर चलता है. तब यदि उसी जवान का बेटा या बेटी उसी स्कूल से अपना बस्ता पीठ पर लादकर निकलता है और अपने पिता को ऐसी हालत में देखता होगा तब उसके मन मनतिष्क पर क्या असर पड़ता होगा. यह विचारणीय है. इसका एक पहलू यह भी है कि उस अधिकारी के बच्चे को  यह पता चलता है कि वह उसी जवान का बेटा है जो उसका बस्ता उठाता है तब वह किस हीन भावना से उस जवान के बच्चे को देखता है. इसका जीता जागता उदाहरण किसी ऐसे जवान के बेटे से मिलकर हो जाएगा. ऐसे और अनगिनत उदाहरण मिल जाएंगे जहां समाज की बुराई सेना आजादी के इतने सालों तक समेटे हुए है. पीएम मोदी जी आप बार बार 2022 की बात करते हैं क्या तब तक देश की सेना में इस प्रकार की कुरीतियां भी खत्म होगी. सेना के अधिकारियों का इससे मनोबल जरूर बढ़ता होगा. उनके भीतर इससे यह भावना जरूर जागती होगी और संतुष्टि देती होगी कि वह 'साहब' हैं और उन्होंने अपने अधीन काम करने वाले के आत्मसम्मान, सामाजिक प्रतिष्ठा और नैतिक भावना को जमीदोज कर दिया है.

इसमें अत्यंत शर्मनाक और सेना के अधिकारियों को छोड़कर बाकी रैंक के मनोबल को वाकई में कम करने के काम पर मुहर तो खुद सेना नायक यानी जनरल बिपिन रावत तब लगाते हैं जब वह स्पष्ट रूप से यह कहने से बचते हैं कि सिपाही को पॉलिश करना ही होगा. वह कहते हैं कि यह नियम है कि वह अधिकारी के चमड़े के सामान तैयार करेंगे. आश्चर्य तो तब था जब उस पूरी प्रेसवार्ता में एक भी पत्रकार ने इसे स्पष्ट करने के लिए नहीं कहा. न ही स्पष्ट रूप से जूते पॉलिश से जुड़ा कोई प्रश्न किया. इस बारे में रक्षा मामलों के पत्रकार कहते हैं कि सेना के पीआर विभाग ने पहली ही पत्रकारों को ताकीद कर दी थी कि किसी भी स्थिति में आप विवाद से जुड़े सवाल नहीं पूछेंगे.  मीडिया के गले पर तलवार लटकाकर इस प्रकार की प्रेसवार्ता जनतंत्र में मजाक है. ऐसे मामलों में सेना के अधिकारियों का मनोबल नहीं गिरता है. हां, यह जरूर है कि उनका मनोबल सातवें आसमान पर जरूर पहुंच जाता है. सोचिए, अधिकारी भारतीय सेना में कितने प्रतिशत हैं, जवान और जीसीओ कितने प्रतिशत. फिर भी अंग्रेजों के हिसाब से सेना आज भी अधिकारियों की बनकर रह गई है. बाकी सब केवल आदेशों का पालन करने के लिए हैं.

हाल ही में कुछ वीडियो वायरल हो रहे हैं. इस वीडियो में सेना की बख्तरबंद गाड़ी पर बिगड़े कश्मीर युवक पत्थरबाजी कर रहे हैं और घेर के ऐसे पत्थर मार रहे हैं जैसे वह अभी सेना से मुकाबले को तैयार हैं. जैसे वह निहत्थीसेना को उसकी औकात बता देंगे. एक वीडियो में दिखाया जा रहा है कि कैसे सुरक्षा बलों के जवानों पर कश्मीरी अलगाववादी युवक जवानों को लात मार रहे हैं, कैसे उनके साथ खिलवाड़ कर रहे हैं, किस प्रकार वह उनका मनोबल तोड़ रहे हैं. यह वाकई चिंता का विषय है. यह वीडियो ज्यादा पुराना नहीं है. एक सप्ताह पुराना बताया जा रहा है.

इस वीडियो को देखकर स्पष्ट होता है कि कंपनी के कमांडर या अधिकारी पूरी तरह से स्थिति से वाकिफ नहीं थे. पूरी तरह से उसने स्थिति को समझा नहीं. उसने अपने आदेश से कई जवानों की जिंदगी दांव पर लगा दी. आखिर क्यों और कैसे, किन हालातों में अधिकारी ने जवानों को ऐसे जाने दिया जबकि स्थिति महीनों से विस्फोटक चल रही थी. ऐसे में कुछ भी हो सकता था. इसके जिम्मेदार कौन है. साथ ही साथ उस अधिकारी ने सही मायनों में सेना के मनोबल को तोड़ने का एक मौका दिया. सुरक्षा बलों के जवानों के संयम की बात हो रही है. अच्छा है, हर बात के कई पहलू होते हैं, इस बात का यह एक और पहलू है. लेकिन यह खुद को और सुरक्षा बलों को धोखा देना है. इस वीडियो को देखकर यह साफ होता है कि सेना और सुरक्षाबल कश्मीर में दशकों के काम के बाद विफल हो रहे हैं. अलगाववादियों का मनोबल बढ़ा है और सुरक्षा बलों का मनोबल निचले स्तर पर पहुंच गया है.

हालिया चुनाव में मतप्रतिशत जिस स्तर से गिरा है यह भी साफ दर्शाता है कि लोगों में सुरक्षा बलों के होने से जो भरोसा पैदा होना चाहिए था वह अब बचा नहीं है. उल्टे आम लोग चंद अलगाववादियों और उपद्रवियों से डर गए हैं और यही वजह है कि वह घरों से निकलकर वोट डालने नहीं आए. यहां साफ दिखाई दे रहा है कि सरकार की नीतियों में कोई खामी है, खामी कहां है इसका जल्द से जल्द पता लगाया जाए और उसका समाधान किया जाए वरना वह दिन दूर नहीं जब हम किसी और बड़ी समस्या को आमंत्रण दे बैठेंगे.

सधन्यवाद,
राजीव मिश्र

(राजीव मिश्रा एनडीटीवी खबर में न्यूज़ एडिटर हैं)

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