कहा जाता है इतिहास खुद को दोहराता है. पहली बार त्रासदी और दूसरी बार प्रहसन. भारतीय राजनीति का इतिहास एक बार फिर खुद को दोहराने को तैयार दिख रहा है. लेकिन यह न तो त्रासदी है, न प्रहसन बल्कि एक चुनौती है बीजेपी और नरेंद्र मोदी के एक छत्र राज को.शुरुआत तो पश्चिम बंगाल चुनाव के बीच में ही हो गई थी जब ममता बनर्जी ने विपक्षी पार्टियों के 14 नेताओं को पत्र लिख कर बीजेपी के एकाधिकार वाले शासन के खिलाफ एकजुट होने की अपील की थी. ममता ने लिखा था कि केंद्र की मोदी सरकार ने राज्यों को नगर निगमों में तब्दील कर दिया है. अपने तीन पन्नों के पत्र में ममता ने सभी विपक्षी दलों से बीजेपी का मुकाबला करने के लिए एक मंच पर आने की अपील की थी.
यह पत्र कांग्रेस अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी, एनसीपी प्रमुख शरद पवार, डीएमके अध्यक्ष और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन, सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव, आरजेडी अध्यक्ष तेजस्वी यादव, शिवसेना प्रमुख और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे, जेएमएम नेता और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, आम आदमी पार्टी के संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, बीजू जनता दल के प्रमुख और ओडीशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, वाईएसआर कांग्रेस के प्रमुख और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी, एनसीपी नेता फारूक अब्दुल्लाह, पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती और सीपीआईएमल के नेता दीपांकर भट्टाचार्य को लिखा गया. बाद में वैक्सीनेशन के मुद्दे पर इसी तरह साझा बयान जारी किए गए.
इनमें छह क्षेत्रीय दलों के ऐसे नेता हैं जो मुख्यमंत्री हैं. ममता बनर्जी को मिला कर सात हो जाते हैं. ये ऐसे मुद्दे हैं जिन पर लेफ्ट पार्टियां भी साथ आ सकती हैं. यानी विपक्ष के शासन वाले 12 राज्यों को एक मंच पर लाने का प्रयास हो रहा है. इसमें प्रमुख भूमिका चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर निभा रहे हैं. एनसीपी प्रमुख शरद पवार के साथ पहले मुंबई में चार घंटे की और आज दिल्ली में संक्षिप्त मुलाकात ने संसद के मॉनसून सत्र से पहले विपक्षी खेमे में सुगबुगाहट तेज कर दी है. हालांकि अभी कुछ भी कहना बहुत ही जल्दबाजी है लेकिन यह तय है कि पवार मोदी के खिलाफ विपक्षी एकता की नींव रख चुके हैं. इसी सिलसिले में मंगलवार को दिल्ली में उनके निवास पर शाम चार बजे 10 से भी ज्यादा विपक्षी पार्टियों की बैठक बुलाई गई है.
अब आते हैं इतिहास पर. 1989 में भी ऐसा ही कुछ हुआ था. बेहद ताकतवर राजीव गांधी के खिलाफ उन्हीं के वरिष्ठ मंत्री वी पी सिंह ने बगावत कर जनता दल बनाया. कुछ अन्य विपक्ष पार्टियां तब एक साथ आईं. इसे राष्ट्रीय मोर्चा का नाम दिया गया. इसमें जनता दल, तेलुगु देशम, डीएमके, एजीपी और कांग्रेस एस शामिल हुईं. एन टी रामाराव को इसका अध्यक्ष और वी पी सिंह को कंवेनर बनाया गया. चुनाव के बाद रामो (राष्ट्रीय मोर्चा) को वामो (वाम मोर्चा) और बीजेपी ने बाहर से समर्थन दिया और इस तरह वी पी सिंह देश के प्रधानमंत्री बने. यह अलग बात है कि उनकी सरकार ज्यादा लंबी नहीं चली. लाल कृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी के बाद बीजेपी ने समर्थन वापस लिया और कांग्रेस ने जनता दल में फूट डाल कर चंद्रशेखर को बाहर से समर्थन देकर प्रधानमंत्री बनवाया.
अब शरद पवार के यहां विपक्षी दलों के जमावड़े को राष्ट्रीय मंच का नाम दिया जा रहा है. पवार खुद को एन टी रामाराव और ममता बनर्जी को वी पी सिंह की भूमिका में देख रहे हैं. तब रामो था अब रामं. तब निशाने पर राजीव गांधी थे, अब नरेंद्र मोदी. लेकिन विपक्षी एकता की ऐसी कोशिशें पिछले सात साल में कई बार हुईं लेकिन हर बार इसी बड़े सवाल पर आकर खत्म हो गईं कि मोदी के सामने कौन? किसी एक चेहरे पर सहमति नहीं बन पाती है. इस बार भी यही सवाल रहेगा. लेकिन पवार और प्रशांत किशोर शायद इस बड़े सवाल को हल करने के लिए किसी फार्मूले पर माथापच्ची जरूर कर रहे होंगे.
एक फार्मूला यह भी हो सकता है कि चुनाव के बाद सीटों की संख्या देख कर पीएम का नाम तय हो. लेकिन यह 1989 के हालात के विपरीत होगा जब वी पी सिंह ने पूरे देश में राजीव गांधी के खिलाफ माहौल बनाया था. वैसे तो अभी अगले लोकसभा चुनाव में तीन साल का वक्त है. उससे पहले कई राज्यों में चुनाव हैं जहां यूपी को छोड़ कर करीब-करीब हर राज्य में बीजेपी का सीधा मुकाबला कांग्रेस से है. ऐसे में कांग्रेस का वहां प्रदर्शन ही इस नए राष्ट्रीय मंच की भूमिका के बारे में कोई अंतिम निर्णय कर सकता है. उससे पहले राष्ट्रीय मंच को शायद एक बड़े संघीय प्लेटफॉर्म के रूप में विकसित करने का प्रयास हो जो क्षेत्रीय भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता हो और राज्य बनाम केंद्र के मुद्दों में मोदी सरकार से सीधे दो-दो हाथ कर सके.
(अखिलेश शर्मा NDTV इंडिया के एक्जीक्युटिव एडिटर हैं)
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