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This Article is From May 12, 2024

ओपन बुक सिस्टम या ओपन शूज सिस्टम, हमारी परीक्षाएं किस तरह होनीं चाहिए?

Amaresh Saurabh
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 12, 2024 19:41 pm IST
    • Published On मई 12, 2024 19:41 pm IST
    • Last Updated On मई 12, 2024 19:41 pm IST

परीक्षा की खबरें आए दिन सुर्खियों में रहती हैं. कभी सिस्टम में बदलाव, कभी नकल करने या नकल पर नकेल कसने के नए-नए तरीकों की बात. कभी बच्चों से कहा जाता है कि ओपन बुक सिस्टम आएगा. कभी एग्जामिनेशन हॉल में जाने से पहले जूते तक उतरवा लिए जाते हैं. बड़ा कन्फ्यूजन है... अब यह तय हो जाना चाहिए कि हमारी परीक्षाएं ऐसी हों कि सबको आराम हो. इस पर खुलकर बात होनी चाहिए.

ओपन बुक सिस्टम

हाल ही में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE) ने एक पायलट प्रोजेक्ट चलाने का ऐलान किया. कहा गया कि 9वीं से 12वीं तक के कुछ चुनिंदा विषयों की परीक्षा ओपन बुक सिस्टम से होगी. ट्रायल सफल रहा, तो अंतिम रूप से लागू करने पर विचार होगा. बच्चे किताबें खोलकर परीक्षा दे सकेंगे, बेरोकटोक... उन पर मानसिक दबाव कम होगा. दुनिया के कुछ देशों में ऐसा ही होता है.

पहली बात तो यह कि बोर्ड को ओपन बुक सिस्टम को नए सिरे से आजमाने की जरूरत क्यों पड़ रही है? आजमाए हुए को क्या आजमाना? दुनिया को छोड़िए, अपने ही यहां कुछ राज्यों में यह बरसों-बरस, अच्छी तरह आजमाया जा चुका है. सचमुच, कमाल का सिस्टम है. परीक्षा का तनाव कभी आने ही नहीं देता. परीक्षार्थी खुश, टीचर खुश, अभिभावक भी खुश. हां, कुछ समय बाद खुशी काफूर जरूर हो जाती है. वैसे भी कौन-सी खुशी जीवनभर टिकाऊ रहती है? बुद्ध कहकर गए हैं- संसार दु:खमय है.

ओपन बुक सिस्टम की शुरुआत किस स्टेट से हुई, बताना संभव नहीं. अगर यूपी को क्रेडिट दीजिए, तो बिहार वाले बुरा मान जाएंगे. एमपी को क्रेडिट दीजिए, तो राजस्थान वाले बुरा मान जाएंगे. कोई बैठे-बिठाए दूसरे को क्रेडिट क्यों दे? खैर, ये गुजरे जमाने की बात है. बाद में न जाने क्यों, इसे बैन कर दिया गया.

अब बोर्ड का कहना है कि ओपन बुक सिस्टम वाली परीक्षा में सवालों के चेहरे बदल जाएंगे. केवल फैक्ट पर नहीं, बल्कि बेसिक कॉन्सेप्ट पर सवाल होंगे. ये नहीं पूछेंगे कि दो और दो कितने होते हैं. पूछेंगे कि दो और दो हमेशा चार नहीं होते, साबित कीजिए. ये नहीं पूछेंगे कि रीढ़ की हड्डी के कितने भाग होते हैं, सबके नाम बताएं. पूछेंगे कि अगर इंसान में रीढ़ की हड्डी न हो, तो इससे क्या नफा-नुकसान हो सकते हैं?

मतलब यह कि परीक्षा में किताबें खुली रह जाएंगी. साथ ही बच्चों के चेहरे पर प्रश्नवाचक चिह्न बने रह जाएंगे. एक हद तक यह बच्चों को प्रैक्टिकल बनाने की कोशिश है. बच्चों का पढ़ाकू होना काफी नहीं है. उनका रीयल लाइफ, दुनियादारी से वाकिफ होना बहुत जरूरी है.

ओपन शूज सिस्टम

फिलहाल ओपन बुक सिस्टम से ठीक उलट, एक दूसरा सिस्टम चल रहा है. मेडिकल एंट्रेंस जैसे कुछ बड़े एग्जाम में यही लागू है. इसमें किताब ले जाना तो छोड़िए, जूते तक खुलवा लेते हैं. ईयर रिंग्स, घड़ी, टोपी, बिन पावर का चश्मा, यहां तक कि पूरी बांह वाले कपड़े भी अलाउड नहीं हैं. ताबीज ले जा नहीं सकते. प्रेम, वशीकरण, उच्चाटन, मनचाही नौकरी में 'गारंटीड कामयाबी' दिलाने वाले बाबा का धागा भी नहीं बांध सकते.

इतनी सख्ती के कुछ साइड इफेक्ट भी अक्सर देखने को मिलते हैं. क्रिया के बराबर, और कई बार तो इससे कई गुना ज्यादा विपरीत प्रतिक्रिया देखी जाती है. पेपर लीक, आधार मिसमैच, सॉल्वर गैंग, डॉन गिरोह जैसे टर्म इसी की उपज हैं. इनकी पकड़-धकड़ की खबरें अक्सर आती हैं.

समाज में कुछ ऐसे महारथी भी होते हैं, जो दूसरे की जगह खुद को परीक्षा में झोंक देते हैं. इन्हें धंधेबाज समझना गलत होगा. वास्तव में ये किसी संत से कम नहीं होते. गोस्वामीजी लिखते हैं- 'परहित सरिस धरम नहीं भाई.' दूसरों का हित साधने जैसा और कोई धर्म नहीं. कबीर बाबा कहते हैं- 'परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर.' सज्जन तो दूसरों का भला करने के लिए ही शरीर धारण करते हैं. चार दिन की जिंदगी है. सोचो, साथ क्या जाएगा?

बढ़िया सिस्टम कौन?

यह एक बड़ा सवाल है. यही तो आज तक तय नहीं हो पाया कि परीक्षा लेने का सबसे बढ़िया सिस्टम कौन-सा है. हर सिस्टम की अपनी खूबी-खामी है. ओपन बुक सिस्टम में बच्चे स्वावलंबी बनते हैं. अपना भार दूसरों पर नहीं डालते. इसमें पेपर लीक करने-कराने की जरूरत महसूस नहीं की जाती, धर-पकड़ नहीं होती, धंधेबाजी नहीं चलती. सही मायने में इससे समतामूलक समाज का आधार तैयार होता है. दूसरी ओर, ओपन शूज सिस्टम में अभिभावक पर लोड कम पड़ता है. महंगे जूते की जगह चप्पल से काम चल जाता है. फैशन या हीरोगिरी के दिखावे का खर्च साफ बच जाता है. अब किसे बेहतर कहें, किसे कमतर?

परीक्षा और गेसिंग

दोनों का रिश्ता बहुत पुराना है. पूरा सिलेबस क्यों पढ़ें? क्यों न पहले ही गेस कर लें कि क्या-क्या पूछा जा सकता है. यह ज्यादा मुश्किल काम नहीं है. यह तो ऐप पर अपनी क्रिकेट टीम चुनने से भी ज्यादा आसान काम है, पर इसकी अपनी सीमाएं हैं. आज की प्रतियोगी परीक्षाओं में गेसिंग का ज्यादा रोल नहीं होता, लेकिन ट्रेडिशनल परीक्षाओं में, यूनिवर्सिटी एग्जाम में यह आज भी कारगर है. परीक्षा के निकट आने पर, अंत समय में मूर्छा की हालत में यह संजीवनी बूटी जैसा असर करता है. इसे उदाहरण से समझिए.

जैसे, एक साल सवाल आया कि प्रथम विश्वयुद्ध के कारणों पर प्रकाश डालें. इसके अगले साल यही पूछा जाएगा कि प्रथम विश्वयुद्ध के परिणामों की चर्चा करें. पिछले साल के सवालों के पैटर्न देखकर कोई भी गेस कर सकता है. हां, कभी-कभी सवाल रिपीट होने या बाएं-दाएं होने पर गुगली हो जाती है. एकदम क्रिकेट की तरह! ये गुगली ही गेसिंग की सीमा तय करती है.

परीक्षा से परेशानी क्या है?

बहुत दिक्कत है, कहां तक गिनाया जाए. परीक्षा मुसीबत का ही दूसरा नाम है. परीक्षा का नाम सुनते ही नींद उड़ जाना, रात में एग्जामिनेशन हॉल के सपने आना कॉमन है. परीक्षा की घड़ी से ठीक पहले दिल का जोर-जोर से धड़कना, भय लगना सामान्य है. कठिन सवाल देखते ही नर्वस हो जाना, चक्कर जैसा महसूस करना कॉमन है. लेकिन किया क्या जाए? बस यूं समझ लीजिए कि एक आग का दरिया है, और डूबकर जाना है.

परीक्षा तो सबको देनी होती है. कहते हैं कि ऊपर वाला अपने भक्तों की भी परीक्षा लेता है. जितना बड़ा भक्त, उतनी कठिन परीक्षा. राजनीति में भी परीक्षा होती है. सालाना नहीं, हर पांच साल पर. इनके कामकाज का हिसाब, बही-खाते, पब्लिक सब चेक करती है. सेना भी मोर्चे पर ही परीक्षा देती है. छावनी में सुस्ताते हुए कोई सैनिक भयभीत नहीं होता, नर्वस नहीं होता. इसी में हर परीक्षा का मर्म छिपा है.

परीक्षा, जो मिसाल बन गई

लोग आज भी बच्चों को मोटिवेट करने के लिए पुरानी गाथा सुनाते हैं. गुरु द्रोण परीक्षा ले रहे थे. अर्जुन की बारी आई. पूछा- क्या दिख रहा है अर्जुन? अर्जुन बोले- गुरुजी, मुझे तो बस चिड़िया की आंख दिख रही है. 50 फीसदी मार्क्स तो एटीट्यूड पर ही मिल गए. बाकी मार्क्स चिड़िया की आंख भेदने पर.

लेकिन यह तब की बात है, जब न इंटरनेट था, न मोबाइल. आज के दौर में गुरुजी पूछते, तो जवाब कुछ और होता. कहते कि गुरुजी, पहले कॉल रिसीव कर लूं, बार-बार रिंग हो रहा है. या कि मैंने आपसे साइड से ट्यूशन-कोचिंग तो लिया नहीं, मुझे रिजल्ट मालूम है. या कि यहां तो मेरे पापा ने फंसा दिया गुरुजी, मेरा मन शुरू से क्रिकेट खेलने का था. अभिनव बिंद्रा कितनों को याद रह पाते हैं? मुझे तो कोहली या रोहित जैसा बनना है.

प्राचीन तक्षशिला विश्वविद्यालय में आयुर्वेद की परीक्षा चल रही थी, ढाई हजार साल पहले. गुरुजी शिष्यों से बोले- कोई ऐसी झाड़ी-पत्ती खोजकर लाओ, जो एकदम बेकार हो, जिससे कोई दवा न बनती हो. सारे छात्र मिशन में जुट गए. किसी ने पांच लाकर दिखाए, किसी ने सात. एक अकेला जीवक था, जो खूब ढूंढने के बाद भी कोई बेकार पौधा न ला सके. नतीजा- अपने बैच में एक मात्र जीवक ही पास हुए, बाकी सारे रोक लिए गए. यह भी परीक्षा लेने का एक सिस्टम था.

खैर, जब तक कोई नया पैमाना जगह न ले ले, तब तक बच्चे ओपन बुक सिस्टम या ओपन शूज सिस्टम के बीच अपना करियर सेट करते रहेंगे.

अमरेश सौरभ वरिष्ठ पत्रकार हैं... 'अमर उजाला', 'आज तक', 'क्विंट हिन्दी' और 'द लल्लनटॉप' में कार्यरत रहे हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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