पूजा प्रसाद का ब्लॉग : आपको बदलाव चाहिए या बदला, बस यह तय कर लीजिए...

पूजा प्रसाद का ब्लॉग : आपको बदलाव चाहिए या बदला, बस यह तय कर लीजिए...

कुछ रास्ते लंबे होते हैं, लेकिन मंजिल सुनिश्चित करते हैं।

दिल्ली के कनॉट प्लेस में गुज़रते हुए मेरी सहेली की छाती पर धड़ाक से टकराए उस हाथ को सहेली ने चिल्लाते हुए पकड़ लिया, और एक ज़ोरदार थप्पड़ उस हाथ के 'चेहरे' पर जड़ दिया, और अगले ही पल दोनों के बीच हाथापाई शुरू हो गई। मैं दोनों हाथों में आइसक्रीम लिए उसकी ओर आ ही रही थी कि यह वाकया हो गया। चंद ही पलों में वह खुद को छुड़ाकर चंपत हो गया। तब तक आसपास के लोग हमारी ओर बढ़ चुके थे और 'क्या हुआ, क्या हुआ...', 'ओहहो...' जैसे शब्द सुनाई देने लगे थे। तभी भीड़ में से किसी की आवाज़ हमारे कानों में पड़ी - 'ऐसे घूमेंगी तो यह सब होगा ही...'

बस, इससे पहले कि वह आवाज़ वाला शख्स मुड़कर दूर चला जाता, मैंने उसकी बाजू पकड़कर उसे रोक लिया।

'क्या मतलब... आपकी इस बात का, आप कहना क्‍या चाहते हैं...?'

वह झुंझला गया, हिकारत से मेरी सहेली की ओर, और उसकी ड्रेस की ओर सरसरी नज़र डालते हुए बोला, 'और क्या... ऐसे घूम रही हैं, जैसे अमेरिका में हों...'

'अच्छा, तो अमेरिका में आप स्कर्ट पहने घूमती लड़की को नहीं छेड़ोगे, यहां छेड़ोगे...? मेरा जवाब सुने बिना ही वह तेजी से वहां से निकल लिया। इसके बाद आसपास मौजूद कुछ युवाओं को हमसे सहानुभूति ज़रूर हो आई और कुछ ने हमें 'छोड़ो यार...' कहकर हमें फिलहाल 'मूव ऑन...' करने के लिए कहा।

गौरतलब है, जिस शख्स ने सहेली पर हमला किया था, उसे तुरंत थप्पड़ पड़ा। जिस आदमी ने दो 'टेढ़े' शब्द हमारी ओर उछाले, उसे तुरंत हमने उसी की भाषा में ललकार भी लिया। लेकिन क्या इससे दोनों के ही भविष्य की करनियों पर फर्क पड़ा होगा...? क्या वह दूसरा आदमी महिलाओं के कपड़ों को लेकर अपनी सोच को 'खुलापन' दे पाया होगा...? वह पहला आदमी, जो भीड़भाड़ वाली जगह पर भी यह जुर्रत कर गया, अंधेरी-सुनसान गलियों में रात को नौकरी से लौट रही किसी लड़की के साथ क्या हरकत कर सकता है, यह सोचने के लिए ज़्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं...

आप तो यह सोचिए, ऐसे लोगों से निपटने के लिए इन्हें पीटना और जेल में ठूंस देना ज़्यादा ज़रूरी है (और एकमात्र उपाय है) या इनकी सोच का बदलना और सुधरना...? इसका दूरगामी और स्थायी उपाय क्या होगा...?

सज़ा बेहद ज़रूरी है, लेकिन उससे भी कहीं ज़्यादा ज़रूरी है रोकथाम। रोकथाम के तहत केवल वही डर नहीं आते, जो किसी अपराध को न होने देने के लिए क्रिएट किए जाते हैं, दरअसल, रोकथाम के उपायों में कानून के डर का होना उतना ज़रूरी नहीं, जितना शिक्षा के माध्यम से सेंसिटाइज़ेशन ज़रूरी है। लेकिन शिक्षा इतना 'मामूली टाइप' शब्द हो गया है कि इस पर अब कोई खास गौर-शौर करने का चलन ही नहीं रहा। शिक्षा के जरिये बदलाव एक सतत और स्थायी प्रक्रिया है। कानून, जो अपना काम फांसी पर चढ़ाकर भी नहीं कर सकता, वह काम शिक्षा (प्रशिक्षण आदि) से किया जा सकता है।

बात सिर्फ 'रेप कैपिटल' दिल्ली की नहीं, देशभर में सभी राज्य सरकारें मिलकर ऐसा कुछ क्यों नहीं करतीं कि सभी उम्र के पुरुषों को सेंसिटाइज़ किया जाए। स्कूलों में बाकायदा एक क्लास हो, जहां वीडियो-ग्राफिक्स आदि के जरिये लड़कों के भीतर महिलाओं, सड़क पर चलती लड़कियों और पड़ोस में रह रही बच्चियों के प्रति पॉज़िटिव सोच डेवलप करने के बीज बोए जाएं।

क्या हमें पुरुषों द्वारा अब तक सीखे और अब भी लगातार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सिखाए जा रहे 'ज्ञान' को Undo करने की वृहद स्तर पर पहल नहीं करनी चाहिए...? फांसी पर लटकाने, हाथ-पांव या कोई अन्य अंग काट देने, आजीवन जेल में सड़ाने जैसे तरीके कितने सफल हो रहे हैं, हम सब जानते ही हैं, तो क्यों न कुछ नए तरीके लागू किए जाएं।

जो कुछ सालोंसाल सीखा है, उसे मिटाया नहीं जा सकता, लेकिन ओवरराइट तो किया ही जा सकता है। हम निगेटिविटी को खत्म करने के लिए निगेटिव तरीके ही अपनाएंगे तो कहां से सफल होंगे... या कितनी दूर तक सफल होंगे...? एक नई 'लड़ाई' की जरूरत है, जो असल में लड़ाई की तरह नहीं, हल की तरह रोपी जाए। गैर-सरकारी और विविध सामाजिक संगठन इस दिशा में आगे आएं। केंद्र और राज्‍य सरकारें इस बाबत काम करें। इस तरह की क्लासों को स्कूलों, कॉलेजों और यहां तक कि ऑफिसों में भी अनिवार्य बना दिया जाए। ये बोरिंग न हों, बेहद हल्की-फुल्की और रुचिपूर्ण हों। दफ्तरों में यदा-कदा वर्कशॉप आयोजित करवाई जाएं। इनका ढांचा क्या होगा, इस पर काम किया जा सकता है। ज़रूरत है, सरकारी स्तर पर इच्छाशक्ति की।

साथ ही, मीडिया को इस बाबत गंभीर भूमिका निभानी चाहिए। किसी भी अपराध, चाहे वह ह्यूमन ट्रैफिकिंग से जुड़ा हो या छेड़छाड़ से, आतंकवाद से या लूटपाट से, प्रिवेंशन और बचाव के लिए ऐसे स्पेशल एपिसोड क्यों नहीं बनते, जिनमें अपराधियों से अधिक अपराधों पर फोकस हो। अपराध के पीछे के मनोविज्ञान को समझाया जाए, उस मनोविज्ञान और उसके विकास से कैसे निपटा जाए, कैसे उसे पहचाना जाए और फिर सुधारात्मक उपाय किए जाएं... हैरानी होती है कि महिलाओं के लिए सेल्फ-डिफेंस की ट्रेनिंग अनिवार्य करने में इतनी देर क्यों हो रही है।

अपने देश में सेक्स एजुकेशन को लेकर जितनी 'अस्‍पृश्‍यता' रहेगी, उतना ही मुश्किल होगा सेक्सुअल क्राइम को रोक पाना। बनाते रहिए कानून और गुनाहगारों को जीवनभर के लिए ऐसे कुचक्र में झोंके रहिए, जहां से वे कभी न निकल पाएं। लेकिन इससे आप भविष्य में होने वाले ऐसे अपराधों को रोक पाएंगे...? पीड़ित और पब्लिक के क्षोभ-दुख से उपजी अधीरता को दोषी को कठोरतम सजा देकर शांत तो किया जा सकता है, लेकिन सामाजिक बदलाव के लिए यह कोई रास्ता है ही नहीं। इस मंजिल तक ले जाने वाले जो रास्ते हैं, वे लंबे ज़रूर हैं, लेकिन बदलाव सुनिश्चित करते हैं। आपको बदलाव चाहिए या बदला, बस यह तय कर लीजिए, एक बार सभी पहलुओं पर गौर करने के बाद।

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