1994 में सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की बेंच ने एस आर बोम्मई केस में फैसला दिया कि अतिविशिष्ट परिस्थिति में ही राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल होना चाहिए। केंद्र सरकार के राजनीतिक हित के लिए कभी नहीं होना चाहिए। इसके बाद भी एस आर बोम्मई फैसले की भावनाओं और तय प्रक्रियाओं के आधार पर आज तक कोई फैसला नहीं दिखता है। न्यायपालिका के इतिहास में शायद यह पहला मौका है जब उत्तराखंड हाईकोर्ट ने राष्ट्रपति शासन को हटा दिया है। उत्तराखंड हाईकोर्ट ने महीने भर से कम समय में यह साहसिक और ऐतिहासिक फैसला किया है। न्यायपालिका के इतिहास में उत्तराखंड हाईकोर्ट का आदेश आने वाले समय में तमाम फैसलों का बुनियाद बनेगा और विरोधी दलों की राज्य सरकारों में राजनीतिक और संवैधानिक आत्मविश्वास पैदा करेगा। यह पहला मौका है जब पुरानी सरकार के रहते हुए राष्ट्रपति शासन हटाने का फैसला आया है।
आम तौर पर दूसरी सरकार बनने के बाद राष्ट्रपति शासन के मामले में फैसले आते रहे हैं। कर्नाटक के एस आर बोम्मई मामले में भी नई सरकार बनने के बाद फ़ैसला आया था। 1989 में केंद्र की कांग्रेस सरकार ने कर्नाटक के एस आर बोम्मई की सरकार बर्खास्त कर दी थी। उन्हें विधानसभा में बहुमत साबित करने का मौका नहीं दिया था। बोम्मई साहब हाईकोर्ट में केस हार गए और फिर सुप्रीम कोर्ट गए। सुप्रीम कोर्ट में भी कई साल की सुनवाई के बाद फैसला आया तब तक उनकी सरकार जा चुकी थी। इसीलिए उत्तराखंड हाईकोर्ट का फैसला नज़ीर बनेगा क्योंकि उसी सरकार के रहते फैसला आया है। पहली बार एस आर बोम्मई केस के फैसले को दांत मिली है। आम तौर पर इसका ज़िक्र अकादमिक चर्चाओं में ही होता था, लेकिन पहली बार यह हाईकोर्ट में फैसला आया है और पुरानी सरकार को बहुमत साबित करने का मौका मिला है। इस साल तो 26 जनवरी के दिन अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया, जिसे कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। इस मामले की संविधान पीठ में सुनवाई चलती रही और उधर अरुणाचल में सरकार बनाने की कोशिशें। अरुणाचल में नई सरकार बन चुकी है। यहां सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई पूरी हो चुकी है लेकिन फैसला आना बाकी है। उत्तराखंड हाईकोर्ट का फैसला इसीलिए साहसिक माना जाएगा।
अक्टूबर, 2005 में बिहार में राष्ट्रपति शासन लगने के मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच-सदस्यीय बेंच ने कहा था कि बिहार विधानसभा को भंग करने का राष्ट्रपति का आदेश असंवैधानिक था। जब तक यह फैसला आया तब तक चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। इस कारण सुप्रीम कोर्ट ने दखल देने से इंकार कर दिया था। तब नीतीश कुमार ने कहा था कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इस्तीफा देना चाहिए और बिहार के राज्यपाल बूटा सिंह को वापस बुलाया जाना चाहिए। नीतीश कुमार ने कहा था कि हम इस फैसले को जनता के बीच ले जायेंगे और उससे इंसाफ मांगेंगे। पीटीआई के अनुसार 7 अक्तूबर 2005 को अरुण जेटली ने पत्रकारों से बात करते हुए कहा था कि अदालत ने केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ बेहद सख़्त टिप्पणी की है। यही नहीं जब अंबेडकर जयंती से पहले 26 नवंबर को संविधान दिवस मनाने का फैसला हुआ तो संसद के दोनों सदनों में उनके योगदान पर गंभीर चर्चा हुई। इस चर्चा में भाग लेते हुए 27 नवंबर को 2015 को राज्य सभा में वित्त मंत्री जेटली ने सदन को आश्वस्त किया था कि राज्यों में अनुच्छेद 356 के बेज़ा इस्तेमाल की आशंकाएं समाप्त हो चुकी हैं। इस आश्वासन के ठीक तीन महीने बाद वही अरुण जेटली उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने को लेकर ब्लॉग लिखते हैं तो उसकी पहली लाइन ये है, संविधान की धारा 356 तब लागू की जाती है जब राष्ट्रपति इस बात से संतुष्ठ हो जाएं कि किसी राज्य में संविधान के अनुसार शासन नहीं किया जा सकता और यह विश्वास करने के पर्याप्त आधार हैं।
ज़ाहिर है राष्ट्रपति की संतुष्टि को आधार बनाने की बात पहली पंक्ति में इसलिए आई होगी क्योंकि जेटली को यह सबसे मज़बूत पक्ष लगा होगा, यही तर्क केंद्र सरकार के वकील ने भी हाईकोर्ट में दिया लेकिन उत्तराखंड हाईकोर्ट ने राष्ट्रपति पर भी जो टिप्पणी की है वो न्यायपालिका के इतिहास में आदरपूर्वक साहसिक मानी जाएगी। हाईकोर्ट ने कहा कि लोग ग़लत फ़ैसले ले सकते हैं चाहे वे राष्ट्रपति हों या जज। ये कोई राजा का फ़ैसला नहीं है जिसकी न्यायिक समीक्षा नही हो सकती है।
केंद्र के पैरोकार कहते रहे कि राष्ट्रपति ने तमाम दस्तावेज़ों के आधार पर अपनी राजनीतिक समझदारी से फैसला लिया है। हाईकोर्ट ने कहा कि राष्ट्रपति का फैसला किसी राजा का फैसला नहीं है जिसकी समीक्षा नहीं हो सकती है। उत्तराखंड हाईकोर्ट के चीफ़ जस्टिस के एम जोसफ़ और जस्टिस वीके बिष्ट की बेंच ने पहले अपना फ़ैसला रिज़र्व रखने का निर्णय लिया था लेकिन जब केंद्र सरकार के वकील ये आश्वासन देने को तैयार नहीं हुए कि फ़ैसले से पहले राष्ट्रपति शासन हटाकर नई सरकार बनाने की कोशिशें नहीं होंगी, तो उन्होंने अपना फ़ैसला सुनाया। दरअसल चीफ़ जस्टिस केएम जोसेफ़ और जस्टिस वीके बिष्ट की बेंच ने फ़ैसले से पहले कहा कि वो केंद्र सरकार की कार्रवाई से आहत हैं। चीफ़ जस्टिस ने कहा कि उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन के मामले में केंद्र सरकार को निष्पक्ष होना चाहिए लेकिन वो प्राइवेट पार्टी जैसा व्यवहार कर रही है। हम आहत हैं कि केंद्र सरकार ऐसा व्यवहार कर रही है। आप कोर्ट के साथ ऐसा खेल खेलने की कैसे सोच सकते हैं। चीफ़ जस्टिस ने ये भी कहा कि अगर केंद्र सरकार राष्ट्रपति शासन ख़त्म कर सरकार बनाने की कोशिश करती है तो ये न्याय का उपहास होगा।
दिल्ली में बैठी कांग्रेस की सरकार ने कर्नाटक के एस आर बोम्मई की सरकार बर्खास्त की थी। एस आर बोम्मई अगर सुप्रीम कोर्ट न गए होते तो आज यह फैसला कांग्रेस के काम नहीं आता। ये इतिहास का ख़ूबसूरत न्याय है। उत्तराखंड में डांस करते कांग्रेस के कार्यकर्ता जब थक कर बैठेंगे तो सोचेंगे कि राजनीति में परंपराएं कायम करने की जवाबदेही भी दलों को निभानी पड़ती है। इसीलिए अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा है कि कांग्रेस को भारतीय लोकतंत्र और न्यायपालिका पर गर्व है। वाकई गर्व है या अतीत के गुनाहों को लेकर अफसोस भी। भारत में अब तक 100 से भी ज्यादा बार राष्ट्रपति शासन लग चुका है। हर बार की परिस्थितियां अलग रही हैं मगर ज्यादातार बार इसका राजनीतिक दुरुपयोग ऐसा हुआ है कि सबसे पहले शक ही होता है। कांग्रेस ने कहा है वो राज्य सभा में इस पर बहस की मांग करेगी।
बीजेपी ने कहा है कि उसे झटका नहीं लगा है। गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने कहा है कि हमारे लिए शर्मिंदगी की बात नहीं है। उन्होंने कांग्रेस पर ही संवैधानिक संकट की ज़िम्मेदारी डाल दी। रिजिजु ने कहा है कि राष्ट्रपति शासन लगाना केंद्र सरकार की ग़लती नहीं थी। कैलाश विजयवर्गीय ने कहा कि पिछले तीन दिन से हाईकोर्ट के बेंच की जो टिप्पणियां आ रही थीं हमें इसी तरह के फैसले की उम्मीद थी।
29 अप्रैल को बहुमत परीक्षण के दौरान साबित हो जाएगा कि क्या हरीश रावत की सरकार अल्पमत में है? जिन 9 विधायकों ने पाला बदला था उनके बारे में फैसला नहीं आया है। 23 अप्रैल को इसकी सुनवाई होगी। 29 अप्रैल को हरीश रावत को बहुमत साबित करना है। अगर 9 विधायकों की सदस्यता बहाल हो गई तो रावत के लिए मुश्किल हो सकती है। सवाल है कि हाईकोर्ट के इस फैसले के बाद क्या अब भी बीजेपी कह सकती है कि राष्ट्रपति शासन लागू करना ग़लती नहीं थी। उत्तराखंड में दो बार इस मामले में फैसला आया है।
1993 में पाकिस्तान में नवाज़ शरीफ़ को वहां की सुप्रीम कोर्ट ने फिर से बहाल कर दिया था। जिसे राष्ट्रपति ग़ुलाम इसहाक़ख़ान ने बर्ख़ास्त कर दिया था। दोनों मुल्कों में वो पहली सरकार थी जो राष्ट्रपति के द्वारा बर्ख़ास्तगी के बाद बहाल हुई थी। फ़ैसले के बाद नवाज़ शरीफ के एक मंत्री ने कहा था कि न ख़ुदा ही मिला न विसाले सनम, न इधर के रहे न उधर के रहे। 1994 के एस आर बोम्मई फैसले में नवाज़ शरीफ सरकार की बहाली का भी उदाहरण दिया गया है। राष्ट्रपति के आर नारायणन ने राष्ट्रपति शासन लगाने की केंद्रीय मंत्रिमंडल की सिफ़ारिश दो बार बार लौटा दी लेकिन तब की केंद्र सरकार ने दोबारा प्रस्ताव राष्ट्रपति के पास नहीं भेजा था। क्या राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को ऐसा करना चाहिए था। 80 के दशक में सुप्रीम कोर्ट ने पी एम कुमार बनाम दिल्ली नगरनिगम के मामले में कहा था कि हमारे हाईकोर्ट वाकई हाईकोर्ट हैं। यानी हमारी हाईकोर्ट बहुत अच्छी है। क्या आज उत्तराखंड ने इसे दोहरा कर साबित किया है।
This Article is From Apr 21, 2016
प्राइम टाइम इंट्रो : उत्तराखंड हाईकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:अप्रैल 21, 2016 21:21 pm IST
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Published On अप्रैल 21, 2016 21:21 pm IST
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Last Updated On अप्रैल 21, 2016 21:21 pm IST
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