ताकि लोकतंत्र का मंदिर बचा रहे

मंदिरों-मस्जिदों के बनने-टूटने के पीछे की राजनीति और मानसिकता को ठीक से समझें, यह समझ लेंगे तो लोकतंत्र के मंदिर को ज़्यादा सुरक्षित रख पाएंगे

ताकि लोकतंत्र का मंदिर बचा रहे

पाकिस्तान के ख़ैबर पख़्तूनवा में एक ऐतिहासिक हिंदू मंदिर तोड़े जाने की ख़बर सुर्खियों में रही. इसे भारत में सोशल मीडिया पर खूब शेयर किया गया. अख़बारों और टीवी चैनलों पर भी यह ख़बर ख़ूब चली. इसे इस बात के प्रमाण की तरह पेश किया गया कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यक हिंदुओं की स्थिति कितनी बुरी है. वहां जबरन धर्मांतरण कराए जाने की लगातार आ रही ख़बरें इस स्थिति के दूसरे प्रमाण की तरह गिनाई जाती हैं. 

यह सच है कि पाकिस्तान में हिंदुओं की स्थिति अच्छी नहीं है. लेकिन यह आधा सच है. पूरा सच यह है कि पाकिस्तान में आधुनिकता और बराबरी चाहने वाले नागरिकों की स्थिति ही अच्छी नहीं है. और अंतिम सच यह है कि पाकिस्तान की मज़हबी कट्टरता ने जितनी चोट वहां के हिंदुओं या ईसाइयों को पहुंचाई है, उससे कहीं ज़्यादा चोट उन मुस्लिम नागरिकों को पहुंचाई है जिनके भीतर एक खुशहाल, अमनपसंद मुल्क का सपना कुलबुलाता रहता है. इस कट्टरता ने वहां की उन लड़कियों को चोट पहुंचाई है जो आज़ादी की हवा में सांस लेना चाहती हैं और आगे बढ़ना चाहती हैं.  

सच्चाइयां और भी हैं. एक सच्चाई यह भी है कि एक रोशनख़याल पाकिस्तान अपने यहां के कट्टरपंथी पाकिस्तान से तीखी लड़ाई लड़ रहा है. वहां भी सबके लिए इज़्ज़त और हिफ़ाज़त का वह माहौल बनाने की कोशिश जारी है जिसके बिना कोई लोकतंत्र कामयाब नहीं कहा जा सकता. इसका सबसे ताज़ा प्रमाण पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश है कि ख़ैबर पख़्तूनवा में टूटा हुआ मंदिर दो हफ़्तों के भीतर बनाया जाए. यह अपने-आप में ऐतिहासिक फ़ैसला है. जिस समय उदार हिंदुस्तान में 400 साल पहले टूटी मस्जिद का इंसाफ़ एक अजब सी विडंबना के साथ किया जा रहा है, उस समय पाकिस्तान में 100 साल पुराना एक ऐतिहासिक मंदिर सुप्रीम कोर्ट के आदेश से फिर से बनाया जा रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को स्वतःसंज्ञान में लेकर यह आदेश दिया है. वैसे इस मामले में इसके पहले ही करीब 350 लोगों पर एफआइआर हो चुकी है और सौ से ज़्यादा लोग गिरफ़्तार किए जा चुके हैं.  

तो ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान में सिर्फ़ कट्टरपंथी तत्वों का बोलबाला है जिनके आगे सब चुप रहते हैं. वहां इनका प्रतिरोध भी चल रहा है- और हाल के वर्षों में यह प्रतिरोध बड़ा हुआ है. यह भी सच है कि 1947 से पहले वहां जितने मंदिर थे, उतने नहीं बचे. पाकिस्तान में ‘ऑल पाकिस्तान हिंदू राइट्स मूवमेंट' नाम का एक संगठन भी है जिसने सर्वेक्षण कर यह जानकारी दी है कि वहां 400 से ज़्यादा बड़े मंदिर हुआ करते थे जिनमें बस 22 बचे रह गए हैं. लेकिन छोटे मंदिर बहुत बड़ी तादाद में वहां अब भी हैं. बल्कि कुछ साल पहले पाकिस्तान की एक लेखिका रीमा अब्बासी ने पाकिस्तान के मंदिरों पर क़रीब 300 पृष्ठों की एक पूरी किताब लिखी है जिसका नाम है- ‘हिस्टॉरिक टेंपल्स इन पाकिस्तान, अ कॉल टु कॉन्शिएंस'. जाहिर है, वहां बहुत सारे लोगों को यह एहसास है कि पाकिस्तान के अतीत का बड़ा हिस्सा हिंदू विरासत से भी बनता है. 

बेशक, पाकिस्तान में ऐसे लोग भारत में मुक़ाबले कम हैं- लेकिन हैं और वे बढ़ते लग रहे हैं. जबकि चिंताजनक ढंग से ऐसे उदार लोगों की संख्या भारत में घट रही है. पाकिस्तान की कट्टरता का हवाला देकर वे अपने कट्टर होते जाने की कैफियत देते हैं और यह नहीं समझते कि यह कट्टरता अंततः आत्मघाती होती है. दरअसल कट्टरताएं भी सरहदों के आरपार एक-दूसरे का पोषण करती हैं. 1992 में जब बाबरी मस्जिद टूटी तो बांग्लादेश और पाकिस्तान में मंदिर तोड़े जाने लगे. कहते हैं, पाकिस्तान में एक हज़ार मंदिर तोड़ दिए गए. बांग्लादेश में मंदिरों को तोड़े जाने के विरोध में तसलीमा नसरीन ने 'लज्जा' जैसा उपन्यास लिखा तो उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए बांग्लादेश छोड़ देना पड़ा. बाद के वर्षों में भी ऐसा होता रहा. दुर्भाग्य से ऐसे कट्टरपंथी तत्वों को अक्सर हुकूमत की शह भी रहती है. इसकी वजह से वे जज़्बाती मुद्दे हावी हो जाते हैं जिनके आगे वास्तविक सवाल पीछे छूट जाते हैं और हुकूमतों की नाकामियों पर किसी का ध्यान नहीं जाता.  

आज के हालात पर लौटें. ख़ैबर पख़्तूनवा में मंदिर तोड़े जाने की ख़बर सुर्खियों में आई, उस पर कार्रवाई भी हुई. जाहिर है, इस मामले में वहां का उदार ताक़तें कट्टरपंथी ताकतों को पीछे छोड़ने की कोशिश में लगी हुई हैं. लेकिन हमारे यहां क्या हो रहा है? हमारे यहां पिछले कुछ वर्षों में जैसे एक तरह की कट्टरता बेलगाम छोड़ दी गई है, बल्कि उसको सत्ता का संरक्षण भी हासिल है. यह बहुसंख्यकवादी कट्टरता कभी गोरक्षा के नाम पर अल्पसंख्यकों और दलितों की पिटाई करती है और कभी भावनाएं आहत होने की आड़ में किसी पर हमला करती है. हालत ये है कि कई मामलों में पुलिस बाद में हाथ डालती है- कट्टर बहुसंख्यकवादी संगठन पहले कार्रवाई करते हैं और अपनी ओर से इंसाफ़ करने की कोशिश भी. जैसे कई राज्यों की पुलिस बजरंग दल और उस जैसे तरह-तरह के नामों वाले संगठनों के कहने पर काम कर रही हो. इस हफ़्ते बुलंदशहर में नासिर नाम के एक शख़्स को पुलिस ने बस इसलिए गिरफ़्तार कर लिया कि वह जातिसूचक ब्रांड के जूते बेच रहा था. इसकी दुकान पर भी पहली छापामारी बजरंग दल वालों ने की, उन्होंने किसी रैक से जूते निकलवाए, और फिर पुलिस पर दबाव बनाया कि वह कार्रवाई करे.  

ध्यान से देखें तो यह बहुसंख्यकवाद दरअसल हमारे पूरे सत्ता-प्रतिष्ठान को संचालित कर रहा है. लव जिहाद जैसी काल्पनिक और मूर्खतापूर्ण अवधारणा के आधार पर क़ानून बना दिए गए और इसी के साथ उनका दुरुपयोग भी शुरू हो गया. दिल्ली दंगों या भीमा कोरेगांव हिंसा की जांच के पूरे तौर-तरीक़े बता रहे हैं कि इनमें जान-बूझ कर उन लोगों को निशाना बनाया जा रहा है जो बहुलतावादी संस्कृति की बात करते हैं या फिर दलितों-अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न का विरोध करते हैं. और यह सबकुछ राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर हो रहा है- बल्कि यह प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है कि जो विरोधी विचार है, उसे देशद्रोही करार दिया जाए. 

मध्य प्रदेश के कई शहरों में यह बहुसंख्यकवाद इन दिनों उकसावे की कार्रवाई करता दिख रहा है. वहां भी मस्जिदों के आगे नारे लगाने, झंडे फहराने आदि की घटनाएं सुनने में आ रही हैं, लेकिन इन पर न मीडिया कुछ कह रहा है, न पुलिस कोई कार्रवाई कर रही है और न अदालतों से इन्हें रोकने की कोशिश हो रही है. इस मामले में हमसे बेहतर तो पाकिस्तान साबित हुआ जहां सुप्रीम कोर्ट हिंदू मंदिर बनाने के लिए आदेश जारी कर रहा है. 

दरअसल, बहुसंख्यकवादी कट्टरता की यह विडंबना क्या होती है, यह भी देखना और सीखना हो तो हम पाकिस्तान से ही देख-सीख सकते हैं. पाकिस्तान में जैसे-जैसे कट्टरता बढ़ रही है, वह विकास और खुशहाली के पैमानों पर वैसे-वैसे पीछे छूटता जा रहा है. शायद इसकी अति ही है कि अब वहां इसके विरोध और प्रतिरोध का एक सिलसिला शुरू हो गया है. भारत को हिंदू पाकिस्तान बना डालने का ख़मियाजा मुसलमानों या दूसरे अल्पसंख्यकों से ज़्यादा हिंदुओं को भुगतना पड़ेगा. अंततः यह भारतीय लोकतंत्र और राष्ट्र राज्य के लिए नुकसानदेह होगा. किसी भी लोकतंत्र की सेहत मापनी हो तो इस बात से मापनी चाहिए कि वहां अल्पसंख्यक कितने सुरक्षित और खुशहाल हैं, उनकी सुरक्षा और ख़ुशहाली की गारंटी दरअसल बहुसंख्यक आबादी की भी सुरक्षा और समृद्धि की गारंटी है. 

जहां तक मंदिरों-मस्जिदों का सवाल है, उनके बनने-टूटने के पीछे की राजनीति और मानसिकता को ठीक से समझें- यह समझ लेंगे तो लोकतंत्र के मंदिर को ज़्यादा सुरक्षित रख पाएंगे.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं...

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