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भारत के यूनेस्को घोषित पहले जैवमंडल में क्या क्या बदल रहा है

Rohini Nilekani
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 25, 2025 16:28 pm IST
    • Published On जुलाई 24, 2025 17:03 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 25, 2025 16:28 pm IST
भारत के यूनेस्को घोषित पहले जैवमंडल में क्या क्या बदल रहा है

ठीक 20 साल पहले, 2004 की गर्मियों में मैं फिर से प्यार में पड़ गई. पहले एक पेड़ से, फिर एक पहाड़ से और आखिरकार एक पूरे जैवमंडल से. तमिलनाडु के कूनूर में एक खोजपूर्ण यात्रा के दौरान, मैं और मेरे पति एक खूबसूरत औपनिवेशिक बंगले में पहुंचे, जिसके प्रवेश द्वार पर एक विशाल नीलगिरी यूकेलिप्टस का पेड़ था. उस पल तक, मैं इस प्रजाति को विदेशी, आक्रामक और पानी की प्यासी समझती थी. लेकिन इस विशालकाय पेड़ की चौड़ाई, इसकी रहस्यमय शाखाओं और संतुलित छतरी को देखकर उसके सारे नकारात्मक लेबल गायब हो गए. जल्द ही, नीलगिरि में हमारा दूसरा घर बन गया.और इस अद्भुत पारिस्थितिक क्षेत्र के संरक्षण का एक नया संकल्प भी.

नीलगिरि जैवमंडल भारत का यूनेस्को-घोषित पहला जैवमंडल है, जो तीन राज्यों-कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में 5,500 वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्र में फैला हुआ है. 2,637 मीटर की ऊंचाई तक आसमान छूते डोड्डाबेट्टा से लेकर मोयार घाटी की 260 मीटर गहराई तक. यह एक समृद्ध जैव विविधता को समेटे हुए है. यहां ऐसी स्थानिक वनस्पतियां और जीव पाए जाते हैं, जो दुनिया में और कहीं नहीं मिलते, जैसे इरुला जनजाति द्वारा उपयोग की जाने वाली औषधीय बेओलेपिस नर्वोसा पौधा, नीलगिरि चिलप्पन और तारों जैसी आंखों वाला स्टार-आइड बुश फ्रॉग.

अधिक इंसानी गतिविधि, नई चुनौतियां

हाल के वर्षों में, इस जैवमंडल में पहले से कहीं अधिक मानव गतिविधियां बढ़ी हैं. मुख्य रूप से औपनिवेशिक काल की चाय बागानों के लिए जाना जाने वाला यह क्षेत्र, अब कृषि और पर्यटन की समृद्ध अर्थव्यवस्था का केंद्र बन चुका है. हालांकि ये दोनों क्षेत्र बहुत जरूरी रोजगार लेकर आए हैं, लेकिन साथ ही नई चुनौतियां भी पैदा की हैं.पर्यटन स्थानीय समुदायों और राज्य की अपेक्षा से कम सतत साबित हो रहा है, जहां दिन भर के आगंतुक कचरे और यातायात जाम की समस्या बढ़ा रहे हैं. वहीं किसान भारी मात्रा में कीटनाशकों और उर्वरकों का उपयोग कर रहे हैं, जिससे कभी शुद्ध रहने वाले जल स्रोत प्रदूषित हो रहे हैं.

तेजी से आते जा रहे इन बदलावों के सामने, स्थानीय समुदायों ने अपने घर को बचाने के लिए खुद को संगठित किया है. जिले में कई सिविल सोसाइटी संगठनों ने स्थायित्व के लिए नवाचार किए हैं, जैसे 'स्वच्छ कूनूर'- एक सार्वजनिक-निजी भागीदारी जो ठोस कचरे के निपटान के लिए चक्रीय अर्थव्यवस्था बनाती है. और कीस्टोन फाउंडेशन जो जलवायु सहनशीलता के लिए आदिवासी और स्थानीय समुदायों को सशक्त बना रहा है.

राज्य सरकार और जिला प्रशासन भी नीलगिरि के लिए प्रगतिशील योजनाएं हैं, जिसमें ऊटी, कूनूर और कोटागिरी जैसे तीन हिल स्टेशन शामिल हैं, जो देश भर से पर्यटकों को आकर्षित करते हैं. उनकी योजना कार्बन न्यूट्रल बनने, प्लास्टिक कचरे को रोकने,नीलगिरि तहर जैसी स्थानिक प्रजातियों के संरक्षण की है, जो ऊंचे शोला घास के मैदानों में घूमती हैं. इसके साथ ही लैंटाना कैमारा और पाइन जैसी आक्रामक प्रजातियों को कम कर घाटियों में मूल शोला प्रजातियों को पुनर्स्थापित करने का लक्ष्य है.

इसके साथ ही, प्राचीन नीलगिरि की संस्कृति और इतिहास में रुचि बढ़ रही है. स्वदेशी टोडा समुदाय की बस्तियां, जो सदियों से नीलगिरि पर्वत में रहते आए हैं, पर्यटन मार्ग का एक अनिवार्य पड़ाव बन गए हैं. दुर्भाग्य से, आज केवल कुछ सौ लोग ही बचे हैं, जो अपने पूर्वजों के पारिस्थितिक ज्ञान से जुड़ी एक कमजोर कड़ी मात्र हैं.

संरक्षण में सफलता,राज्य को मिल रही मदद

संरक्षण प्रयासों की सफलता का एक माप नीलगिरि जैवमंडल में पनपने वाले जंगली जानवरों की बढ़ती संख्या है, जो मुदुमलाई और मुकुर्थी जैसे संरक्षित क्षेत्रों सहित देश का सबसे बड़ा वन विस्तार है. वन्यजीवों की बढ़ती संख्या ने उन्हें संरक्षित क्षेत्रों से बाहर तक फैलने के लिए प्रेरित किया है. आज वन्यजीव हर जगह हैं- ग्लोबल वार्मिंग द्वारा बनाए गए नए पारिस्थितिक आवासों में. पौधों और जानवरों ने हमारे बीच रहते हुए लगभग अज्ञात रहने में सफलतापूर्वक अनुकूलन कर लिया है. इसका सबसे अच्छा उदाहरण रहस्यमय तेंदुए का है, जिसने घरेलू कुत्तों के प्रति काफी रुचि विकसित कर ली है. आप चाय बागानों में भारतीय गौर, कचरे के ढेरों में जंगली सूअर और रात में बंगलों के आस-पास स्लॉथ भालू और तेंदुओं को घूमते देख सकते हैं. पिछले साल, एक काफी चतुर स्लॉथ भालू हमारे घर में घुस आया, पूरे घर में घूमा और निस्संदेह भोजन की कमी से निराश होकर पहली मंजिल की बालकनी से कूदकर चला गया. हम घर पर नहीं थे, लेकिन हमारे सीसीटीवी कैमरों ने पूरा साहसिक कारनामा रिकॉर्ड कर लिया. पड़ोसियों ने भी जंगली मुठभेड़ों का अनुभव किया है- साही और माउस डियर, हाथियों और तेंदुओं के साथ. हैरानी की बात यह है कि लोग इस विकास के साथ समायोजित हो गए प्रतीत होते हैं, हालांकि मानव-वन्यजीव संघर्ष अक्सर खबरों में आता रहता है.

यह एक उभरती वैश्विक संस्कृति का हिस्सा है जहां अरबों लोग प्रकृति प्रेमी बन रहे हैं. वे आश्चर्य को फिर से खोज रहे हैं. नागरिक विज्ञान अब एक आंदोलन बन गया है. प्रौद्योगिकी के लोकतंत्रीकरण के कारण, लोग अपने आसपास की सुंदरता को एक क्लिक से साझा कर सकते हैं; वे सिकुड़ते आवासों और मानव-पशु संघर्ष के बारे में चिंता के मुद्दों को उठा सकते हैं.
नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन और डब्ल्यूडब्ल्यूएफ जैसे सामाजिक संस्थाएं संगठनों के काम के माध्यम से स्पष्ट प्रमाण सामने आया है कि सरल, परंतु शक्तिशाली प्रौद्योगिकियों- जैसे मोबाइल फोन आधारित अलर्ट के माध्यम से प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली, कैमरा और जानवरों का जीपीएस ट्रैकिंग- ने खतरनाक वन्यजीव मुठभेड़ों को कम करने में मदद की है.

जब जानवरों को इतना व्यापक प्यार मिले और उनकी इतनी बारीकी से निगरानी हो, तो अवैध शिकार करना ज्यादा जोखिम भरा हो जाता है. अवैध शिकार गोपनीयता में फलता-फूलता है, जनता की नजरों से दूर. जब पर्यटक और वन्यजीव उत्साही जंगल की गोद में समा जाना चाहते हैं, तो प्रकृति के संरक्षण के लिए स्थानीय स्तर पर आर्थिक प्रोत्साहन मिलता है.
अगर हम इस अनूठे जैवमंडल का संरक्षण जारी रखना चाहते हैं, तो यह समाज-समाज की मदद से ही संभव है. हमें बाजार- जिसका प्रतिनिधित्व बागान मालिक, किसान, व्यापारी और पर्यटन उद्योग करता है, उसके साथ भी तालमेल बिठाना होगा. राज्य जिसमें वन विभाग भी शामिल है, वन्यजीवों का एकमात्र संरक्षक नहीं रह सकता.

सरकार के लिए पूरी और एकमात्र जिम्मेदारी लेना असंभव है, भले ही वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972/वन्यजीव (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2022 कहता हो कि सभी जंगली जानवर राज्य की संपत्ति हैं.जानवरों को सरकार की जिम्मेदारी मानने की यह धारणा जनमानस में गहरी नाराजगी पैदा करती है. किसान वन अधिकारियों से नाराज हो जाते हैं. बागान मालिक सतर्क हो जाते हैं. 'अगर ये आपके जानवर हैं, तो आप इन्हें रखें. ये मेरी फसल क्यों खा रहे हैं, या हमारे 
मजदूरों को चोट क्यों पहुंचा रहे हैं?'

जानवरों को जंगलों के भीतर रखने के लिए कठोर सीमाएं, बाड़ या दीवारें न तो व्यावहारिक हैं और न ही वांछनीय. बल्कि, क्या हो अगर हम मान लें कि हम सब इसमें साथ हैं? क्या हो अगर हम अपनी जैव विविधता के संरक्षण में रुचि रखने वाले सभी लोगों का एक विश्वास नेटवर्क बना लें? क्या हो अगर हम संवेदनशील कैमरों, उपग्रह इमेजरी, सेंसर्स और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसी सभी उभरती प्रौद्योगिकियों का लाभ उठाएं- संरक्षित क्षेत्रों के भीतर और बाहर दोनों जगह? क्या हो अगर हमारे देश के सभी नागरिक हमारे प्राकृतिक संपदा के पुनर्जनन में जुट जाएं?

कहानी कहने की महत्वपूर्ण भूमिका

जैसा कि मैंने अपनी 40 साल की पारिस्थितिक यात्रा में अनुभव किया है, प्रकृति के संरक्षण के लिए हमें पहले प्रेम करना सीखना होगा. प्रेम करने के लिए, हमें महसूस करना होगा. यह केवल एक बौद्धिक अभ्यास नहीं है. यदि हम जंगल की सुंदरता और नाजुकता को देखें - उसके वनस्पतियों और जीवों को, सबसे छोटी चींटी से लेकर विशालकाय हाथी तक, तो हमारे भीतर आश्चर्य जागता है. हम सुरक्षित करना चाहते हैं, पोषण देना चाहते हैं और पोषण पाना चाहते हैं. हर कोई उस जंगल के हर कोने में नहीं जा सकता जिसे वह अन्वेषण करना चाहता है.

संरक्षण के लिए समुदाय बनाने की प्रक्रिया में, कुछ लोगों द्वारा कहानियां सुनाना अत्यंत महत्वपूर्ण है. नीलगिरि के हमारे पूर्वज इसे अच्छी तरह जानते थे. सिगुर और वेल्लेरिकोम्बाई में, हजारों साल पहले बनाए गए शैल चित्र आज भी मनुष्यों और जानवरों के बीच के रिश्ते का उत्सव मनाते हैं. कोयले और चाक की जगह अब कैमरों और पिक्सल ने ले ली है, परंतु उत्कंठा वही है - बांटने की, जुड़ने की, संरक्षित करने की. पिछले साल, अंतरराष्ट्रीय बायोस्फीयर रिजर्व दिवस के अवसर पर, रोहिणी नीलेकणी फिलैंथ्रोपीज ने फेलिस फिल्म्स के सहयोग से,'द नीलगिरिस- ए शेयर्ड वाइल्डरनेस' नामक वृत्तचित्र का प्रीमियर किया. यह नीलगिरी को प्रदर्शित करता है, जो उनकी पहली वृत्तचित्र प्रस्तुतियों में से एक है. हमने इस फिल्म को नीलगिरि के समुदायों और इस जैवमंडल में फैले वन विभागों को समर्पित किया है. हम आशा करते हैं कि यह फिल्म नीलगिरि की संवेदनशील और अनमोल प्राकृतिक धरोहर के निरंतर संरक्षण हेतु समाज, सरकार और बाजार में अधिक जिज्ञासा जगाएगी, अधिक स्नेह उत्पन्न करेगी और अधिक कार्रवाई को प्रेरित करेगी.

अस्वीकरण: रोहिणी निलेकणी, रोहिणी निलेकणी फिलैंथ्रोपीज़ की अध्यक्ष हैं.उनकी 'समाज, सरकार, बाजार - ए सिटिज़न फर्स्ट अप्रोच' नाम  से एक किताब प्रकाशित हुई है. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी है, उससे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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