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This Article is From Mar 03, 2018

कमाल की बात : ''मदीने में मनाई होली...''

Kamal Khan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मार्च 03, 2018 02:02 am IST
    • Published On मार्च 03, 2018 02:02 am IST
    • Last Updated On मार्च 03, 2018 02:02 am IST
इस होली पर अलीगढ़ से आई कुछ तस्वीरें हमें  शर्मिंदा करती हैं….घनी मुस्लिम बस्तियों में मस्जिदों को पर्दों से ढंक दिया गया ताकि कोई नमाज़ियों या मस्जिद पर रंग न डाल पाए. हमें याद है कि मुहर्रम के दौरान जब होली पड़ती थी तो हम लोग होली का जुलूस कवर करने पुराने लखनऊ की विक्टोरिया स्ट्रीट पर सड़क किनारे कुर्सी डालकर बैठे होते थे…और हमारे कपड़ों पर रंग नहीं लगा होता था... तो पूरा जुलूस गुजर जाता था, कोई हमें रंग नहीं लगाता था, क्योंकि उन्हें एहसास होता था कि मुहर्रम का शोक चल रहा है इसलिए मोहर्रम मानने वाले रंग नहीं खेल सकते. कितने अफसोस की बात है कि यह भरोसा इतना डगमगा जाए कि होली में मस्जिदों को गिलाफ पहनना पड़े.

होली पर मुसलमानों में भी रंग खेलने की रवायत पुरानी है…(और रंग नहीं खेलने वाले तमाम हिंदू भी होली के दिन घर में बंद रहते हैं). लखनऊ में तो नवाब वाजिद अली शाह के ज़माने में एक बार ठीक मुहर्रम के दिन होली पड़ी. वाजिद अली शाह करबला में ताजिया दफन कर जिस वक़्त वापस आ रहे थे, उसी वक़्त चौक में लोग होली खेल रहे थे. वे उनकी तरफ रंग लेकर बढ़े तो वाजिद अली शाह ने ऐन मुहर्रम के दिन उनके साथ होली खेली ताकि रियाया को यह गलतफहमी न हो जाए कि बादशाह का मजहब दूसरा है इसलिए वे उनके साथ होली नहीं खेल रहे हैं.

अवध के नवाब तो होली खेलते ही थे, होली तो कई मुगल बादशाहों के यहां भी खेली जाती थी..तारीख में अकबर के होली खेलने का ज़िक्र मिलता है.जहांगीर और नूरजहां के बीच होली की मिनिएचर पेंटिंग्स मौजूद हैं. उनकी होली ईद-ए-गुलाबी कहलाती थी, जो गुलाब और गुलाल से खेली जाती थी. और बहादुर शाह ज़फ़र ने तो होली का गीत लिखा है कि ”क्यों मो पे रंग की मारी पिचकारी…देखो कुंवरजी दूंगी मैं गारी.”

सूफ़ियों के यहां होली की पुरानी रवायत है. तमाम सूफ़ी दरगाहों पर धूम धाम से होली होती है. देव में हाजी वारिस अली शाह की मज़ार पर 100 साल से होली हो रही है. इस दरगाह पर होली का रंग निराला इसलिए है क्योंकि हिंदुओं के कई त्योहार उस शख्स की मज़ार पर होते हैं जिसे उसके मुरीद पैगंबर मोहम्मद साहिब के खानदान का मानते हैं.

उर्दू के तो तमाम शायरों ने होली पर नज्में लिखी हैं, लेकिन सूफ़ी कलाम में होली का एक अलग सूफ़ियाना रंग है. होली पर खुसरो का कलाम ”खेलूंगी होली ख्वाजा घर आए….” और ''तोरा रंग मन भायो मोईउद्दीन…” एवं  “आज रंग है मान, रंग है री…मोहे महबूब के घर रंग है री.” बहुत मशहूर है. 18वीं सदी के पंजाबी सूफ़ी फ़क़ीर बुल्ले शाह ने लिखा है …”होरी खेलूंगी कह बिस्मिल्लाह…नाम नबी की रत्तन चढ़ी बूंद पड़ी इलल्लाह.”…यह बड़ी बात है कि वे खुदा का नाम लेकर होली का रंग शुरू करने की बात कहते हैं. एक और सूफ़ी फ़क़ीर शाह नियाज़ लिखते हैं ,”होली होय रही है अहमद जियो के द्वार…हज़रत अली का रंग बनो है, हसन-हुसैन खिलाड़….'' उनके कलाम में तो पैगंबर मोहम्मद साहिब के नवासे हसन और हुसैन रंग खेल रहे हैं. और गुज़रे ज़माने की गायिका गौहर जान ने तो गाया है …”मेरे हज़रत ने मदीने में मनाई होली” होली को लेकर इससे बड़ी बात क्या हो सकती है.

शायद आज का दौर होता तो गौहर जान के गाना बैन हो जाता. अगर होली पर मस्जिदों को गिलाफ से ढंकने की नौबत आ जाए तो हमारे लिए शर्मिंदा होने की बात ज़रूर है.

कमाल खान एनडीटीवी इंडिया के रेजिडेंट एडिटर हैं.

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