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This Article is From Jul 13, 2016

प्राइम टाइम इंट्रो : देश में संविधान के उल्लंघन की संवैधानिक स्थिति...

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 13, 2016 21:30 pm IST
    • Published On जुलाई 13, 2016 21:30 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 13, 2016 21:30 pm IST
सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड के बाद अब अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाने के फैसले को रद्द कर दिया है। राष्ट्रपति शासन के मामले में उत्तराखंड का फैसला भारत के न्यायिक और राजनीतिक इतिहास का पहला फैसला है जो नई सरकार के बनने से पहले आया है। इसके पहले ऐसा उदाहरण पाकिस्तान से ही है जब 1993 में नवाज़ शरीफ़ की बर्खास्त सरकार को वहां की सुप्रीम कोर्ट ने बहाल कर दिया था। 1994 में एसआर बोम्मई फैसले का हवाला हर राष्ट्रपति शासन के समय दिया जाता है मगर जब कई साल बाद फैसला आया था तो उससे पहले कर्नाटक में किसी और की सरकार बन चुकी थी। एसआर बोम्मई की सरकार 1989 में बर्खास्त हुई थी। इतिहास की विडंबना देखिए। जिस बोम्मई फैसले को राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए बदनाम हो चुकी कांग्रेस के लिए सबक बताया जाता था, उसी फैसले के आधार पर दो महीने के भीतर कांग्रेस की दो सरकारों को राष्ट्रपति शासन से मुक्ति मिली है। आइए अरुणाचल में राष्ट्रपति शासन लागू होने की कहानी शुरू से शुरू करते हैं।

इस साल 26 जनवरी के दिन जब आप देश में संविधान लागू होने के उपलक्ष्य में जश्न मना रहे थे, सुपर बाज़ारों में सुपर डिस्काउंट पर सामान खरीद कर अपना घर भर रहे थे, रायसीना हिल्स पर स्थित 340 कमरों के राष्ट्रपति भवन के किसी कमरे में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी उस प्रस्ताव पर दस्तखत कर रहे थे जिसे केंद्रीय मंत्रिमंडल ने भेजा था कि अरुणाचल में राष्ट्रपति शासन लगा देना चाहिए। मीडिया की खबरों के मुताबिक 26 जनवरी की शाम राष्ट्रपति भवन से मेहमानों के जाते ही राष्ट्रपति ने केंद्र के इस प्रस्ताव पर दस्तखत कर दिया था। 26 जनवरी को शाम 7 बजकर 59 मिनट पर प्रेस इनफर्मेशन ब्यूरो की सूचना आती है कि अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया है। बताया जाता है कि 24 जनवरी को कैबिनेट ने अपनी बैठक में राष्ट्रपति शासन की अनुशंसा की थी। 26 जनवरी के दिन राष्ट्रपति शासन लगाने का फैसला तारीख के कारण भी खटकना चाहिए था, मगर किसी को खटका नहीं। उत्तराखंड की तरह अरुणाचल प्रदेश को लेकर कोई खास हंगामा नहीं हुआ। शायद इसलिए भी कि मीडिया भी राष्ट्रपति शासन लगने के 100 से अधिक उदाहरणों के कारण सामान्य हो चुका होगा। इस कारण हो सकता है कि 27 जनवरी के अखबारों में अरुणाचल में राष्ट्रपति शासन लगने की सुर्खियां बहुत बड़ी नहीं थीं। पहले पन्ने पर थीं मगर सामान्य खबरों की तरह। 27 जनवरी के दिन सुप्रीम कोर्ट में इस मामले को सुना जाना था मगर 26 तारीख को राष्ट्रपति ने कैबिनेट के प्रस्ताव पर साइन कर दिया। विपक्ष ने इसे लोकतंत्र की हत्या कहा था।

सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होती रही मगर अरुणाचल प्रदेश में सरकार भी बन गई। सात महीने बाद सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया है वह एक बार फिर से हमारे लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के दुस्साहसों पर सवाल उठाता है कि किस तरह पार्टियां और उनकी निष्ठा के नाम पर संस्थाओं के प्रमुख आज भी संविधान के साथ खिलवाड़ कर ले रहे हैं जबकि आज के समय को सत्तर अस्सी के दशक की तुलना में कहीं ज़्यादा जागरूक और चौकस कहा जाता है। सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान पीठ ने एकराय से फैसला देते हुए अरुणाचल प्रदेश में सात महीने पुरानी कांग्रेस सरकार को बहाल कर दिया है। वहां इस वक्त बीजेपी के समर्थन से सरकार चल रही है। फैसला देने वाले जजों के नाम हैं जस्टिस जेएस खेहर, जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस मदन बी लोकुर, जस्टिस पीसी घोष और जस्टिस एनवी रमन्ना।

उत्तराखंड मामले के वक्त नैनीताल हाईकोर्ट ने कहा था कि राष्ट्रपति या जज कोई राजा नहीं हैं कि उनके फैसले की समीक्षा नहीं हो सकती है। दूसरी बार राष्ट्रपति शासन लगाने का मोदी सरकार का फैसला अदालत में नहीं टिक सका है। सरकार को बताना चाहिए कि उसके इरादे ही गलत थे या उसके कानूनी सलाहकारों ने गलत इरादे से सुझाव दिए, या उनकी कानून की समझ कच्ची है। सवाल यह नहीं है कि वहां मौजूद सरकार के पास बहुमत है तो उसका क्या होगा। सवाल यह है कि उसका वजूद में आना वैध था या नहीं। अदालत ने कहा है कि मौजूदा सरकार अवैध है।

जिन बातों के लिए कांग्रेस की आलोचना होती थी उन्हीं बातों का बचाव अब बीजेपी कर रही है। इस मामले में दोनों इज़ इक्वल टू की होड़ में हैं। यानी एक जैसे होते जा रहे हैं। राष्ट्रपति शासन अक्सर अकादमिक चर्चा का विषय बनकर रह जाता है। ऐसे मामलों में किसी की नैतिकता या जवाबदेही फिक्स नहीं है। इसी इज़ इक्वल टू के कारण। विधायकों की क्या नैतिकता है। आपने हाल ही में राज्यसभा के चुनाव में देखी, बस भर भरकर विधायक खुलेआम फाइव स्टार होटल में ठहराए जा रहे हैं। कहीं कोई सवाल नहीं है। यह हमारे राजनीतिक दलों की नैतिकता है और यह है आप मतदाताओं की जागरूकता का स्तर। अगर अदालत की चौकस निगाह न होती तो सोचिए कि राजनीतिक दल लोकतंत्र का जाप रटते-रटते कैसे इसका गला घोंट देते। अनजाने में ही सही बीजेपी पर निशाना साधते हुए कपिल सिब्बल ने ठीक ही कहा है कि सिर्फ न्यायपालिका संविधान के मूल्यों की रक्षा कर सकती है। सिर्फ न्यायपालिका। राजनीतिक दलों का जो रिकार्ड है उसके हिसाब से संविधान की रक्षा सिर्फ न्यायपालिका कर सकती है। केंद्र में पहली बार बनी गैर कांग्रेसी जनता सरकार ने 9 कांग्रेसी सरकारों को बर्खास्त किया था।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि वह घड़ी की सुई पीछे कर सकती है। अरुणाचल प्रदेश के मौजूदा विधानसभा के फैसले रद्द कर दिए गए हैं लेकिन सात महीने से जो सरकार अवैध रूप से चली रही है क्या उसे कोई सज़ा नहीं दी जाएगी। क्या इतना आसान है कि कोई नेता अवैध रूप से मुख्यमंत्री बन जाए, राज्य के खजाने से खर्च कर दे और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद इस्तीफा देकर घर चला जाए। क्या कानून की नज़र में अवैध सरकार का मुख्यमंत्री अपराधी नहीं होना चाहिए। क्या अवैध सरकार के मुख्यमंत्री या मंत्री को पद से हटने के बाद तमाम सुविधाएं मिलती रहेंगी। क्या पूर्व मुख्यमंत्री के रूप में मिलने वाली तमाम सुविधाएं रद्द नहीं होनी चाहिए। जस्टिस खेहर ने फैसले में कहा कि जब राजनीतिक प्रक्रियाओं की हत्या हो रही हो तो कोर्ट मूक दर्शक बना नहीं रह सकता।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि राज्यपाल जेपी राजखोवा ने 14 जनवरी 2016 की तय तारीख के बाद भी 16 दिसंबर 2015 को विधानसभा की बैठक बुलाकर असंवैधानिक काम किया था। अदालत ने राज्यपाल के उस संदेश को भी रद्द कर दिया जो उन्होंने 9 दिसंबर के रोज़ विधानसभा को भेजा था। कहा कि राज्यपाल विधानसभा का एजेंडा तय नहीं कर सकते हैं। इसलिए 9 दिसंबर के बाद विधानसभा के तमाम फैसले अवैध घोषित हो जाते हैं। 9 दिसंबर से पहले की विधानसभा बहाल की जाती है। यानी कांग्रेस सरकार वापस अपने वजूद में आती है।

आमतौर पर ऐसे मामलों में जिसकी हार होती है वह यही कहता है कि फैसले का सम्मान करते हैं मगर फैसला पढ़ने के बाद ही सही प्रतिक्रिया देंगे। अपील करेंगे। जो जीत जाते हैं, उन्हें अक्सर फैसले की कापी पढ़ने की ज़रूरत नहीं होती। तमाम तरह के कानूनी सलाहकारों से लैस केंद्र सरकार दो दो बार राष्ट्रपति शासन के मामले में सुप्रीम कोर्ट में हार जाए, अपना बचाव न कर पाए, आप  उस फैसले में क्या पढ़ना चाहते हैं। यह फैसला राज्यपालों की भूमिका को फिर से रेखांकित करता है। हर बार करता है मगर कई बार राज्यपाल संवैधानिक मर्यादाओं की धज्जियां उड़ा देते हैं और अपने पद पर आराम से बने रहते हैं। राजभवन का सुख भोगते रहते हैं। अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल ने विधानसभा की बैठक तय तारीख से एक महीना पहले बुला ली थी। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि क्या इसका मतलब है कि जब भी राज्यपाल बोर हो जाए तो वह उत्साह महसूस करने के लिए विधानसभा का सत्र बुला सकता है। क्या राज्यपाल का फैसला ठोस संवैधानिक सिद्धांतों पर आधारित था या फिर उनकी सनक पर...आप संवैधानिक विवेकाधिकार का इस्तेमाल तभी कर सकते हैं जब वे किसी संवैधानिक सिद्धांत पर आधारित हों। यहां क्या संवैधानिक सिद्धांत था... क्या विधानसभा के सत्र को जल्द बुलाना आपकी विवेकाधीन शक्तियों में आता है।

बीजेपी फैसले को विचित्र बता रही है, अरुणाचल के मुख्यमंत्री कहते हैं कि उनकी सरकार बनी रहेगी, खबरें हैं कि केंद्र कोर्ट से फिर अपील करेगा। सवाल है कि इस फैसले की नैतिक जवाबदारी कहां जाकर रुकती है। किसके पास जाकर रुकती है। प्रधानमंत्री के पास रुकती है तो राष्ट्रपति की भूमिका पर सवाल क्यों नहीं हो रहे हैं। दो-दो बार उनकी मंज़ूरी रद्द हुई है। कोर्ट ने कहा है कि राज्यपाल को राजनीतिक दलों के झगड़े से दूर रहना चाहिए। हाल ही में यूपी के राज्यपाल ने मथुरा, कैराना और दादरी पर केंद्र को रिपोर्ट भेजी है। दिल्ली के उपराज्यपाल की भूमिका को लेकर भी राजनीतिक विवाद चलता रहता है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला इन संदर्भों में भी देखा जा सकता है। कोर्ट ने कहा है कि राष्ट्रपति को भेजे नोटिस, हर मीहने भेजे जाने वाली सूचनाएं इस आधार पर सही ठहराई जा सकती थीं कि राष्ट्रपति को राज्य की राजनीतिक स्थिति की जानकारी दी जा रही है। लेकिन यह राज्यपाल के अधिकार से बाहर है कि वह अपनी संवैधानिक स्थिति का इस्तेमाल करते हुए इन राजनीतिक विवादों को सुलझाने की कोशिश करे।

इस मामले में राज्यपाल ने कभी नहीं कहा कि मुख्यमंत्री नबम तुकी ने सदन का विश्वास खो दिया है। न ही यह बताया कि कांग्रेस ने विधानसभा में बहुमत खो दिया है। अगर ऐसा होता तो राज्यपाल सदन के पटल पर बहुमत हासिल करने के आदेश दे सकते थे। मगर राज्यपाल ने खुद ही बताया है कि उन्होंने कभी विश्वास मत परीक्षण के लिए नहीं कहा।

सुप्रीम कोर्ट ने सवाल पूछा है कि क्या हमारे देश में कानून का शासन राज्यपाल को संवैधानिक सिद्धांतों और अरुणाचल विधानसभा के कामकाज के नियमों को हवा में उड़ाने की इजाज़त देता है। 331 पन्नों के इस फैसले की हर लाइन पढ़ने लायक है। वैसे उत्तराखंड मामले में भी राज्यपाल की भूमिका पर कम टिप्पणी नहीं हुई थी मगर राज्यपाल का कुछ नहीं हुआ। दोनों ही मामलों में राज्यपाल बने रहे तो सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का नैतिक मतलब क्या रह जाता है। हमारे देश में रटाया जाता है कि संविधान ही हमारे लिए सर्वोच्च है मगर इसके उल्लंघन पर कोई सज़ा क्यों नहीं है। मामूली बयान देने और जेब काट लेने पर जेल की सज़ा होती है, संविधान के उल्लंघन की न तो नैतिक ज़िम्मेदारी न कानूनी सज़ा। 100 से अधिक बार राष्ट्रपति शासन लगा है। ज़्यादातर मामले में संविधान का उल्लंघन हुआ है फिर भी कोई राजनीतिक दल संविधान के उल्लंघन की किसी सज़ा की मांग नहीं करता। क्या इसलिए कि वे जानते हैं... संविधान से खेंलेगे नहीं तो राज कैसे करेंगे। यह है संविधान से चलने वाले भारत देश में संविधान के उल्लंघन की संवैधानिक स्थिति।

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