क्रांति संभव का ब्‍लॉग : 'दिलवाले' पर दुविधा

क्रांति संभव का ब्‍लॉग : 'दिलवाले' पर दुविधा

अाजकल फ़िल्में जितनी स्क्रीन पर उतरती हैं, उतने ही रिव्यू भी देखने को मिलते हैं। अख़बार और टीवी तो हैं ही, सोशल मीडिया पर भी जनता वन स्टार और टू स्टार देकर फ़िल्म की धुर्री कर देती है। ऐसी ही कई पारंपरिक और कई ग़ैर पारंपरिक फ़िल्म समीक्षाओं में दिलवाले के बारे में हेडलाइन पढ़ा। ज़्यादातर जगहों पर वैसा ही रिव्यू देखने को मिला जैसा शाहरुख़ की फ़िल्मों का देखने को मिलता है। दिमाग़ छोड़कर जाइए तो फ़िल्म अच्छी लगेगी। और ये सब पढ़कर मैं दुविधा में पड़ गया कि कहीं फ़िल्म पिट तो नहीं जाएगी और क्या मुझे जाकर अपनी तरफ़ से टिकट का साढ़े तीन सौ रुपया कंट्रीब्यूट कर आना चाहिए? और ये मेरे लिए एक दुविधा की स्थिति है, क्योंकि अब कुछ वक़्त से मैं ये चाह रहा था कि शाहरुख़ की फ़िल्म पीटे, लेकिन वो था इस सबके शुरू होने से पहले। फ़िलहाल चिंता में हूं कि फ़िल्म पिट ना जाए।
 
शाहरुख़ ख़ान की ऐक्टिंग मुझे पसंद नहीं। उनकी फ़िल्में पसंद नहीं, कम से कम वो नहीं, जिनके लिए वो जाने जाते हैं, या फिर वो जिनके लिए वो जाने जाना चाहते हैं। वो तो और नहीं जिनके लिए वो किंग ख़ान कहे जाते हैं, और जो मैंने देखी भी नहीं हैं। (डीडीएलजे, केकेएचएच, एट्सेट्रा कई सालों से प्लान कर रहा हूं, हिम्मत नहीं हुई है)। और जिन फ़िल्मों में उनकी ऐक्टिंग मुझे पसंद आई, स्वदेस और चक दे इंडिया, वो शायद ही शाहरुख़ को ख़ुद पसंद हैं, जो हो सकता है मेरी धारणा हो, लेकिन जैसे रिपोर्ट और इंटरव्यू पढ़े, उसे देखते हुए लगता नहीं कि शाहरुख़ ख़ान उनके लिए कुछ स्पेशल भावना रखते हों।
 
वैसे हां, शाहरुख़ के इंटरव्यू मुझे अच्छे लगते हैं, पढ़ने और देखने में। उनमें बड़ी सलीके की बातें वो करते हैं। कई इंटरव्‍यू पढ़ें हैं, जिनमें उनका कई लेयर वाला और बौद्धिक व्यक्तित्व सामने आता है, जो सलमान या आमिर में बिल्कुल नहीं है। ऐसे ही एक इंटरव्‍यू में शाहरुख़ ने सलीक़े से वो बातें कहीं, जो सिर्फ़ वही कर सकते थे। देश में, आज के वक़्त में, आज के जेनरेशन में कितनी असहिष्णुता बढ़ती जा रही है, या कम से कम देखने को मिल रही है। (अब सलमान से तो ऐसी बातों की उम्मीद नहीं की जा सकती, क्योंकि हाल में मेमन फांसी के मुद्दे पर लेटनाइट ट्वीट पर यू टर्न लिया ही था। आमिर इतने विलक्षण मार्केटिंग गुरू हैं कि संदिग्ध बन जाते हैं। बाक़ी महानायक की तरफ़ से तो कोई रिस्की स्टेटमेंट आज तक देखा नहीं। राजनीति से वापसी के बाद तो ओपिनियन नाम की चीज़ से ही छुटकारा है... ख़ैर ) शाहरुख़ के बयान पर शाहरुख़ की बात को ही सही साबित करते हुए देशभर में आंदोलन सा चल पड़ा कि शाहरुख़ ने आख़िर ऐसा कह कैसे दिया। वैचारिक हंटर से लोगों को मनवाया जाने लगा कि बोलो देश सहिष्णु है। नेता और जनता दोनों बढ़-चढ़कर भड़ास निकालने पर तुले थे। असहिष्णुता के बयान के लिए ऐसी असहिष्णुता दिखा रहे थे कि शाहरुख़ का विरोध करते-करते उनकी बात का समर्थन ही कर रहे थे। बात वहीं नहीं रुकी है। फ़ेसबुक पर मुहिम चलाई कि शाहरुख़ की फ़िल्म को फ़्लॉप करवाया जाए और अब तो रिलीज़ के बाद कुछ लोगो ने दिलवाले का टॉरेंट लिंक फ़ेसबुक पर डाल दिया है, यानि डाउनलोड कीजिए और देखिए।
 
दिलवाले मैंने नहीं देखी है, देखने का मन भी नहीं। मैं वो फ़िल्में देखकर बड़ा नहीं हुआ, जिनकी वजह से शाहरुख़ और काजोल के वापस साथ आने को मैं कोई खगोलीय घटना मानूं। जो ट्रेलर देखे हैं, उन्होंने कोई नया प्रेम भी नहीं जगाया है। और तमाम अख़बारों या वेबसाइट से जो रिव्यू दिख रहे हैं वो वही हैं जैसी उम्मीद थी, लेकिन लग ये भी रहा है कि अगर ये फ़िल्म फ़ेल हुई तो आने वाले वक़्त में भी कोई बॉलिवुडिया कलाकार पॉलिटिकल स्टेटमेंट नहीं देगा, पॉलिटिकली इनकरेक्ट स्टैंड नहीं लेगा। शाहरुख़ ने पहले भी कहा था कि कलाकार कोई स्टैंड इसलिए नहीं लेते हैं कि हर गुरुवार को वल्नरेबल या असुरक्षित हो जाते हैं, रिलीज़ से पहले। जब ना सिर्फ़ वो अपनी सुरक्षा के बारे में सोचते हैं बल्कि उस टीम के लिए भी जिसकी रोज़ी-रोटी फ़िल्म की रिलीज़ पर टिकी होती है। और यही सब फिर से देखने को मिला शाहरुख़ के उस इंटरव्‍यू को देखकर, जिसे शाहरुख़ की माफ़ी के तौर पर पेश किया जा रहा था, लेकिन दिलचस्प ये था कि बात भले ही माफ़ी की थी लेकिन पूरा इंटरव्यू हमारी राजनीतिक समझ के खोखलेपन पर तंज़ था। लेकिन हां वो असुरक्षा भी थी, जो किसी फ़िल्म से पहले की होती है, लेकिन फ़िलहाल ये लग रहा इस फ़िल्म के पिटने से बहुत ग़लत सीख निकलेगी, शाहरुख़, अनुपम खेर और सोशल मीडिया के लिए।
 
काफ़ी वक़्त पहले नसीरुद्दीन शाह की एक बहुत ही दिलचस्प इंटरव्‍यू क्लिप देखी थी। इंटरव्‍यू सईद नक़वी ने किया था, जिसमें नसीर ने अपने बेलौस अंदाज़ में अमिताभ बच्चन की ऐक्टिंग को ऐसे ख़ारिज किया जैसे आमतौर पर किसी को बोलते नहीं देखा था। उनका सीधा सा कहना था कि अमिताभ बच्चन औसत अभिनेता हैं, क्योंकि उन्होंने औसत रोल चुने। अमिताभ बच्चन की ऐक्टिंग को लेकर मेरी जो मान्यता है उसे जब मैंने नसीरुद्दीन शाह जैसे दिग्गज से साझा पाया तो मुझे एक दिलासा सा मिला। (अमिताभ की ऐक्टिंग पर मेरी मीमांसा को अभी तक जैसा रिसेप्शन मुझे मिला है उसने मेरे अंदर के फ़िल्म क्रिटीक को कभी पनपने ही नहीं दिया, जो डिग्री भारतीय पासपोर्ट के साथ ऑटोमैटिकली आती है, लेकिन वो दुखड़ा फिर कभी)। तो जब तक देशप्रेम के इंच टेप से शाहरुख़ नहीं नाप जा रहे थे, तब तक तो मैं यही सोच रहा था कि शाहरुख़ की कुछ फ़िल्में पिटे तो, जिससे कुछ मतलब की फ़िल्में वो बनाएं। जिससे वो अपनी ऐक्टिंग को लेकर भी कुछ रिस्क लें। अपने हुनर को लेकर भी कंफ़र्ट ज़ोन से बाहर जाएं। कुछ ऐसे रोल चुनें जो उनके व्यक्तित्व के उस पहलू को उभारे जो इंटरव्‍यू में मुझे दिखते हैं।
 
लेकिन मैं बेहतर ऐक्टिंग की उम्मीद, मसाला फ़िल्मों के पिटने से मिलने वाली सीख और मीनिंगफ़ुल सिनेमा की उम्मीद को थोड़ा पोस्टपोन कर रहा हूं। फ़िल्म पिटे लेकिन ये नहीं, फ़िल्म पिटे लेकिन अनुपम खेरों की वजह से नहीं।

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