यह सबसे मुफ़ीद वक्त है शोध करने का कि हम हिन्दुस्तानी अपने घरों में किन किन प्रकार से नोट बचा कर रखते हैं. घरों में पैसे बचाने के तमाम ठिकाने की दिलचस्प किस्सा सामने आएगा. घरों में पैसा बचाने की यह कुशलता सैकड़ों साल पुरानी है. ठीक है कि बैंक, क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड, मोबाइल बैकिंग हमारे समय के नए तरीके हैं लेकिन हमारे इसी समय में अपने अंटी में नोट दबाकर रखने की प्रथा बदस्तूर चल रही है. यह गुप्त धन परिवारों की आखिरी सांस है. आप भी फोन कर अपनी नानी दादी से पता कीजिए कि वो क्यों इस तरह से पैसे बचाकर रखती हैं. बचाकर यानी छिपाकर. अगर हिन्दुस्तान की करोड़ों औरतों के बचाए इन पैसों को आयकर विभाग के निरस और डरावने कानून की नज़र से देखेंगे तो अपने समाज को समझने में ग़लती कर सकते हैं. कुछ मामलों को छोड़, औरतों का यह पैसा काला धन या चोरी का नहीं होता है. यह पैसा औरतों की दशकों की आर्थिक समझ, आर्थिक सब्र का फल है. होता कम है लेकिन आप प्लीज़ इसे चोरी का पैसा न कहें. हमें आम औरतों के बचाये पैसे को, काला धन स्टॉक रखने वालों के साथ मिक्स नहीं करना चाहिए.
औरतें ये पैसा अपने लिए नहीं बचाती हैं न ही अपने ऊपर खर्च करती हैं. अपनी तमाम इच्छाओं को मार कर बचत की निरंतर साधना में लगी रहती हैं. यह पैसा औरतों की आर्थिक स्वतंत्रता का संबल होता है. इसकी खूबी यह होती है कि यह किसी की नज़र में नहीं होता मगर सबको जोड़ता चलता है. इन पैसों के ज़रिये विवाहित औरतें अपने मायके के रिश्ते को सींचती रहती हैं. कभी भाई को कुछ दे दिया कभी माई को कुछ दे दिया. इस पैसे को जब आप बैंक में रख देंगे तो हो सकता है वो अपने मायके से थोड़ी दूर हो जाएं. बैंक में रखे पैसे को पति और बच्चों से छिपाना मुश्किल है. परेशानी इस बात की नहीं है कि सरकार जान जाएगी, परेशानी इस बात से है कि समाज जान जाएगा. इंडियन एक्सप्रेस में ही एक किस्सा छपा है कि चाय वाले की पत्नी ने पांच सौ के दो नोट रजाई की परतों में छिपा कर रखे थे. हो सकता है यह उसके बुढ़ापे का सहारा हो. आसरा हो कि कुछ होगा तो यह पैसा काम आ सकता है. औरतों का यह पैसा मात्रा में कम होता है मगर बैंक में रखे पैसे से ज़्यादा सहारा देता है. जब यह पैसा बैंकों में जाएगा तो अर्थव्यवस्था को नया सहारा तो मिलेगा लेकिन औरत विरोधी इस समाज में आंचल के कोने में छिपी उनकी आज़ादी का छोटा सा ज़रिया भी लेता जाएगा.
इस नज़र से देखेंगे तो औरतों के पास जमा लाख दो लाख या पांच सौ हज़ार के नोट का मनोविज्ञान समझ पाएंगे. सदियों पुराना एक सिस्टम जा रहा है उसके बारे में बात तो कर ही सकते हैं. इस छोटे से पैसे के बैंक में पहुंचने से औरतों की सामाजिक स्थिति पर क्या असर पड़ेगा, मेरी नज़र में यह इतना बड़ा मसला है कि तमाम विश्वविद्यालयों के रिसर्चरों को सारा काम छोड़ कर इस पर लग जाना चाहिए. क्यों अमीर से लेकर ग़रीब औरतों ने बचत के इस गुप्त तरीके को अपनाया है. क्यों कई औरतें इस फैसले से आतंकित हैं. स्त्री धन उनकी आर्थिक स्वतंत्रता की छोटी सी खिड़की है जिसे वो अपनी मर्ज़ी से खोलती हैं, अपनी मर्जी से बंद कर देती हैं. क्या ये सुरक्षा बैंक और सरकार दे सकती है. गुप्त धन उन औरतों के पास भी होता है जिनके पास बैंक के खाते होते हैं. यह होता है तो होता है. जैसे बच्चों का गुल्लक होता है. बैंक से पहले से है और जब बैंक डूब जायेंगे तब भी रहेगा. स्त्री धन नहीं डूबता, वॉल स्ट्रीट पर बड़े बड़े बैंक कंगाल हो जाते हैं. हमने कई सहयोंगियों की मदद से पता किया कि उनके घरों में ऐसे पैसे को क्या कहते हैं जिसे औरतों सबसे बचाकर रखती हैं.
हमारे गांव की तरफ तो औरतें इस गुप्त धन को कोसिला कहती हैं. भोजपुरी में ऐसे कहती हैं कि ज़रूर कोसिला में धईले होईंहें. मतलब गुप्त पैसा होगा ही उनके पास. कहीं कहीं चोरउका, चोरउधा या चोरिता पैसा भी कहा जाता है. बेगुसराय में गांठ बोलते हैं. बिहार के मगध प्रांत यानी गया, नवादा, जहानाबाद और औरंगाबाद में इसे नेहाली कहते हैं. लोग अपनी मां से पूछते हैं कि मां नेहाली में कितना रखी हो. नेहाली रजाई को भी कहते हैं. समस्तीपुर में इसे खूंट का पैसा कहते हैं. वैशाली में औरतों का गुप्त धन अचरा कहलाता है और मर्दों का फाड़ा. यूपी के सिद्धार्थनगर में कहीं अचरा बोलते हैं तो कहीं फुंफी. बहराईच और गोरखपुर में कहीं कहीं कोलउध का पैसा कहते हैं. पोटली का भी पैसा कहते हैं. उत्तराखंड के कुमाऊं में लुकई डबल कहते हैं. डबल मतलब पैसा. हरियाणा में ऐसे पैसे को कहते हैं कि अड़ी अड़ास में काम आएगा. मतलब मुसीबत में काम आएगा. हरियाणा में धरोड़ और गुप्ती कहते हैं. बुंदेलखंड में कुठिया का धन कहते हैं. आज़मगढ़ में कोलवारी कहते हैं.
करोड़ों परिवारों में औरतें इस फैसले से अपने आंगन में संदिग्ध हो गईं हैं. सब हैरानी से देख रहे हैं कि इतना पैसा है. वो रात रात जाग रही हैं कि कैसे पति को बतायें. ससुर को बताये या पिता को बताएं. वे अपने ही घर में निहत्था हो गईं हैं. वो इस भय से कांप रही हैं कि घर में सबको पता चल जाएगा. हो सकता है कि वे सरकार के फैसले के साथ हैं लेकिन उनके मन के किसी कोने में सदियों से चली आ रही आज़ादी की यह नेमत खो जाने का डर भी बैठा हुआ है. मैं ख़ुद इस फैसले के जश्न में शामिल हूं लेकिन औरतों के इस भय को समझने में कोई बुराई नहीं है. वैसे भी अब तो जो जा रहा है, उसे रोका नहीं जा सकता लेकिन जो जा रहा है उसे देखा तो जा सकता है कि जाते जाते कैसे सता रहा है.
हमारे एक सहयोगी ने घर पर काम करने वाली का एक वीडियो रिकॉर्ड किया जिसमें उन्होंने कहा कि पांच पांच सौ रुपये के नोट से उन्होंने पांच हज़ार रुपये जमा किये हैं पोती की शादी के. जब हमारे सहयोगी ने कहा कि इसे टीवी पर दिखा सकते हैं तो उसने हाथ जोड़ लिया कि पति को पता चल जाएगा. पति ही नहीं बच्चों से भी पैसा बचा कर रखती हैं. हो सकता है कि बैंकों से जुड़ने से वो संबल के नए तरीके की आदी हो जाएं लेकिन इतनी पुरानी परंपरा जा रही है, कुछ तो घबराहट होगी ही. पोती की शादी का पैसा गुप्त रखने की ज़िद उस दादी ने क्यों पाली थी इसे आयकर अधिकारी कभी नहीं समझ सकता है न ही किसी वित्त मंत्री के बस की बात है. इसलिए दूरदराज़ के गांवों और कस्बों की औरतों से बात कीजिए कि यह सबके हित में है. डरने की बात नहीं है.
स्त्री धन कहलाता भले धन है मगर होता बहुत कम है. परिवारों में सामाजिक सुरक्षा का यह आख़िरी और गुप्त किला होता है. सरकार ने भी कहा है कि ढाई लाख तक की राशि औरतें आराम से बैंक ला सकती हैं. खाते में जमा करा सकती हैं. उनसे कोई पूछताछ नहीं होगी. सवाल पूछताछ का नहीं है. सवाल है पता चल जाने का. जिन पैसों को सदियों से हमारी औरतों ने पता नहीं चलने दिया वो राज़ जब घरों में खुलेगा तो उनकी स्थिति क्या होगी. क्या पता छोटी सी आज़ादी जाने के बदले कोई बड़ी आज़ादी उनका इंतज़ार कर रही हो. काला धन जाने के जश्न में मैं अखबारों को पलटता रहा, सहयोगियों के वीडियो फुटेज देखता रहा कि किसी तस्वीर में वो लोग तो दिखेंगे जिनकी हम कल्पना करते हैं कि उनके यहां बोरियों में पैसा भरा होता है. वो दहाड़ मारकर रो रहे होंगे. बैंकों की लाइन लगी तो खुद गया देखने मगर वहां जो लोग लाइन में थे ऐसी हालत के नहीं लगे कि इनके घरों में बोरी की बोरी नोट रखे थे.
क्या ऐसे लोगों ने अपने पैसों को ठिकाने लगा दिया है या इत्मिनान हैं कि जुगाड़ कर लेंगे. बोरी में न सही बैग में पैसा बच ही जाएगा. कुछ ने कहा कि ये ऊपर ऊपर हंस तो रहे हैं मगर अंदर अंदर रो रहे हैं. अगर ऐसे लोगों में से किसी को बाहर बाहर रोने का इरादा हो तो मुझसे संपर्क कर सकते हैं. मीडिया इनके सन्नाटे को दर्ज नहीं कर पा रहा है. अगर 500, 1000 के नोटों को बोरियों और बिस्तरों में दबाकर रखने वाले लोग बहुत गुस्से में हैं तो प्लीज़ टीवी पर आकर अपने मन की बात कहें. कहें कि मार पड़ी है और किशोर कुमार का वो गाना गायें कि पता है तुम्हें क्या, कहां दर्द है, यहां हाथ रखना, यहां दर्द है. ग़म का फ़साना बन गया अच्छा. पत्रकार ने आकर मेरा हाल तो पूछा. फिलहाल सड़कों पर जो दिख रहे हैं वो लगते नहीं हैं कि बोरियों वाले हैं. कहीं ये लोग सोने चांदी की दुकानों की तरफ तो नहीं चले गए. आप भी अपनी छोटी मोटी परेशानी छोड़ ऐसे लोग रोते मिलें तो हमें ज़रूर बतायें. हम बेकार में बैंक बैंक किये जा रहे हैं वो अपने कमरे में हंसे हंसते लोट पोट हो रहे होंगे. ऐसा नहीं होना चाहिए.
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि 500, 1000 के नोटों पर लगे इस बैन से अगर चुनाव के ख़र्च कम होते हैं तो अच्छी बात है. मैं तो राजनीति की इस सादगी की कल्पना में मारे खुशी के रोए जा रहा हूं. पंजाब और यूपी चुनावों को पैसे की निगाह से देखियेगा. अगर काला धन समाप्त हो गया है तो भारतीय इतिहास का सबसे सादा और आदर्श चुनाव होगा. आपके पैसे का हिसाब पूछा जा रहा है कि कहां से आया, लेकिन आपको पता तो होगा कि राजनीतिक दल आपको नहीं बताते हैं कि उन्हें कहां से पैसा आया. वे चुनाव आयोग को बताते हैं लेकिन आपको नहीं. सूचना का अधिकार उनके यहां लागू नहीं है. कोई पैन कार्ड या आधार कार्ड का सिस्टम नहीं है. मगर आपके चार हज़ार के बदले पैन नंबर मांगा जा रहा है. आधार कार्ड मांगा जा रहा है.
एक अनुमान के मुताबिक अगर किसी दल को 500 करोड़ रुपये चंदे के मिलते हैं तो उसका 80 फीसदी 20 हज़ार से कम का होता है जिसके दाताओं के नाम नहीं बताने के लिए उन्हें छूट मिली है. ये छूट उन्हें क्यों मिलनी चाहिए. ये सवाल अपने नेताओं से पूछियेगा. मुझे यकीन है बड़े बड़े नेता इस तरह के सवाल करने वालों के ज़बरिया फैन बन जाएंगे. पर मान लेते हैं कि राजनीति से काला धन चला गया तो इमिडियेट इंपैक्ट क्या होगा. हिन्दी में तात्कालिक असर क्या होगा. मान लीजिए कि राजनीति से भी काला धन चला गया तो क्या होगा. इतनी बसें लेकर यूपी में रैलियां हो रही हैं वो सब रुक जानी चाहिए. मुझे तो लगता है कि यूपी में बीजेपी, बसपा, कांग्रेस और सपा के चारों नेता एक ही कार में रैली करने जाएंगे. कार पूल करके यूपी का दौरा करेंगे. राजनीति में कार-पूल की प्रथा चल पड़ेगी. कारों का काफिला समाप्त हो जाएगा. आपके बगल से चार चार बड़े नेता गुज़र जाएंगे पता भी नहीं चलेगा. कार-पूल के साथ साथ रैली पूल की भी नई प्रथा लॉन्च हो सकती है. यानी एक जगह जनता जुटेगी और एक ही मंच पर चारों दलों के बड़े नेता भाषण देंगे. फिर सबको सुनकर जनता अपना मत दे देगी. हम चैनल वाले भी एक साथ इन्हें लाइव दिखा देंगे. पोस्टर भी सस्ते हो जाएंगे. एक ही पोस्टर में चारों नेता की तस्वीर होंगी और हाथ जोड़े वोट मांगते नज़र आएंगे. मेनिफेस्टों की कॉपी भी एक ही छपेगी. एक चैप्टर बीजेपी का, एक चैप्टर कांग्रेस का और एक चैप्टर बसपा औ एक चैप्टर सपा का होगा.
हेलिकॉप्टर वालों की दुकान बंद हो जाएगी. चुनाव के समय अपनी मार्केंटिग करने के लिए हेलिकॉप्टर वाले जनता को फ्री में घुमाएंगे. एक ही कार में चार चार नेता जब नीचे से ऊपर की तरफ देखेंगे तो पूर्व काला धन काल को याद करते हुए आहें भरेंगे. पोस्ट ब्लैक मनी एरा सादगी का काल माना जाएगा.
गुरुवार को बैंकों ने लोगों को पैसे देने शुरू कर दिये. लोग घंटों लाइन में लगे रहे, मैंने भी ऐसे कई लोगों से मुलाकात की. एक बात नज़र आई. ये लोग परेशान तो हैं मगर सरकार के फैसले से नाराज़ नहीं है. कहीं से भी बैंकों के बाहर हंगामे या मारपीट की खबरे नहीं आई तब भी जब कई जगहों पर काउंटर समय से पहले बंद हो गए. चार हज़ार की जगह दो हज़ार ही मिला. लोग धीरज के साथ लाइन में हैं. अपनी परेशानी ज़रूर बता रहे हैं लेकिन यह नहीं कह रहे हैं कि सरकार ने ग़लत कर दिया. एम्स में ओपीडी में अगर क्लिनिकल चार्ज 500 से कम होगा तो दो दिनों के लिए बिल माफ कर दिया गया है. दवा की दुकानों पर पांच सौ के नोट लिये जा रहे हैं. कई लोग कह रहे हैं कि दुकानदार 500 लेकर छुट्टे नहीं दे रहा है. अब इस बात को ऐसे समझिये. बाज़ार में जितनी करेंसी है उसका 86 फीसदी पांच सौ और हज़ार के नोट का है. तो ज़ाहिर है बाकी चौदह फीसदी में ही दस बीस पचास और सौ के नोट होंगे. 14 फीसदी नोट से 86 फीसदी की भरपाई नहीं हो सकती है. इसलिए दुकानदार आपके साथ बदमाशी नहीं कर रहे हैं. उनके पास छुट्टे की वाकई कमी होगी इसलिए नहीं दे रहे हैं. इस रिपोर्ट में हमने लोगों की तकलीफों को दर्ज किया है.