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This Article is From Nov 23, 2016

रवीश कुमार : क्या ख़ुश होना ही सबसे बड़ी ख़बर है...?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 23, 2016 17:07 pm IST
    • Published On नवंबर 23, 2016 13:12 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 23, 2016 17:07 pm IST
पिछले हफ्ते उत्तर प्रदेश के हिन्दी के दो अख़बारों में नोटबंदी पर सर्वे छपा. एक अख़बार के सर्वे में 80 फीसदी से ज़्यादा लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नोटबंदी के फैसले से ख़ुश पाए गए तो दूसरे अखबार के सर्वे में ख़ुश लोगों का प्रतिशत 80 से घटकर 45 हो गया. वैसे, सर्वे लगातार आ रहे हैं, जिनमें प्रधानमंत्री के फैसले से 80 प्रतिशत से ज़्यादा लोग ख़ुश बताए जा रहे हैं, और कहीं-कहीं तो ये लोग 90 प्रतिशत के करीब हैं. चैनलों के संवाददाता पूछते चल रहे हैं कि आप इस फैसले से खुश हैं. आम आदमी भी कह रहा है कि वह इस फैसले से खुश है. उसके कहते ही, चैनल ऐलान कर देता है - हां, हां, सब खुश हैं, बागों में बहार है...

मुझे नहीं मालूम, ख़ुद प्रधानमंत्री अपने फैसले से कितने प्रतिशत ख़ुश हैं. 100 प्रतिशत ख़ुश हैं या 87 प्रतिशत ख़ुश हैं. बाकी के 13 प्रतिशत में वह क्या हैं...? कुछ कम खुश हैं, थोड़े उदास हैं या चौथा विकल्प पता नहीं है. प्रधानमंत्री बार-बार भावुक क्यों हो रहे हैं...? क्या ये उनकी खुशी के आंसू हैं...? जापान में उन्हें हंसी क्या इसी खुशी के मारे आई थी कि शादी के घरों में पैसे नहीं हैं. क्या उन्हें किसी सर्वे ने बताया था कि जिन घरों में शादियां हैं, उनके परिवारों और रिश्तेदारों में भी 87 प्रतिशत ख़ुश हैं कि पैसे नहीं हैं. गोवा में प्रधानमंत्री क्यों रो दिए...? क्या उन्हें उन 13 प्रतिशत लोगों से दुख पहुंचा है, जो 87 फीसदी की तरह ख़ुश नहीं हैं. बीजेपी की बैठक में क्यों भावुक हो गए...? क्या 87 प्रतिशत से ज़्यादा जनता का साथ प्रधानमंत्री को भावुक बना रहा है...? क्या सर्वे के इस दौर में प्रधानमंत्री के मन का सर्वे नहीं होना चाहिए...?

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क्या किसी फैसले से खुश होना ही उसका अंतिम पैमाना है...? क्या ख़ुश होना ख़बर है...? मीडिया का काम पाठक को तरह-तरह की जानकारी देना है या पाठक की खुशी का पता लगाना है...? क्या मीडिया ने अपने सर्वे में लोगों से पूछा कि जब काला धन नकदी के रूप में बहुत कम है, अधिकांश मकान, दुकान, ज़मीन, फर्ज़ी कंपनियों और शेयरों के रूप में है, तो आप कैसे मानते हैं कि काला धन मिट गया. क्या आप शेयरों और फर्ज़ी कंपनी बनाकर काला धन छिपाने के तरीकों को समझते हैं...? आप सिर्फ ख़ुश हैं या वाकई जानते हैं कि क्यों ख़ुश हैं...? क्या आप यह सब भी सुनकर ख़ुश हैं कि काले धन वालों ने कमीशन देकर अपना पैसा सफेद कर लिया है...? क्या आप तब भी खुश हैं कि कोई सांसद, विधायक या नेता बैंकों की कतार में नोट बदलवाने नहीं गया, क्या आप यह मानते हैं कि नेताओं के पास काला धन नहीं है...? आप राजनेताओं के बारे में ग़लत थे, क्या आप यह मानते हैं...?

क्या नोटबंदी का असर सिर्फ बैंक की कतारों में हैं...? आलू के जिन किसानों को लाख-डेढ़ लाख रुपये का घाटा हुआ है, क्या वे भी खुश हैं...? क्या आलू किसानों की बर्बादी से भी लोग ख़ुश हैं...? मीडिया रिपोर्ट के अनुसार नोटबंदी के दौरान 70 से अधिक लोगों की मौत हुई है. क्या एक सर्वे यह नहीं होना चाहिए कि जिन परिवारों में लोग मरे हैं, उनके रिश्तेदारों में कितने प्रतिशत लोग नोटबंदी से ख़ुश हैं...? जो किसान अपनी फसल औने-पौने दाम में बेच गया, उसका कर्ज़ा बढ़ गया, क्या वह भी ख़ुश है...? क्या जिस मज़दूर का काम छिन गया, जिसे घर लौटना पड़ा, वह भी मारे खुशी के 87 परसेंट ख़ुश लोगों की जमात में समा गया है...? क्या उसकी तकलीफ के सवाल सर्वे में पूछे गए...?

आज ही एक रिपोर्ट आई है कि भारत में एक प्रतिशत अमीरों के पास भारत की कुल संपत्ति का 58 फीसदी है. क्या जनता को पता है कि हर 10 साल में अमीर ही और अमीर होता है. उसके पास भारत की कुल संपत्ति का आधे से भी ज्यादा है. बाकी बची आधे से भी कम संपत्ति में 99 प्रतिशत का हिस्सा है. क्या जनता अमीरों के पास इस धन संचय से ख़ुश है...? क्या जनता को पता है कि एक प्रतिशत अमीर लोगों ने इतनी संपत्ति कैसे हासिल की...? क्या जनता को यकीन है कि नोटबंदी के बाद अगली रिपोर्ट में उल्टा होगा...? एक प्रतिशत अमीर ग़रीब हो जाएंगे और 99 प्रतिशत ग़रीब अमीर हो जाएंगे, असमानता मिट जाएगी. कहीं ऐसा तो नहीं कि बाज़ार में कोई नई लाठी आई है, जिसका नाम ख़ुशी है, और जिससे सारे लोग हांके जा रहे हैं...? क्या ख़ुशी इस डर का नया नाम है...?

22 नवंबर को केंद्र के वित्त राज्यमंत्री ने राज्यसभा में एक आंकड़ा पेश किया. इसके अनुसार जून, 2016 तक 2,071 उद्योगपतियों का लगभग 3,90,000 करोड़ रुपये का कर्ज़ा NPA हो गया है. ये वे उद्योगपति हैं, जिन्होंने 50 करोड़ रुपये से ज़्यादा कर्ज़ा ले रखा है. सोचिए, चार या पांच लाख करोड़ की राशि जमा करने के लिए करोड़ों भारतीयों को दिनों तक लाइन में लगना पड़ा, लेकिन यहां तो कुल जमा 2,071 लोग करीब चार लाख करोड़ का कर्ज़ा लेकर हज़म कर गए. आपको चंपू लोग तकनीकी शब्दों में समझाएंगे कि यह कर्ज़ माफी नहीं है. आप बस किसानों से पूछ लीजिए कि क्या उनके लिए ऐसी कोई छूट है. मीडिया अगर यह बात बताए और फिर लोगों से पूछे कि क्या आप खुश हैं, तो कैसा जवाब मिलेगा...?

हर फैसले के बाद प्रधानमंत्री की लोकप्रियता को लेकर संदेह करना या उसकी पुष्टि करना, यह मीडिया का काम नहीं है. बेशक प्रधानमंत्री के फैसले से लोग ख़ुश हैं. यह उनकी साख ही है कि लोगों ने तकलीफ झेल ली. लोग उनके साथ हैं. हमारे सहयोगी मनीष कुमार ने कहा कि कोई दूसरा नेता होता तो स्थिति कानून व्यवस्था के बाहर चली जाती. प्रधानमंत्री के इस असर को अनदेखा नहीं किया जा सकता. हर ग़रीब को लग रहा है कि सब अमीरों का पैसा चला गया. अमीर मर गया. कौन आम आदमी काले धन के ख़िलाफ़ नहीं होगा...? होगा ही. मेरा सवाल है कि क्या प्रेस उसे बता रहा है कि अमीर कैसे मर गया है...? न वह लाइन में है, न बेचैन नज़र आ रहा है. कितने पत्रकार 'इंडियन एक्सप्रेस' की पनामा पेपर्स की रिपोर्टिंग की योग्यता रखते हैं...? क्या पत्रकार ख़ुद इस बात से संतुष्ट हैं कि काला धन मिट गया है...?

पूरे देश में ख़ुश लोगों की तलाशी का अभियान चल रहा है. बीच-बीच में अख़बारों और चैनलों में परेशान लोगों की आवाज़ मुखर होने लगी है, लेकिन काले धन के बनने, रूप बदलने या मिट जाने की प्रक्रिया की जानकारी कम है. पत्रकार लोग जिस तरह से दिन-रात ट्वीट कर रहे हैं कि पूरा भारत इस फैसले का स्वागत कर रहा है, मास्टरस्ट्रोक है. क्या ये पत्रकार या जानकार इस बात को समझ चुके हैं कि यह फैसला भारत के आर्थिक वर्तमान के लिए भी सही है...? याद रखिएगा, जब मंदी आई थी, तब ऐसे ही जानकार कह रहे थे कि स्वर्णयुग चल रहा है. क्या मीडिया का काम ख़ुश लोगों का प्रतिशत पता लगाना है या लोगों को बताना है कि इस फैसले का इस वक्त क्या असर हो रहा है. इसके असर से उन लोगों को नुकसान क्यों उठाना पड़ा, जो मेहनत और ईमानदारी का जीवन जीते हैं. क्या काले धन से लड़ाई की यह शर्त है कि बेईमानों के लिए ईमानदार तकलीफ उठाएंगे और कतार में लगेंगे...? क्यों न किसानों और मज़दूरों को जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई के लिए सरकार अतिरिक्त कर लगा दे.

अभी प्रधानमंत्री ने भी अपने पत्ते नहीं खोले हैं कि 1 जनवरी के बाद क्या-क्या करेंगे. किसी के पास ठोस जानकारी नहीं है. ज़ाहिर है, उसके बाद नए सिरे से समीक्षाएं होंगी. सर्वे के सवालों का मकसद साफ है. हर तरह के सवालों को एक बड़ी संख्या से बेमानी और बेईमान घोषित कर देना. इसके लिए इतनी मेहनत क्यों हो रही है. चंद लोग ही तो सवाल कर रहे हैं, सरकार चाहे तो बड़ी आसानी से नज़रअंदाज़ कर सकती है, क्योंकि 87 प्रतिशत तो फैसले से खुश हैं ही. प्रधानमंत्री ने एक ऐप जारी कर 10 सवालों का सर्वे जारी कर दिया है. यह एक किस्म का पर्सनल जनमतसंग्रह है. अगर जनमतसंग्रह ही कराना है तो यह काम चुनाव आयोग को दिया जाना चाहिए था. इसके सैम्पल की जांच स्वतंत्र रूप से होनी चाहिए. इसकी कानूनी वैधता क्या है, क्योंकि इस सर्वे का इस्तेमाल फैसले को वैधता प्रदान करने में ही किया जाएगा. अगर यह जनमत संग्रह है, तो इसमें सभी मतदाताओं को भाग लेने का मौका मिलना चाहिए. कई तरह के सवालों को शामिल किया जाना चाहिए.

प्रधानमंत्री ने जो 10 सवाल रखे हैं, उनमें यह नहीं पूछा गया कि क्या लोकपाल की नियुक्ति को ठंडे बस्ते में डालना सही फैसला है...? क्या आप मानते हैं कि नोटबंदी के बाद लोकपाल की कोई ज़रूरत नहीं है...? क्योंकि लोकपाल के समय भी ऐसे ही सर्वे होते थे और 125 करोड़ को लोकपाल का समर्थक बताया जाता था. अब वे 125 करोड़ कहां चले गए हैं...? जिस देश में तमाम सर्वे के पिट जाने का इतिहास रहा हो, वहां इन दिनों नोटबंदी के फैसले से 87 प्रतिशत खुश लोगों वाले सर्वे की काफी पूछ हो गई है.

भारत में 35 प्रतिशत लोग इंटरनेट से जुड़े हैं. करोड़ों स्मार्टफोन हैं. ज़रूरी नहीं कि हर भारतीय के पास स्मार्टफोन हो. यह भी ज़रूरी नहीं कि जिसके पास स्मार्टफोन है, उसके पास मोबाइल इंटरनेट हो. हमें बताया जाना चाहिए कि कितने करोड़ स्मार्टफोन बग़ैर इंटरनेट के चल रहे हैं. गांवों में इंटरनेट की पहुंच बहुत कम है. क्या प्रधानमंत्री के सर्वे में गांवों वालों को शामिल होने का हक नहीं है. क्या प्रधानमंत्री अपने सर्वे को सिर्फ शहरी और इंटरनेट-संपन्न लोगों को ही शामिल करना चाहेंगे...? उनका हर फ़ैसला ग़रीबों के लिए होता है, तो सर्वे के इस फ़ैसले में ग़रीब क्यों नहीं हैं. उन्हें झुग्गी बस्तियों में मोबाइल वैन भेजकर इस ऐप से सर्वे कराना चाहिए. उन बुनकरों के पास भी, जिनका रोज़गार चला गया है. उन किसान और मज़दूरों के पास भी, जिनका काम छिन गया है. सिर्फ अंग्रेज़ी बोलने वालों का सर्वे नहीं होना चाहिए. न ही इस बात का कि क्या आप नोटबंदी के फैसले से ख़ुश हैं...?

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