यह बहुत अच्छी बात है कि मध्य प्रदेश में मेडिकल की पढ़ाई हिंदी में शुरू हो रही है. हमारी तरह के लोगों का यह मलाल पुराना है कि ज्ञान-विज्ञान की अलग-अलग शाखाओं में हिंदी का इस्तेमाल नहीं हो रहा. हिंदी बस मनोरंजन की भाषा रह गई है, उसे रोटी-रोज़गार और अध्ययन की भाषा बनना होगा. तो मध्य प्रदेश में यह काम शुरू हो गया है.
लेकिन हिंदी में पढ़ाई-लिखाई का सपना जितना सुंदर है, उसका यथार्थ उतना ही जटिल है. पहला सवाल तो यही है कि क्या लड़के हिंदी में पढ़ाई करने को तैयार हैं? दिल्ली विश्वविद्यालय में जब दूसरे विषयों में दाखिले के लिए न्यूनतम अंक 90 और 95 फ़ीसदी तक हुआ करते हैं, हिंदी में बस 60 और 70 फ़ीसदी पर दाख़िला मिल जाता है. उत्तर प्रदेश-मध्य प्रदेश में कई संस्थान हैं जहां एमबीए की पढ़ाई हिंदी में हुआ करती है. लेकिन वहां कितने बच्चे पढ़ने जाते हैं? यह एहसास सबको है कि प्रबंधन जैसे क्षेत्र में हिंदी पढ़ कर नौकरी नहीं मिलेगी.
निश्चय ही मेडिकल की पढ़ाई ऐसी नहीं है. किसी भी डॉक्टर को अपने मरीज़ों की भाषा समझनी पड़ती है. वहां बस अंग्रेज़ी से काम नहीं चल सकता. हम सब अपने अनुभव से जानते हैं कि शायद इसी वजह से डॉक्टर अमूमन ज़्यादा साफ़-सुथरी या फ़र्राटेदार हिंदी बोलते मिलते हैं. सरकारी अस्पातलों के डॉक्टरों का तो यह अनुभव आम है.
लेकिन मेडिकल साइंस में करिअर बनाने निकले किसी लड़के को क्या यह पढ़ाई हिंदी में करना क़बूल होगा? संभव है, वह अपने लिए अंग्रेज़ी में ही मेडिकल की पढ़ाई को मुफ़ीद माने. उसे लगे कि महानगरों के बड़े निजी अस्पतालों में या विदेशों में उसके हिंदी में एमबीबीएस को वह अहमियत नहीं मिलेगी जो अभी मिला करती है.
लेकिन इस तर्क से हिंदी में मेडिकल की पढ़ाई को ख़ारिज नहीं किया जा सकता. अगर धीरे-धीरे हमारा तंत्र यह साबित कर सके कि हिंदी में मेडिकल की पढ़ाई कहीं से कमतर नहीं है और हिंदी से पढ़ने वाले डॉक्टर उतने ही सक्षम हैं जितने अंग्रेज़ी में पढ़ने वाले तो देर-सबेर लड़के हिंदी में पढ़ना पसंद करेंगे. फिर इसके लिए कुछ और सरकारी नियम बनाने होंगे. यानी यह सुनिश्चित करना होगा कि इन डॉक्टरों को ढंग से नौकरी मिल सके. कम से कम सरकारी संस्थानों में इन्हें प्राथमिकता दी जा सकती है.
लेकिन यह सब बाद की बात है. अगर मान लें कि लोग हिंदी में एमबीबीएस की पढ़ाई करने को तैयार हो जाएं तो आप पढ़ाएंगे किस तरह. मध्य प्रदेश में हिंदी के नाम पर जो किताबें तैयार की गई हैं, वे लगभग हास्यास्पद हैं. वे मूलतः अंग्रेज़ी की ही किताबें लग रही हैं जिनमें क्रियापदों को छोड़ कर बाक़ी सबकुछ देवनागरी में लिख दिया गया है.
यह बात इसलिए कुछ ज्यादा तकलीफ़देह है कि इससे यह भ्रम बनता है जैसे साफ़-सुथरी हिंदी में पढ़ाई-लिखाई की ही नहीं जा सकती. उसके लिए हिंदी को हर हाल में अंग्रेजी के बाजू थामने होंगे. लेकिन क्या वाकई विज्ञान में हिंदी का हाथ इतना तंग है? हम बहुत सारे लोगों ने अपने बचपन में पूरी स्कूली पढ़ाई हिंदी में ही की है. हमें कभी गणित, भौतिकी, रसायन शास्त्र या जीव विज्ञान पढ़ने में दिक्कत नहीं हुई. गणित और विज्ञान की जो आधारभूत शब्दावली होती है, वह दसवीं की किताबों तक लगभग तैयार हो चुकी होती है. संभव है, कहीं-कहीं ग्यारहवीं-बारहवीं की विज्ञान किताबें भी हिंदी में हों. हमने कला संकाय में पढ़ाई की और बीए तक इतिहास, अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र भी हिंदी में ही पढ़ा. वैसे इनसे अलग हिंदी में विज्ञान की कई लोकप्रिय पत्रिकाएं भी निकलती रही हैं.
यानी हिंदी उतनी विपन्न भाषा नहीं है जितनी इन दिनों बताई जा रही है या जितनी मध्य प्रदेश में मेडिकल की किताबें तैयार करने वाले अनुवादकों द्वारा साबित की जा रही हैं. उसमें ढंग की पाठ्य-पुस्तकें तैयार की जा सकती हैं. उसमें एक सुगठित पारिभाषिक शब्दावली है जो लगातार इस्तेमाल से सहज भी होती जाएगी. आख़िर चौथी कक्षा से गणित का लघुत्तम समापवर्तक, महत्तम समापवर्तक, पांचवीं से वर्गमूल और आठवीं से जीव विज्ञान की अनुवांशिकी या रसायन शास्त्र में मेंडलीफ की आवर्त सारणी हमें डरा नहीं सकीं. हमारे लिए ये बहुत सहज संज्ञाएं थीं. ऐसा नहीं कि इन विज्ञान पुस्तकों को अंग्रेज़ी से परहेज था. गैसों और बहुत सारे तत्वों के नाम हमने अंग्रेज़ी में ही सीखे. लेकिन वह अनुपात इतना संतुलित था कि न हिंदी बिगड़ती दिखी न अंग्रेज़ी हावी होती नज़र आई.
लेकिन फिर मध्य प्रदेश से निकली पाठ्य पुस्तकें ऐसी क्यों निकली हैं जिनमें हर शब्द को अंग्रेज़ी में लिखा गया है? क्या लोग 'फेफड़े' नहीं समझते और ‘लंग्स' को ज़्यादा समझते हैं? क्या लोग रक्त, ख़ून या लहू नहीं समझते, सिर्फ़ ब्लड समझते हैं? कृपया ऐसी ख़राब हिंदी में मेडिकल की पढ़ाई शुरू न करें. क्योंकि इससे फिर लोग अंग्रेज़ी में ही मेडिकल की पढ़ाई करना ज़्यादा पसंद करेंगे.
अक्सर हिंदी में कामकाज के साथ एक लोकप्रिय तर्क यह जोड़ा जाता है कि हिंदी को सरल बनाना होगा. इस तर्क के मुताबिक अभी जो हिंदी है, वह इतनी जटिल है कि किसी को समझ में नहीं आती. पहली दृष्टि में यह तर्क ठीक लगता है, लेकिन ध्यान से देखें तो दरअसल पढ़ाई-लिखाई या किसी भी शास्त्र की भाषा अनिवार्यतः बोलचाल की नहीं हो सकती. फिर इस आसान हिंदी की मांग वे करते देखे जाते हैं जिनका पूरा जीवन अंग्रेजी की भारी-भरकम डिक्शनरियों में आंख गड़ाते और क्लिष्ट शब्दों की स्पेलिंग रटते बीता है. आसान हिंदी की मांग दरअसल एक झूठी मांग है जिसका मक़सद पूरी हिंदी को ही ख़ारिज करना है. आप मुश्किल हिंदी में ही पढ़ाइए- चार दिन बाद लोगों को वह आसान लगने लगेगी- जैसे अंग्रेज़ी लगने लगती है.
लेकिन हिंदी से प्रेम जताना एक बात है, प्रेम करना दूसरी बात और हिंदी को वाकई अपनाना या उसे लागू करना एक अन्य बात. सरकारें घोषणा कर देती हैं, तैयारी नहीं करतीं. या तैयारी का ज़िम्मा ऐसे लोगों पर छोड़ देती है जो मेडिकल की पढ़ाई को भले समझते हों, भाषा को नहीं समझते, लोगों को नहीं समझते. हमारे यहां मेडिकल साइंस की भी एक पूरी और समृद्ध शब्दावली है- अगर हम उसका इस्तेमाल नहीं करते तो एक अच्छी पहल को यह साबित करने के अवसर में बदल डालेंगे कि हिंदी में पढ़ाई मुमकिन ही नहीं है. दरअसल नीम हकीम किसी भी क्षेत्र के हों, वे लोगों की भी जान ले सकते हैं और भाषा की भी. मध्य प्रदेश में फिलहाल यही होता दिख रहा है.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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