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This Article is From Sep 06, 2018

निजता में घुसपैठ सरकार का काम नहीं

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 06, 2018 23:52 pm IST
    • Published On सितंबर 06, 2018 23:52 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 06, 2018 23:52 pm IST
कई बार सर्वोच्च अदालत के कुछ फैसलों को इसलिए नहीं पढ़ा जाना चाहिए कि वो आपके हिसाब से आया है, बल्कि इसलिए भी पढ़ा जाना चाहिए कि फैसले तक पहुंचने से पहले तर्कों की प्रक्रिया क्या है. उसकी भाषा क्या है, भाषा की भावना क्या है. हमारे न्यायधीश महोदय अपने फैसलों में विद्वता के जो निशान छोड़ जाते हैं उनमें कभी कोई कविता प्रवाहित होती दिख जाती है तो कई बार शानदार गद्य नज़र आ जाता है. आईपीसी की धारा 377 को समाप्त करने का फैसला जिस संवैधानिक बेंच ने दिया है उसमें शामिल चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस एम खानविलकर, जस्टिस रोहिंगटन एफ़ नरीमन, जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा इतिहास में याद किए जाएंगे.

अफसोस 6 सितंबर 2018 से शुरू हो रही इतिहास की इस यात्रा में भारत सरकार शामिल नहीं है. जिसे अदालती अंग्रेजी में यूनियन ऑफ इंडिया लिखा जाता है उसका कोई पक्ष नहीं है. संविधान की आत्मा, चेतना, धड़कनों का विस्तार करते हुए समाज को समावेशी बनाने की व्याख्या करने वाले इस फैसले में संविधान को लागू करने की सबसे बड़ी इकाई जिसे हम भारत सरकार कहते हैं,शामिल नहीं है. जिस फैसले में व्यक्ति की शख्सियत, उसकी पसंद, उसके संबंध, यौन संबंध, प्रेम संबंध, उसकी सोच, उसके अहसास, उसकी निजता, उसके हमसफ़र की शानदार व्याख्या हुई है उस व्याख्या में भारत सरकार का कोई पक्ष नहीं है. इतिहास के इस शानदार मोड़ पर सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संवैधानिक पीठ का फैसला खड़ा है, नागरिकों का वह समूह खड़ा है जो तमाम सामाजिक मान्यताओं को ठुकराते हुए उस समूह को अपना समर्थन देता है जिसके लिए आज का फैसला आया है. जिन्हें इस फैसले में सेक्सुअल माइनॉरिटी कहा गया है जिसके लिए आज कल LGBTIQ कहा जाता है यानी LESBIAN, GAY, BISEXUAL, TRANSSEXUAL, INTERSEX AND QUEER. जिस फैसले में समाज की धार्मिक मान्यताओं, मूर्खताओं, जड़ताओं, पूर्वाग्रहों, संकीर्णता की धज्जियां उड़ाई गईं है, उस फैसले में भारत सरकार का कोई पक्ष नहीं है. सदियों से चली आ रही जो भ्रांतियां अदालत की व्याख्याओं के सामने टिक नहीं सकीं, उन भ्रांतियों के खिलाफ भारत सरकार अपना पक्ष रखती तो आज का दिन और बड़ा हो जाता. आज के फैसले में भारत सरकार यूनियन ऑफ इंडिया का कोई पक्ष न होना बता रहा है कि सामाजिक कुरीतियों, भ्रांतियों, जड़ताओं के साथ कौन कहां खड़ा है. माननीय न्यायधीशों ने लिखा है कि संविधान पीठ के सामने जो सवाल है कि आईपीसी की धारा 377 संवैधानिक रूप से वैध है या नहीं, इसका दायरा एकांत में व्यस्कों के बीच सहमति के संबंधों तक जाता है या नहीं, इस पर भारत सरकार अदालत के विवेक पर छोड़ती है. यानी उसने अपना कोई पक्ष नहीं रखा. कोई राय नहीं रखी.

अब आते हैं इस फैसले के अन्य पहलू पर. वक्त कम है और सारा कुछ यहां नहीं रखा जा सकता, कुछ पन्ने हमने भी छोड़ दिए मगर जब भी जहां भी नज़र पड़ी है, जज साहिबान ने शानदार कलम चलाई है.

समलैंगिक संबंध और यौन संबंध के खिलाफ कई तरह की दलीलें दी गईं. 377 को मान्यता दी गई तो लोग धमका कर मजबूर करेंगे. एड्स हो जाएगा. परिवार की संस्था तबाह हो जाएगी. मर्द और मर्द या स्त्री या स्त्री शादी करेंगे तो शादी की संस्था तबाह हो जाएगी. पैसे देकर युवाओं को होमोसेक्सुअल बनाया जाने लगेगा. होमोसेक्सुअल प्राकृतिक नहीं है. बीमारी है. एक अरसे से भारत का समाज तरह तरह की भ्रांति और डर को ढो रहा है. आज संविधान पीठ ने यही कहा है कि इस भय और भ्रांति को बदल दीजिए, 1861 का यह कानून अंग्रेज़ी हुकूमत के दौर की सामाजिक मान्यताओं को ढो रहा था. प्राइवेट स्पेस में दो एडल्ट वयस्क जब सेक्स करते हैं तब यह अपराध नहीं होगा. सेम सेक्स यानी मर्द का मर्द के प्रति आकर्षण प्राकृतिक है और स्वाभाविक है. जन्म से भी है और जन्म के बाद अहसासों की विकास यात्रा से भी है. जिसे बदला जा सकता है, जिसे पाया जा सकता है. बहुत लोग इन नाचते गाते नौजवानों को देखकर हंस सकते हैं, मज़ाक उड़ा सकते हैं, लेकिन जब आप इस फैसले के संदर्भ में सोचेंगे समझेंगे तो आप भी इस छोटे से समूह की खुशी में शामिल हो जाएंगे.

आज के इस फैसले को अभी बहुत दूर जाना है. यह फैसला LGBTIQ समुदाय को आपके बीच आकर अपनी बात रखने का एक बड़ा अवसर देगा गे, लेस्बियन, होमोसेक्सुअल अपराधी नहीं हैं. उनकी अंतरंगता अपराध नहीं है.

संविधान पीठ ने कहा है कि अंतरंगता और निजता किसी की अपनी पंसद है. समलैंगिकता कोई मानसिक विकार नहीं है. यह लाइन खासकर वो लोग ज़रूर सुनें जो अक्सर धर्म गुरु का चोला पहनकर आ जाते हैं. उन संगठनों के लोग सुनें जिनकी भ्रांतियां, मूर्खताएं आज अदालत में परास्त हो गई हैं. उन्हें भादो में पाला मार गया है. इस फैसले में जस्टिस डी वाई चंदचूड़ ने कहा कि 'ये कानून 150 साल पहले बना. इसके 87 साल बाद भारत आज़ाद हुआ और ये क़ानून आज तक बना रहा. LGBT समुदाय को भी दूसरों की तरह समानता का अधिकार हासिल है. यौन प्राथमिकताओं को 377 के ज़रिए निशाना बनाया गया. राज्य का काम किसी नागरिक की निजता में घुसपैठ करना नहीं है.'

इतिहास को LGBT समुदाय से, उनके परिवारों से माफ़ी मांगनी चाहिए. सदियों से हो रहे भेदभाव, यातना से इंसाफ़ मिलने में जो देरी हुई है उसके लिए माफ़ी मांगनी चाहिए. इस समुदाय के सदस्य डर का जीवन जीने के लिए मजबूर किए गए हैं. बहुसंख्यक समाज ने मान्यता देने में नासमझी की कि समलैंगिकता पूरी तरह से प्राकृतिक है और इंसानी यौन प्राथमिकताओं के विशाल दायरे का एक हिस्सा है. धारा 377 का ग़लत इस्तेमाल अनुच्छेद 14 से मिले समानता के मौलिक अधिकार, अनुच्छेद 15 से मिले बिना किसी भेदभाव के मौलिक अधिकार और अनुच्छेद 21 से मिले निजता के अधिकार से वंचित कर रहा था. LGBT लोगों को बिना किसी शिकंजे के जीने का अधिकार हासिल है.

शेक्सपियर के नाटक में एक किरदार कहता है कि नाम में क्या रखा है. हम गुलाब को किसी और नाम से पुकारें, उसकी महक वैसी ही रहेगी. इस संवाद की मूल भावना यही है कि किसी भी चीज़ की मौलिक ख़ूबियां मायने रखती हैं न कि वह किस नाम से पुकारा जाता है. इसके अर्थ की और गहराई में उतरेंगे तो समझ आएगा कि पहचान की सुविधा के लिए नाम भले ज़रूरी हो लेकिन इसके पीछे का जो सार है वही पहचान का मूल है. बिना पहचान के नाम का काम सजावटी रह जाता है. इसलिए किसी के होने के लिए पहचान ज़रूरी है. पहचान का आधार ही जीवन का तार है. पहचान दिव्यता के समान है.

जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस खानविलकर अपनी बात जर्मन कवि और चिंतक योहान वोल्फ़गांग फॉन गोयथे की बात से शुरू करते हैं कि मैं जो हूं सो हूं इसलिए मुझे वही समझें, जो हूं. इसके बाद एक और जर्मन विद्वान आर्थर शोपेनहावर की एक लाइन है कि No one can escape from their individuality यानी कोई अपनी शख्सियत से पीछा नहीं छुड़ा सकता है. इस ऐतिहासिक फैसले में में दिल्ली हाईकोर्ट के तब के चीफ जस्टिस अजित प्रकाश शाह और जस्टिस एस मुरलीधर भी शामिल हैं. दोनों ने 2 जुलाई 2009 को यही फैसला दिया था जो आज सुप्रीम कोर्ट ने दिया है.

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