गोरखपुर के एक होटल में आधी रात के बाद घुस कर यूपी पुलिस के कुछ लोगों ने कानपुर के एक व्यवसायी मनीष गुप्ता की इतनी पिटाई की कि उनकी मौत हो गई. उसके बाद हमेशा की तरह पुलिस ने मामला दबाने की कोशिश की. बताया कि वे पूछताछ के दौरान फ़र्श से गिर गए जिससे उनको चोट लगी. लेकिन उनकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट डरावनी है. इससे पता चलता है कि उन्हें बेरहमी से मारा पीटा गया. उनके जिस्म के अलग-अलग हिस्सों पर गंभीर चोट के गहरे निशान थे.
जिस तरह मनीष गुप्ता की हत्या हुई, उसके लिए सबसे पहले पुलिसवालों को गिरफ़्तार किया जाना चाहिए था. लेकिन तस्वीर क्या नज़र आ रही है? मनीष गुप्ता की पत्नी ने बाक़ायदा रिकॉर्डिंग जारी कर बताया कि वरिष्ठ पुलिस अधिकारी उन पर इस मामले में केस न करने का दबाव बना रहे हैं. वे याद दिला रहे हैं कि इन पुलिसवालों की उनसे कोई जाती दुश्मनी नहीं थी. वे यह भी बता रहे हैं कि इन पुलिसवालों के परिवार भी हैं- अगर इन्हें सज़ा हो गई तो वे कैसे पलेंगे? वे यहां तक समझा रहे हैं कि केस-मुक़दमों का नतीजा अच्छा नहीं होता.
यह भी बिल्कुल आपराधिक है. क़ायदे से ऐसे अफ़सरों के ख़िलाफ़ भी केस होना चाहिए- उन्हें बर्ख़ास्त किया जाना चाहिए. लेकिन हो क्या रहा है? हत्या के आरोपी हत्या के कई दिन बाद भी आज़ाद घूम रहे हैं. बेशक, उन्हें निलंबित किया गया है, लेकिन जिस तरह उनके प्रति पुलिस के बड़े अफ़सरों की सहानुभूति दिख रही है, उससे स्पष्ट है कि देर-सबेर यह निलंबन रद्द हो जाएगा. फर उन्हें उनके अटके हुए वेतन सहित सारे फ़ायदे एक साथ मिल जाएंगे. यानी यह सज़ा नहीं, एक तरह से पुरस्कार है.
बेशक, इस पुरस्कार के साथ और भी बातें जुड़ी हुई हैं. इस बीच मारे गए व्यवसायी की पत्नी मीनाक्षी गुप्ता मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मिल चुकी हैं. मुख्यमंत्री ने विनम्रतापूर्वक उनकी सारी मांगें मान ली हैं- यानी उनको मुआवज़ा देने की भी और साथ में एक नौकरी देने की भी. निस्संदेह यह बहुत बड़ी राहत है. घर का कमाने वाला चला जाए तो सबसे बड़ा संकट आर्थिक संकट हो जाता है. अगर यह संकट दूर हो जाए तो फिर लोग इसी को न्याय मान कर संतोष कर लेते हैं.
लेकिन क्या भारतीय संविधान भी इसे न्याय मान सकता है? जिन लोगों पर कानून के रक्षण की ज़िम्मेदारी है, उनमें से कुछ उसका सरेआम उल्लंघन करते हैं, बिल्कुल पाशविक ढंग से जुर्म करते हैं और कुछ दूसरे लोग इन सबका बचाव करते हैं.
हालांकि भारत की कानून व्यवस्था- या भारत का पुलिस तंत्र- शायद हमेशा से ऐसे रहे हैं. क़ानून उनके लिए अमल की नहीं, इस्तेमाल की चीज़ रहा है जो अक्सर उनकी जेब में पड़ा रहता है. बल्कि गोरखपुर के होटल की घटना के बारे में लिखते हुए यह खयाल आता है कि हमारे पुलिस तंत्र में ऐसी घटनाएं आम सी हैं. अगर कल्पना करें कि मनीष गुप्त की जान न गई होती- सिर्फ़ बर्बरता से उनकी पिटाई हुई होती और वे किसी अस्पताल में कराह रहे होते तो बहुत सारे लोगों के लिए यह ख़बर भी नहीं होती. परिवार इसे ही अपनी ख़ुशक़िस्मती मानकर संतोष कर लेता कि उनकी जान बच गई. बल्कि पुलिस वाले शायद जान बचाने का भी कुछ वसूल लेते. बरसों नहीं, दशकों पहले जस्टिस आनंद नारायण मुल्ला ने जो कहा था उसे लगता है कि हमारा पुलिस तंत्र समय-समय पर सही साबित करने में लगा रहता है- कि पुलिस इस देश में गुंडों का सबसे संगठित गिरोह है.
और आज की दुनिया में मामला इतना भर नहीं है. अब यह पुलिस तंत्र राजनीतिक संरक्षण में न्याय की बुनियादी ज़रूरतों की धज्जियां उड़ाता चलता है. यूपी में पिछले दिनों जो मुठभेड़ संस्कृति पैदा हुई है, वह कानून के प्रति पुलिस की अवहेलना को कुछ और बढ़ाती है.
बल्कि इसका एक दूसरा पहलू भी है. क़ानून के रास्ते पर चलते हुए न्याय को हमारे यहां लगभग नामुमकिन बना दिया गया है. कभी उसे पैसे से अपनी ओर मोड़ लिया जाता है तो कभी राजनीतिक रसूख से उसे बेमानी बनाया जाता है.
नतीजा ये होता है कि धीरे-धीरे जनता को लगने लगता है कि न्याय संभव ही नहीं है. वह बस न्याय के लिए लोगों के- कुछ पुलिस अधिकारियों के- उद्धत नायकत्व पर भरोसा करने लगती है. अपराधियों को सीधे गोली से उड़ा देने की फिल्मी युक्तियां वास्तविक जीवन में भी आज़माई जाने लगती हैं. व्यवस्था के भीतर से भी चुपचाप इस तौर-तरीक़े को समर्थन मिलता जाता है. बल्कि होता यह है कि जो व्यवस्था यूपी में विकास दुबे को इतना ताकतवर बनाती है कि वह पुलिस वालों को मार डालने में नहीं हिचकता, वही एक दिन उसे बेशर्मी से क़ानून की गिरफ़्त में लेकर ख़त्म कर देती है.
लेकिन हमारी इस पुरानी पड़ चुकी व्यवस्था में अब तो नई विडंबनाएं भी जुड़ने लगी हैं. अब राजनीतिक और सत्ता प्रतिष्ठान पुलिस और ख़ुफ़िया एजेंसियों का सीधे-सीधे इस्तेमाल करने लगे हैं. उनकी मार्फ़त झूठे आरोप गढ़े जाते हैं, उनके सहारे असली अपराधियों को छोड़ा जाता है और उनके सहारे राजनीतिक बदले निबटाए जाते हैं. महाराष्ट्र का भीमा कोरेगांव केस हो या दिल्ली के दंगे- इनकी जांच का पैटर्न देखते हुए यह डरावना सच फिर खुलता है कि हमारी एजेंसियां किस हद तक सत्ता की निरंकुशता के हाथों खेल रही हैं.
इस विडंबना में वे जातिगत और धार्मिक-सांप्रदायिक विडंबनाएं भी जोड़ लीजिए जो इन वर्षों में भारतीय समाज में बहुत गाढ़ी हुई हैं तो अन्याय का यह दुष्चक्र लगभग पूरा हो जाता है. यह संदेह बेजा नहीं है कि अगर मनीष गुप्त दलित या अल्पसंख्यक होते तो शायद पुलिस तंत्र के हाथों उनकी मौत पर पैदा आक्रोश इतना तीखा नहीं होता. बल्कि शायद कुछ लोग यह बताने वाले निकल आते कि पुलिस ने तो आतंकियों पर कार्रवाई की है. हमारे यहां न्याय-अन्याय की अवधारणा इस हद तक सांप्रदायिक हो चुकी है कि हमें कोई घटना तब चुभती है जब वह अपनी जाति, अपने धर्म के विरुद्ध जाती हो. बलात्कार जैसे संगीन जुर्म पर भी लोग इस आधार पर बंटे दिखते हैं. बलात्कारियों को हर सूरत में फांसी देने की मांग करने वाले बिलकीस बानो के साथ हुए सामूहिक बलात्कार पर चुप्पी साध लेते हैं.
मनीष गुप्ता का परिवार खुशक़िस्मत है कि वह बहुसंख्यक समाज से आता है और बहुसंख्यक विश्वासों वाला माना जाता है. वह आर्थिक तौर पर भी इस लायक है कि उसकी बात सुन ली जाती है. इसलिए उसे आधा-अधूरा ही सही, कुछ न्याय मिल भी सकता है. लेकिन ऐसे ज़्यादातर मामलों में जब पीड़ित ग़रीब, दलित, अल्पसंख्यक या आदिवासी होते हैं तो कोई पूछने वाला नहीं होता कि भारत का न्याय तंत्र क्या कर रहा है.
लेकिन इस प्रसंग का एक सबक और है. अगर आप अपने ही समाज के भीतर एक बर्बर-दमनकारी-सांप्रदायिक व्यवस्था को बढ़ावा देंगे, उसका चुपचाप समर्थन करेंगे तो किसी रोज़ किसी चूक में या किसी होशियारी में वह आपके दरवाज़े पर भी पहुंच जाएगी और आपके साथ वैसा ही सलूक कर डालेगी जैसा आप दूसरों के साथ होता देखते रहे हैं.
मनीष गुप्ता के मामले में लौटें. इस मामले में न्याय की पहली कसौटी यही है कि दोषी पुलिसकर्मियों को गिरफ्तार कर उनके ख़िलाफ़ मुकदमा चलाया जाए. अगर यह नहीं होता तो यह भारतीय लोकतंत्र को रोज़ मिल रही कई शिकस्तों में एक और शिकस्त होगी. हमें अगर अपने लोकतंत्र को बचाना है तो सबसे पहले न्याय को बचाना होगा, उसकी अवधारणा को बचाना होगा, उसके प्रति सम्मान बचाना होगा.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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