पीढ़ियां बदल जाती हैं, रोशनी बनी रहती है...दीवाली ने बताया, मां मेरे भीतर जिंदा है

पीढ़ियां बदल जाती हैं, रोशनी बनी रहती है...दीवाली ने बताया, मां मेरे भीतर जिंदा है

हर साल मैं मां के साथ घर में दिये जलाती थी. इस साल उन्हीं की तस्वीर के आगे दिया जलाया...

हिंदुओं के अनगिनत त्योहार हैं, लेकिन इन सबमें से सबको सबसे ज़्यादा इंतजार दीवाली का रहता है. दीवाली यानी नए कपड़े, अच्छा खाना, लजीज मिठाई, रंगोली, फुलझड़ियां-पटाखे, फूलों की ख़ुशबू और ढेर सारी ख़ुशियां.

बचपन से अभी तक हर साल मैं दीवाली को इसी रूप से देखती आई हूं. मां के साथ त्योहार मनाती आई हूं. घर में सबसे छोटी हूं, इसीलिए सबकी लाड़ली थी ख़ासकर अपनी मां की. स्कूल में थी, जब मेरे पिता का देहांत हो गया. मेरी मां ने मुझे अकेले पाला. शायद इसीलिए मां पर ज़्यादा निर्भर हो गई.

हर दीवाली में मां ख़ुद तो बहुत व्यस्त रहती ही थी, मुझे भी काम में उलझाए रखती थी. घर की सफ़ाई करो, ख़रीदारी करो, वगैरह-वगैरह... उस समय मैं बहुत शिकायत किया करती थी. आज वही पल दोबारा जीना चाहती हूं. मां के बताए वही छोटे-छोटे काम दोबारा करना चाहती हूं, उनसे बातों में उलझना चाहती हूं.

दीवाली वाला दिन हमारे लिए बेहद स्पेशल होता था. मां अच्छे-अच्छे पकवान बनाती थी, साथ ही मेरे पसंद का खाना यानी राजमा-चावल. मां को रजनीगंधा और मोग्रा की ख़ुशबू बेहद पसंद थी, इसीलिए हर साल दीवाली में जब मैं फूल ख़रीदती तो ये दो कुछ ज़्यादा ख़रीदती थी. दीवाली की शाम को जब मां सब काम खत्म करके और पूजा करके आराम से बैठती, तो फूलों की महक सूंघकर बहुत ख़ुश होती थी.

लेकिन इस साल की दीवाली मेरे लिए अलग है, इसीलिए नहीं की नए कपड़े नहीं है या फिर मिठाई नहीं है. अलग इसीलिए है, क्योंकि मां ही नहीं है. पिछले साल 18 जून, 2015 को मेरी मां मुझे छोड़कर चली गई, तब से अब तक मैंने कोई त्योहार घर में नहीं मनाया है. दरअसल पिछले डेढ़ साल से मैं अपने आपसे भागती रही हूं. जब कोई त्योहार आता है, मैं दिल्ली से बाहर चली जाती हूं, लेकिन इस दीवाली नहीं गई. शायद थक गई हूं. इस बार की दीवाली पहला त्योहार है, जब मैं घर पर हूं.

वैसे इस पूरे हफ्ते कुछ बेचैनी मुझमें ज़रूर रही. बाज़ारों में शोर, दीवाली की लाइट और फूलों की ख़ुशबू मुझे परेशान करती रही, लेकिन मैंने अपने आपको समझाया और तय किया कि यहीं रहकर अपने भीतर के डर को ख़त्म करूंगी.

आख़िरकर मेरी मां ने मुझे हर मुश्किल से लड़ना सिखाया है. इतना आत्मविश्वास मुझे दिया है की मैं किसी से डरूं नहीं. मुसीबत के वक़्त फ़ैसला लेने का हौसला भी दिया है. आज छोटी दीवाली है. सुबह उठकर अकेले मैंने सफ़ाई की. सब कुछ अलग लग रहा था. मैं बहुत घबराई भी, लेकिन अपने आपको घर के काम में व्यस्त रखा. हर साल मैं अपनी मां के साथ दिये ख़रीदने जाती थी. इस साल दीवाली के दिए भी अकेले ख़रीदे. हर साल उनके साथ मिलकर पूरे घर में दिये जलाती थी, लेकिन इस साल उन्हीं की तस्वीर के आगे दिया जलाया.

तस्वीर में वो मुस्करा रही थी, जैसे मुझे अक्सर देखकर मुस्कुराया करती थी. शायद कह रही थी कि अब भागने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि वो अब भी मेरे साथ है.

दीवाली ने बताया कि मां मेरे भीतर जिंदा है, जैसे मैं मां के भीतर जिंदा थी. परंपरा शायद यही होती है. जीवन शायद यही होता है. हाथ बदल जाते हैं, पीढ़ियां बदल जाती हैं, रोशनी बनी रहती है और जिंदगी ढीठ मुस्कुराती रहती है. मैं भी मुस्कुराई, मां भी मुस्कुरा रही होगी. हैप्पी दीवाली मां.

नीता शर्मा एनडीटीवी इंडिया में कार्यरत हैं.

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