बराक ओबामा ने अपने टाउन हॉल के भाषण में कहा कि "महात्मा गांधी ने कहा था कि सभी धर्म एक ही पेड़ के फूल हैं। धर्म का गलत इस्तेमाल नहीं होना चाहिए...यदि धर्म के नाम पर भारत नहीं बंटेगा तो जरूर तरक्की करेगा।
आखिरकार एक अमेरिकी राष्ट्रपति को भारत के धर्म पर बोलने की जरूरत क्यों पड़ी...आखिर ओबामा को किसने क्या ब्रीफ किया और इस वक्त यह बयान कितना मौजूं क्यों बन गया। क्या ओबामा को यह बताया गया कि नई सरकार में संघ हावी होने की कोशिश कर रहा है और देशभर में घर वापसी जैसे कार्यक्रम चल रहे हैं। क्या किसी ने ओबामा को बताया कि अपने मंत्रियों के उटपटांग बयानों से खुद प्रधानमंत्री असहज महसूस कर रहे हैं।
दरअसल, संघ के अखंड हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा से देश का बड़ा हिन्दू तबका अपने आपको जोड़ नहीं पा रहा है। हां, यह भी सही है कि सोशल मीडिया पर जो नए हिन्दू ध्वज धारकों की भीड़ आई है उससे यह धारणा बनाने की कोशिश हो रही है कि सारा देश इस हिन्दू राष्ट्र या संघ की धारा को मानता है।
मगर जैसा कि ओबामा ने कहा, सारे विश्व की निगाहें भारत और धर्म की राजनीति पर हैं। यदि ओबामा चाहते तो यह कहने से बच भी सकते थे कि भारत धर्म के नाम पर न बंटे, यह उसकी तरक्की में बाधक है। शायद यह भी किसी को नहीं भूलना चाहिए कि यही अमेरिका जो नरेन्द्र मोदी को रॉक स्टार से लेकर बॉलीवुड स्टार तक की पदवियों से नवाज रहा है और ओबामा मोदी को अपना निजी मित्र तक कहते हैं ने इसी नरेन्द्र मोदी को गुजरात दंगों की वजह से सालों तक वीजा नहीं दिया था। दिक्कत यह है कि जब आप विश्व के मंच पर दस्तक देते हैं तो दुनिया आपको इस बात पर भी परखती है कि आपके देश में धर्म के नाम पर कितनी सहनशीलता है।
मगर हाल के दिनों में जगह-जगह दंगे इस बात की पोल खोल रहे हैं कि लव जिहाद से लेकर घर वापसी और दिल्ली में चर्च पर हुए हमले तक में क्या-क्या चल रहा है और कौन-कौन इसके पीछे है। अमेरिका और भारत में सबसे बड़ी समानता है कि दोनों कई जातियों,कई धर्मों,कई भाषाओं और विविध परंपराओं वाले देश हैं। मगर अपने यहां तो महाराष्ट्र में बिहारियों को लेकर विवाद होता रहता है। तभी यह सवाल उठता है कि एक देश के रूप में हम कितने सक्षम हैं, विश्व के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए, यही द्वंद है प्रधानमंत्री के सामने, क्योंकि वे अब अपने आपको विश्व के नेता और भारत को उस मंच पर लाने की चाह रखते हैं, जिसका हकदार भारत है, मगर कहीं न कहीं धर्म और जाति आधारित राजनीति हमारे विकास पर हावी हो रही है और जाते-जाते ओबामा ने भी इसी की याद दिलाई, लेकिन क्या करें राम मंदिर के नाम पर दो सीटों से लेकर सत्ता तक का सफर यह बार-बार याद दिलाता रहता है कि धर्म आधारित राजनीति हमारी मजबूरी है, लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि संघ भी अमेरिका को पसंद करता है, क्योंकि आतंकवाद के खिलाफ दुनियाभर में छिड़ी जंग की अगुवाई अमेरिका ही कर रहा है और यह लड़ाई है क्या?
यह लड़ाई है, इस्लाम के खिलाफ, जो संघ को भाता है और वह भी अमेरिका के साथ इस लडाई में साथ खड़ा दिखाई देना चाहता है। यही नहीं अमेरिका और सोवियत संघ के बीच चल रहे कोल्ड वार के दौरान भी संघ अमेरिका के साथ था, क्योंकि संघ समाजवाद का विरोध करता रहा है। पूंजीवाद का सर्मथक रहा है, क्योंकि संघ से जुड़ा एक बड़ा तबका व्यापार से जुडा है, जिसे विदेशी पूंजी से कोई परहेज नहीं है। क्या करें.. यही तो है डिप्लोमेसी।