पेगासस जासूसी के आरोपों की जांच के लिए एक स्वतंत्र कमेटी बनाने का जो फ़ैसला सुप्रीम कोर्ट ने किया है, उसके निहितार्थ काफ़ी बड़े हैं. क्योंकि मामला अब बस यह जानने का नहीं रह गया है कि सरकार ने इज़राइल की एक कंपनी से पेगासस जैसा जासूसी का उपकरण खरीदा था या नहीं, या उससे उसने भारतीय नागरिकों की जासूसी करवाई या नहीं, अब मामला भारतीय लोकतंत्र में बोलने की आज़ादी और निजता के उस अधिकार को बचाए रखने का हो गया है जिसके बिना कोई भी लोकतंत्र बेमानी हो जाया करता है.
पेगासस भारतीय लोकतंत्र के साथ किसी खिलवाड़ से कम नहीं है. यह संदेह बेजा नहीं है कि इस खिलवाड़ में सरकार भी शामिल है. पेगासस मामले में पूरे भारतीय लोकतंत्र के साथ उसका जो अवहेलना भरा अहंकारी रुख़ रहा है, वह भी इस संदेह की पुष्टि करता है. सरकार लोगों के किसी भी सवाल का जवाब देने को तैयार नहीं है. वह यह नहीं बता रही कि उसने पेगासस ख़रीदा है या नहीं. वह यह भी नहीं बता रही कि उसे पेगासस के ज़रिए भारतीय नागरिकों की जासूसी की कोई जानकारी है या नहीं. वह इसकी भी जांच करने को तैयार नहीं है कि यह ख़बर कितनी सही है कि भारत के कई महत्वपूर्ण नेताओं और पत्रकारों के फोन किसी ने पेगासस के ज़रिए हैक किए हैं. जबकि इस सूची में उसके कुछमंत्रियों के नाम भी हैं. अगर यह काम ख़ुद सरकार का नहीं है तो उसे चिंतित होना चाहिए कि आख़िर उसके नागरिकों के साथ यह ख़तरनाक खेल कौन कर रहा है. क्या कोई विदेशी एजेंसी यह काम कर रही है?
लेकिन सरकार बिल्कुल बेपरवाह है. उसे जैसे पेगासस का नाम ही नहीं सुनना है. यह स्थिति तभी संभव है जब उसे ठीक-ठीक पता हो कि पेगासस का इस्तेमाल कौन कर रहा है और किसके ख़िलाफ़ कर रहा है. यही नहीं, पेगासस की जासूसी सूची के जो नाम सामने आए हैं, उनमें नेताओं और पत्रकारों के अलावा कुछ ऐसे मामूली लोग भी हैं जिनका वास्ता सरकार और उनके साथ जुड़े लोगों से है. ऐसे लोगों की जासूसी में कम से कम किसी विदेशी एजेंसी की दिलचस्पी कतई नहीं हो सकती.
पेगासस पर जांच कमेटी बनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जॉर्ज ऑरवेल के मशहूर उपन्यास ‘नाइन्टीन एटी फोर' का भी ज़िक्र करते हुए उसका यह वाक्य दुहराया कि अगर आप कुछ गोपनीय रखते हैं तो उसे अपने-आप से भी गोपनीय रखना होगा. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के किसी जज को जॉर्ज ऑर्वेल और ‘1984' की याद ही क्यों आई? कहीं इसलिए तो नहीं कि मौजूदा सत्ता-प्रतिष्ठान के फ़ैसलों का बेतुकापन इसे ‘नाइन्टीन एटी फोर' के हालात के क़रीब ले आता है. इस उपन्यास का एक काल्पनिक तानाशाह अपने नागरिकों पर निगरानी रखता है. इसका मशहूर वाक्य है- 'बिग ब्रदर इज़ वॉचिंग यू.'
तो बिग ब्रदर इज़ वाचिंग यू. लेकिन किसी सरकार को यह हिम्मत कहां से होती है कि वह एक देश की लोकतांत्रिक प्रतिज्ञाओं का मखौल बनाते हुए सबकी जासूसी कराए और फिर सवाल पूछे जाने पर राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देते हुए अपने होंठ सी ले? इस सवाल का जवाब उस संकट की ओर इशारा करता है जो हमारे लोकतंत्र में पिछले कुछ वर्षों में ब़डा होता गया है. हिंदूवादी राजनीति के आक्रामक उभार के इन दिनों में एक बहुत बड़ी बहुसंख्यक आबादी के लिए चीज़ों के सही-ग़लत होने की कसौटी बस एक है- वह मौजूदा सरकार के हक़ में जा रही है या उसके ख़िलाफ़? जिन मुद्दों पर दस साल पहले जनता उबल पड़ती थी, उन पर आज बहुत सारे लोग सरकार का बचाव करते नज़र आते हैं. पेट्रोल के दाम में बढ़ोतरी हो, महंगाई हो, यहां तक कि लखीमपुर खीरी में किसानों के कुचले जाने का मामला हो, लोग अपनी राय इस बात से तय करते हैं कि वह मोदी के पक्ष में जाएगी या विरोध में. किसी एक नेता के चारों ओर सत्ता का यह संकुचन लोकतंत्र के लिए कभी भी शुभ संकेत नहीं होता- खास कर तब, जब इस सत्ता-संकुचन के पीछे एक डरावनी सांप्रदायिक दृष्टि काम कर रही हो.
दुर्भाग्य से पेगासस के मामले में भी यही हो रहा है. इस पर क़ायदे से देश को उबल पड़ना चाहिए था. लेकिन लोग चुप हैं. उन्हें अंदेशा है कि इस मामले में उनका अत्यंत प्रिय नेता संकट में फंस सकता है. उन्हें एहसास है कि पेगासस जासूसी मामले में जो कुछ भी हो रहा है, वह सरकार की जानकारी में हो रहा है. उन्हें शायद यह भी भरोसा है कि सरकार जो कुछ भी कर रही है, वह राष्ट्र के हित में कर रही है- यह अलग बात है कि लगातार होता जा रहा राष्ट्र का अहित उन्हें नज़र नहीं आ रहा.
दरअसल यह वह चीज़ है जो मौजूदा सरकार को किसी भी जांच से महफ़ूज़ रखती है. सुप्रीम कोर्ट ने जो कमेटी बनाई है, उसे आठ हफ़्ते का वक़्त दिया है. लेकिन आठ हफ़्ते में यह कमेटी क्या कर लेगी? अगर सरकार तय कर ले कि वह सुप्रीम कोर्ट की बनाई इस कमेटी के साथ आसानी से सहयोग नहीं करेगी तो वह कौन सी सूचनाएं जुटाएगी और कहां से पता लगाएगी कि पेगासस की खरीद हुई है या नहीं और उसका इस्तेमाल हुआ है या नहीं. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट और कौन से नए दिशा-निर्देश जारी करेगा? भारत में जांच कमेटियों का इतिहास वैसे भी बहुत आश्वस्तिदायी नहीं है. अक्सर जांच कमेटियों का इस्तेमाल किसी मुद्दे को ठंडे बस्ते में डालने के लिए होता रहा है.
लेकिन इसके बावजूद पेगासस पर बनी जांच कमेटी का अपना महत्व है. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार का यह प्रस्ताव ख़ारिज कर दिया कि वह अपनी ओर से समिति बनाएगी. उसने बहुत साफ़ और सख़्त शब्दों में कहा कि सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर फ्री पास नहीं ले सकती. अदालत ने ये भी कहा कि नागरिकों की निजता का अधिकार महत्वपूर्ण है. तीसरी बात अदालत ने यह कही कि बोलने की आज़ादी- जो दरअसल प्रेस की आज़ादी है- को कुचला नहीं जा सकता. पेगासस प्रकरण में ये तीनों काम हो रहे थे.
इस ढंग से अदालत ने एक लकीर खींच दी है. राष्ट्रीय सुरक्षा के पद का पिछले दिनों सरकारों ने बहुत दुरुपयोग किया है. यह काम दुनिया भर की सरकारें करती हैं, लेकिन भारत में पिछले कुछ वर्षों में जैसे यह प्रवृत्ति हो गई है. अदालत की टिप्पणी के बाद इस प्रवृत्ति पर रोक लगेगी, यह आशावाद भले कुछ अतिरेकी लगे, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि इस प्रवृत्ति को मिल रहा क़ानूनी संरक्षण शायद कुछ कम होगा.
दूसरी बात यह कि अगर वाकई सुप्रीम कोर्ट की बनाई कमेटी पेगासस से जुड़ा कोई सच खोज निकालने में कामयाब रही तो वह इस देश के लोकतांत्रिक अधिकारों की एक बड़ी सेवा होगी. नागरिक अधिकारों के लगातार हनन के इस दौर में लोगों का यह विश्वास मज़बूत होगा कि प्रजातंत्र सिर्फ़ सरकारों के ज़िम्मे नहीं है, उसको बचाने वाली दूसरी व्यवस्थाएं भी हैं.
लेकिन अंततः यह एक राजनीतिक लड़ाई है जिसे लड़े बिना पेगासस के प्रेत और उसके पीछे खड़ी ताकतों से मुक्ति नहीं है. इस मोड़ पर कांग्रेस की मौजूदा ज़िद एक आकर्षक उम्मीद बनाती है. दरअसल संसद से सड़क तक पेगासस की जासूसी का सच उजागर करने की जो लड़ाई होगी, वही इस देश के लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई होगी. बेशक, उसे कुछ पिछली या साथ चल रही लड़ाइयों की मदद मिल सकती है, लेकिन समझने की बात यह है कि यह अंततः जनता की ल़ड़ाई है और जनता को यह समझाना होगा कि राष्ट्रहित और जनहित की बात करते-करते यह सरकार किस हद तक राष्ट्रविरोधी और जनविरोधी हो सकती है. पेगासस का प्रेत ख़त्म होगा तो लोकतंत्र की आत्मा स्वस्थ होगी.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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