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This Article is From Apr 25, 2019

आयुष्मान भारत योजना से उठते कुछ अहम सवाल

Amit
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 25, 2019 15:01 pm IST
    • Published On अप्रैल 25, 2019 14:58 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 25, 2019 15:01 pm IST

लकीरें कितनी मायने रखती हैं, पहले इसे समझिए. अमर्त्य सेन और ज्यां द्रेज़ ने अगर अपनी किताब An Uncertain Glory: India and its Contradictions  साल 2013 में न लिखकर 2015 या बाद में लिखी होती तो हम लेखकों का एक सरकार के प्रति पूर्वाग्रह मान लेते और आगे बढ़ जाते. यानी हमने एक लकीर खींच दी. 2014 की लकीर, जब केंद्र में सत्ता परिवर्तन हुआ. दूसरी लकीर वह है, जिसके इस ओर या उस ओर खड़े होकर हम एक योजना का मूल्यांकन करने जा रहे हैं। और वह योजना है, मोदी सरकार द्वारा लाई गई प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना, जिसे संक्षेप में PM-JAY (पीएम-जय) लिखा जाता है. फिलहाल इस योजना में साल 2011 की सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना के हिसाब से ग़रीब माने गए प्रत्येक परिवार को 5 लाख रुपए का सालाना स्वास्थ्य बीमा दिया जा रहा है. यानी ग़रीब व्यक्ति, जिसके पास दो वक़्त के खाने के लिए पैसे नहीं हैं, वह बीमारी (गंभीर बीमारी) की स्थिति में 5 लाख तक का इलाज किसी भी अस्पताल में मुफ़्त में करा सकता है. इसका लाभ कुल 10 परिवारों अथवा 50 करोड़ लोगों का मिलने का अनुमान है.

बिना लाग-लपेट के बोला जाए तो यह योजना प्रधानमंत्री मोदी द्वारा ग़रीबों के लिए शुरू की गई योजनाओं में सबसे प्रभावी-कारगर योजनाओं में से एक है, जो एक तरफ़ गरीबों के चेहरे पर विश्वास और उम्मीद लौटा रही है तो वहीं दूसरी ओर भाजपा को इस योजना से वोट भी ठीक-ठाक (ख़ूब) मिल रहा है। मैंने व्यक्तिगत रूप से स्वयं कई लाभार्थियों से बात की, उनसे मिले जवाब के आधार पर ही यह लिख रहा हूँ. किताब के लेखकों के शब्दों में कहा जाए तो यह Out Of Pocket System से बेहतर है, जिसमें अधिकतर सेवाएं नकदी देकर खरीदी जाती हैं, लेकिन फिर दिक्कत क्या है? क्यों यह कहानी आज याद आ गई? दरअसल, कुछ दिन पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश किसानों से जुड़े एक मामले की सुनवाई करते हए इस योजना की तारीफ़ करते हुए कह दिया कि यह योजना महात्मा गांधी और डॉ अंबेडकर के सपनों को पूरा करने वाली है. सपनों से याद आया है कि सपने तो बड़े दूरदर्शी होते हैं। वे सिर्फ आज के बारे में नहीं देखे जाते बल्कि और भी लंबे समय के लिए देखे जाते हैं.

आयुष्मान भारत या PM-JAY को ओबामा केअर की तर्ज़ पर कुछ लोगों द्वारा मोदी केयर भी कहा जाता है. ऐसा कहने वाले अधिकांश बीजेपी/मोदी समर्थक हैं. स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इसे दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य बीमा योजना बताकर वोट मांगने में कोई कसर नहीं छोड़ते. ठीक यही बात 2010 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा पारित स्वास्थ्य बीमा योजना के बारे कही जा सकती है, लेकिन मोदी के विपरीत उनके समर्थक भारत में भी थे. ये वही लोग थे जो समाजवाद में गहरी आस्था रखते हैं और मानते थे कि पूंजीवादी अमेरिका में ऐसी 'कल्याणकारी योजनाएं' होनी चाहिए. ओबामा केअर की चर्चा के बाद भारत में भी उसी तरह की चिकित्सीय बीमा योजना की सुगबुगाहट चल पड़ी थी. सुगबुगाहट करने वाले वही समाजवादी लोग थे. हालांकि साल 2008 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना लेकर UPA आई थी, जिसमें BPL परिवार को 30,000/- का चिकित्सीय लाभ का प्रावधान था. चूंकि उसका क्षेत्र बहुत व्यापक नहीं था लेकिन फिर भी योजना तो थी ही.

अगस्त 2013 में प्रकाशित इस किताब की टाइमिंग देखकर लगता है कि जब लेखकगण ने किताब लिखी होगी तो ओबामा केयर से प्रभावित होकर ही उन्होंने भारत में स्वास्थ्य के अंतर्गत इसकी विस्तृत चर्चा की है. हालांकि ऐसा नहीं है कि लेखकों के निष्कर्ष हमेशा सही हों. उदाहरण के लिए लेखकों ने एक जगह स्वास्थ्य नीति को लेकर लिखा है कि "स्वास्थ्य नीति आज कुछ भ्रमित अवस्था में है. एक ओर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करने के लिए सकारात्मक कदम (राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन से लेकर जनता को जेनरिक दवाएँ उपलब्ध कराने तक) उठाए जा रहे हैं तो दूसरी ओर निजी स्वास्थ्य बीमा पर निर्भरता बढ़ाने की दिशा में तेजी से प्रगति हो रही है (जिसे स्वास्थ्य उद्योग सक्रियता से प्रोत्साहन दे रहा है). यही नहीं, भविष्य में भारत की स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था किन सिद्धान्तों पर आधारित होगी, इस बारे में कुछ विशेष स्पष्टता नहीं दिखती है"

अब अगर हम इसे वर्तमान परिदृश्य में देखें तो एक तो सरकार ने जेनेरिक दवाओं की उपलब्धता के लिए उल्लेखनीय प्रयास किए हैं, जिनसे गरीबों के लिए इलाज सस्ता करने की दिशा में उल्लेखनीय कदम माना जा सकता है तो दूसरी ओर बीमा के जरिए गरीबों को मुफ्त इलाज देने के दावे भी हैं, तो ऐसे में स्पष्टता क्यों नहीं दिखती? क्या सार्वजनिक और निजी, दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते? खैर...लेकिन हमें अपने आपको जज साहब की टिप्पणी के संदर्भ में PM-JAY तक सीमित रखना है. 

जैसा कि ऊपर ही बताया जा चुका है कि ये योजना ग़रीबों के बीच बहुत लोकप्रिय हो रही है, उन्हें जरूरत का इलाज भी उपलब्ध हो रहा है लेकिन लंबे काल खंड को लेकर देखें तो यह योजना मूल समस्या का समाधान करती हुई नहीं दिखती. जैसे रोटी-कपड़ा-मकान के बाद (या कहें साथ-साथ) चिकित्सा/स्वास्थ्य का नंबर आता है. लोग छोटी-2 बीमारियों के लिए अपने आसपास अस्पतालों के रुख़ करते हैं, जहाँ सरकारों की कोशिश रहनी चाहिए कि वह सार्वजनिक चिकित्सालयों की व्यवस्था करे. लेकिन निजी बीमा और निजी क्षेत्र को मिले प्रोत्साहन के बाद ऐसा होता नहीं है. क्योंकि अब बीमाधारक की कोशिश रहेगी कि वह जुकाम-बुख़ार जैसी रोजमर्रा बीमारियों का इलाज भी मुफ़्त में कराए, इसलिए वह अनावश्यक रूप से निजी अस्पताल का रुख़ करेगा और निजी अस्पताल तो इसीलिए बैठे हैं. जिस बीमारी का इलाज 50 रुपये में हो सकता है, बीमा के कारण निजी अस्पताल उसके बदले 500 बसूलेंगे. निजी अस्पतालों में डर दिखाकर लूट होती है, इससे कोई इनकार नहीं करता, फिर जब मरीज़ बिना किसी खर्च के चिंता के इलाज के लिए जाएगा, तो कितना अनावश्यक लूट होगी, यह सहज ही कल्पना की जा सकती है. 

और जब हर कोई निजी चिकित्सा का लाभ लेना चाहेगा तो सरकार भला क्यों सार्वजनिक स्वास्थ्य/चिकित्सा पर खर्च करेगी? और अगर कर भी दिया तो कोई क्यों उन अस्पतालों का रुख़ करेगा? अब जब निजी अस्पतालों में मांग बढ़ेगी तो वे बाज़ार के नियमानुसार अपनी सुविधा शुल्क भी बढ़ाएंगे। यानी अभी जो इलाज 3-4 लाख में हो जाता है, हो सकता है कि वह 5-6 लाख में होने लगे...? ऐसा ही होगा, क्योंकि यह नियम है. अब महंगी चिकित्सा सेवाओं की मार उस वर्ग पर पड़ेगी, जो PM-JAY से बाहर है, अभी अपने खर्च से स्वास्थ्य बीमा लेता है या स्वयं के खर्च पर इलाज कराता है. लेखकों ने बताया है कि बात चाहे अमेरिका की हो, ब्रिटेन की हो, जापान हो, चीन, दक्षिण कोरिया से लेकर कोस्टा रिका की... दुनिया के इतिहास में जहाँ भी स्वास्थ्य सेवा में परिवर्तन को सफलता पूर्वक लागू किया गया है तो वहाँ का आधार सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा की मजबूती रही है, लेकिन भारत के संदर्भ में ऐसा नहीं दिखता. स्वास्थ्य बीमा जैसे कदम एक छलांग लगाने की कोशिश करते हैं और सीधे निजी क्षेत्र से अपेक्षा रखते हैं.

यह व्यवस्था अस्पताल सेवा से जुड़ा होती है. अब ऐसे में संभावना यही है कि व्यावसायिक स्वास्थ्य व्यवस्था बीमारी की रोकथाम और अस्पताल मुक्त उपचार के खिलाफ ही होगी. यह तो बीमा आधारित स्वास्थ्य सेवाओं के विपरीत है। उदाहरण के तौर पर भारत में ज्यादातर बीमारियां संक्रामक रोगों के कारण होती हैं. मधुमेह, रक्तचाप संबंधी समस्याओं और कैंसर सरीखे कई असंक्रामक रोगों का बेहतर इलाज अस्पताल में भर्ती से पहले ही हो सकता है. एम्स मंगलगिरी के अध्यक्ष डॉ टीएस रविकुमार और पॉन्डिचेरी इंट्टीट्यूट ऑफ मेडीकल साइंस में प्रोफेसर डॉ जॉर्ज अब्राहम द-हिंदू में लिखे एक लेख में बताते हैं कि कैसे रोकथाम की कमी के कारण 70 फीसदी कैंसर मरीजों का इलाज तीसरी या चौथी स्टेज पर हो पाता है. इससे एक तो मृत्यु दर अधिक रहती है, उपचार की दर बहुत कम और अगर अर्थ की दृष्टि से देखा जाए तो यहां तक आते-2 इलाज का खर्च पहले स्टेज के मुकाबले तीन-चार गुणा बढ़ जाता है. इतना ही नहीं, स्वास्थ्य बीमा योजनाएं संपूर्ण कैंसर की बीमारी को कवर नहीं करती, परिणाम स्वरूप एक तो आउट ऑफ पॉकेट खर्च बढ़ता है या फिर मरीज इलाज बीच में ही छोड़ देता है. 

इसे कुछ यूं समझिए कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की कोशिश रहती है कि व्यक्ति अपनी दिनचर्या में परिवर्तन लाकर स्वस्थ रहे, इसीलिए लोगों को जागरूक करने पर जोर देती हैं. जागरूकता के इन संदेशों को आप उनके पर्चे पर, गाँव-शहर की दीवारों पर या उनसे जुड़ी चीजों पर देख-पढ़ सकते हैं. और यदि इसके बाद भी बीमार पड़ो तो उनके पास जाओ. लेकिन बीमा आधारित निजी स्वास्थ्य उद्योग में ऐसा नहीं है। वे तो आपके बीमार होने के इंतजार में ही बैठे हैं. मतलब यह मॉडल कारकों पर बल न देकर सीधे परिणामों के उपचार पर जोर देता है। आप बीमार नहीं पड़ेंगे तो धंधा कैसे चलेगा? यह तथ्य बहुत पुराना है कि भारत में स्वास्थ पर खर्च जीडीपी की तुलना में बहुत कम है. फिलहाल यह 1.15 से लेकर 1.5 फीसदी तक है. सरकार इसे 2.5 फीसदी करना चाहती है। इस साल सरकार ने पिछले के मुकाबले 7000 करोड़ रुपये का आवंटन बढ़ाया है. 2.5 फीसदी के हिसाब से इसे करीब 60-65,000 करोड़ रुपये से बढ़ाया जाना चाहिए, लेकिन हमें यहां जो बात गौर करनी है, वह है कि इसी साल बजट में 6400 करोड़ PMJAY के लिए रखे गए हैं. यानी बढ़ा हुआ बजट लगभग पूरा का पूरा इसी बीमा योजना में जा रहा है. यानी सरकार भी शायद इसी रास्ते के जरिए चिकित्सीय सेवाओं को आगे बढ़ाना चाहती है?

ऐसा नहीं है कि लेखक निजी चिकित्सा सेवा के एकदम विरोधी हों. वे केरल का उदाहरण देते हैं, जहाँ निजी क्षेत्र को उस समय मैदान दिया गया जब सार्वजनिक स्वास्थ्य ने पूरी ताक़त से अपनी जड़ें जमा लीं. यानी निजी ने सार्वजनिक क्षेत्र के सहयोगी की भूमिका निभाई. जबकि उत्तर भारत में सार्वजनिक सेवाएं पनप ही नहीं पाईं कि निजी क्षेत्र ने कब्जा जमा लिया। इसी मिसमैनजेमेंट ने ग़रीबों को हांसिए पर धकेल दिया. लेखक बताते हैं कि बीमा आधारित चिकित्सा सेवा का यह मॉडल अमेरिकी है, जहाँ उच्च स्तरीय मेडिकल सेवा की अच्छी गुणवत्ता के बावजूद इस देश ने यह रास्ता अपनाकर बड़ी क़ीमत चुकाई है. इसकी तुलना में लेखकों ने कनाडा के मॉडल से सीख लेने की सलाह दी है, जहाँ कथित समाजवादी स्वास्थ्य मॉडल ने अमेरिका की तुलना में कहीं ज्यादा असर दिखाया है, वह भी अमेरिका से हुए कम खर्च में.

संभव है कि समाजवाद या सरकार स्वामित्व वाले सिस्टम से आपको परहेज हो और आप अपने तर्क के समर्थन में सार्वजनिक सेवाओं की विफलता के एक दर्जन नमूने भी सामने रख दें, लेकिन ऐसा करते हुए हमें सावधानी बरतने की जरूरत है क्योंकि स्वास्थ्य या चिकित्सा ऐसे मामले नहीं हैं, जिन्हें आप अन्य सार्वजनिक उपक्रमों के समकक्ष रख सकें. BSNL की जगह एयरटेल या जिओ फल-फूल रही तो चल सकता है, ONGC की जगह रिलाएंस केजी बेसिन में गैस निकाल सकती है, NHAI की जगह जेपी इंफ्रास्ट्रक यमुना एक्सप्रेसवे बना सकता है लेकिन स्वास्थ्य मूल आवश्यकताओं में आएगा, इसकी जिम्मेदारी सरकार को ही लेनी पड़ेगी. इसीलिए कहा है कि यह योजना आज तो अच्छी दिखती है लेकिन लंबे समय के लिए ठीक नहीं जान पड़ती. 

An Uncertain Glory: India and its Contradictions  हिंदी में भारत और उसके विरोधाभाष नाम से उपलब्ध है. 

(अमित एनडीटीवी इंडिया में असिस्टेंट आउटपुट एडिटर हैं)  

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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