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This Article is From Jan 30, 2017

भारत में स्कूली शिक्षा और लोक व्यय की पड़ताल

Sachin Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 30, 2017 16:31 pm IST
    • Published On जनवरी 30, 2017 16:30 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 30, 2017 16:31 pm IST
• पांचवी कक्षा में पढ़ने वाला बच्चा अपना नाम भी नहीं लिख पा रहा है.
• विद्यालय में शिक्षक नहीं हैं, यदि नियुक्त हैं, तो आते नहीं हैं. आते भी हैं, तो उपस्थिति पंजी में हस्ताक्षर करके वापस चले जाते हैं.
• विद्यालय हैं, किन्तु एक ही कमरे में तीन या चार कक्षाएं चल रही हैं.
• एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट दस साल से जारी हो रही है. हर बार यह रिपोर्ट बताती है कि पांचवी कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे दूसरी का पाठ नहीं पढ़ पाते हैं. आठवीं के बच्चों को जोड़ना–घटाना–भाग देना नहीं आता है. इस साल की यही रिपोर्ट  कहती है कि तीसरी कक्षा में पढ़ने वाले 42.3 प्रतिशत बच्चे कक्षा एक की सामग्री पढ़ पाते हैं.
• कक्षा आठ में पढ़ने वाले 73.1 प्रतिशत कक्षा दो की सामग्री पढ़ पाते हैं.
• कक्षा तीन के 27.7 प्रतिशत बच्चे दो अंकों वाला घटाना कर पाते हैं, जबकि कक्षा पांच के 26 प्रतिशत बच्चे ही सामान्य भाग दे पाते हैं.

सचमुच हम समाज को शिक्षित नहीं बना पा रहे हैं. स्कूलों की स्थिति बहुत खराब है. आखिर यह स्थिति खराब क्यों है? क्या शिक्षक नहीं चाहते हैं कि बच्चे शिक्षित इंसान न बनें? जब दशकों से सरकारों को यह पता है कि स्कूलों में शौचालय नहीं हैं या पीने का पानी नहीं या शिक्षक नहीं हैं, तो फिर भी स्थिति क्यों नहीं बदली? स्थिति इसलिए नहीं बदलती क्योंकि शिक्षा का मामला राजनीति और नीति के स्तर पर जुबानी प्रतिबद्धता का विषय है, क्रियान्वयन की प्रतिबद्धता का नहीं.

इस पर भी पिछले 26 सालों में हमारी सरकारों ने मान लिया है कि शिक्षा का निजीकरण (शिक्षा एक मुनाफा देने वाला बाज़ार है) ही सबसे उचित विकल्प है. संविधान के भीतर मौलिक अधिकार बनने के बावजूद, इस विषय को सबसे ज्यादा सरकारों ने ही नज़रअंदाज़ किया है. सरकारें एक सौ रूपये में से केवल 25 पैसे निगरानी और निरीक्षण पर और 40 पैसे शिक्षकों के प्रशिक्षण पर खर्च करती हैं. भारत में बुनियादी शिक्षा व्यवस्था में ही अभी 5 लाख शिक्षकों के पद खाली हैं, जबकि 1.05 लाख सरकारी स्कूल केवल एक शिक्षक के भरोसे पर हैं.

इन सब बातों का मतलब यह नहीं है कि सरकारी शिक्षा व्यवस्था को बंद कर दिया जाए. इस विश्लेषण का मकसद यह है कि हम लोक शिक्षा को मजबूत, जवाबदेह और गुणवत्तापूर्ण बनाने की दिशा में आगे बढ़ें.

अबसे कुछ दिनों पहले (दिसंबर 2016 में) सेंटर फार बजट गवर्नेंस एंड अकाउंटेबिलिटी (सीबीजीए) ने चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राय) के सहयोग से भारत में शिक्षा पर लोक व्यय पर एक बहुत गंभीर अध्ययन जारी किया. यह अध्ययन बताता है कि भारत के राज्यों में वास्तव में स्कूली शिक्षा व्यवस्था पर सरकारों की तरफ से कितनी राशि खर्च की जा रही है?

पृष्ठभूमि
स्वतंत्रता के बाद से ही शिक्षा के लोकव्यापीकरण और गुणवत्ता को सुनिश्चित किये जाने की जरूरत महसूस की जा रही थी. वर्ष 1964 में कोठारी कमीशन ने कहा था कि सरकार को सकल राष्ट्रीय उत्पाद की छह प्रतिशत हिस्सा पर खर्च करना चाहिए. और यह लक्ष्य वर्ष 1985-86 तक हासिल कर लिया जाना चाहिए. यह लक्ष्य हासिल नहीं हुआ. वर्ष 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने भी इसी जरूरत को दोहराया.

इसके बाद निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार संविधान के मौलिक अधिकारों में शामिल हो गया और वर्ष 2009 में इसका क़ानून भी बन गया. इस दौरान दो बातें सामने आती हैं-पहला कि कोठारी कमीशन की अनुशंसा की उम्र 53 साल हो चुकी है, पर वह आज तक लागू नहीं हुई. दूसरी बात यह कि क्या नए संदर्भों में भी, जिसमें शिक्षा के प्रतिमान, स्वरूप, चरित्र और मकसद पूरी तरह से बदल गए हैं, उसमें क्या सकल घरेलू उत्पाद का छह प्रतिशत व्यय पर्याप्त होगा? अब यह माना जा रहा है कि सरकारों को अब सकल घरेलू उत्पाद का दस प्रतिशत हिस्सा शिक्षा पर व्यय करना होगा.

शिक्षा पर लोक व्यय (यानी केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा किया जाने वाला खर्च)
सीबीजीए की रिपोर्ट से पता चलता है कि वर्ष 2004-05 में भारत में स्कूली शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का 2.1 प्रतिशत व्यय हो रहा था. जिस साल (2009-10) शिक्षा का अधिकार क़ानून आया, उस साल यह व्यय 2.5 प्रतिशत था. पिछले 14 सालों में वर्ष 2013-14 में सबसे ज्यादा आवंटन (3.3 प्रतिशत) हुआ. पर इसके बाद फिर सरकारों ने शिक्षा पर व्यय कम करना शुरू कर दिया. जीडीपी के संदर्भ में वर्ष 2015-16 में कुल 2.68 प्रतिशत के बराबर का आवंटन किया गया. ऐसा लगता है कि मानव विकास के लिए जरूरी क्षेत्रों पर कम और गैर-जरूरी क्षेत्रों पर सरकारें ज्यादा खर्च कर रही हैं.

राज्यों की स्थिति
यह देखना जरूरी है कि सरकारों ने अपने बजट से स्कूली शिक्षा के लिए जो आवंटन और व्यय किया, वह जीएसडीपी का कितना हिस्सा बनता है. पिछले चार सालों में जीएसडीपी (सकल राज्य घरेलू उत्पाद) के संदर्भ में स्कूली शिक्षा पर व्यय लगातार कम हुआ है. इस अध्ययन से पता चलता है कि मध्य प्रदेश में वर्ष 2012-13 में इस पर 4.6 प्रतिशत व्यय किया गया था, किन्तु यह आवंटन वर्ष 2013-14 में घट कर 4.3 प्रतिशत, फिर अगले साल 3.4 प्रतिशत पर आ गया. वर्ष 2015-16 में शिक्षा पर लोक व्यय 3.7 प्रतिशत रहा. नगालैंड (वर्ष 2015-16 में) ने जीएसडीपी का 13.2 प्रतिशत, अरुणाचल प्रदेश ने 7.2 प्रतिशत और असम ने 5.6 प्रतिशत आवंटन किया.

कम संसाधनों के बावजूद बिहार स्कूली शिक्षा में सुधार के लिए संघर्ष कर रहा है. वहां वर्ष 2012 में 5.5 प्रतिशत, वर्ष 2013 में 4.7 प्रतिशत, वर्ष 2014 में 6.2 प्रतिशत और वर्ष 2015 में 6.6 प्रतिशत आवंटन किया गया. केवल बिहार ही ऐसा बड़ा राज्य है, जिसने 6 प्रतिशत के स्तर को छुआ है.

उत्तर प्रदेश में इन चार सालों में शिक्षा पर लोक व्यय जीएसडीपी का 4.9 प्रतिशत, 4.6 प्रतिशत, 4.1 प्रतिशत और 5.0 प्रतिशत रहा. ओडिशा ने जीएसडीपी का 3.3 प्रतिशत, 3.3 प्रतिशत, 3.3 प्रतिशत और 3.9 प्रतिशत आवंटन किया. राजस्थान ने 3.2 प्रतिशत, 3.4 प्रतिशत, 3.5 प्रतिशत और 3.5 प्रतिशत आवंटन किया.

सबसे खराब हालत वाले राज्य
पंजाब जीएसडीपी की केवल 2.1 से 2.3 प्रतिशत तक की व्यय स्कूली शिक्षा पर कर रहा है. गोवा ने 1.9 प्रतिशत से 2.3 प्रतिशत, कर्नाटक ने 2.5 प्रतिशत से 2.2 प्रतिशत, गुजरात ने 2.2 प्रतिशत और तमिनाडु ने 2.4 प्रतिशत से 2.1 प्रतिशत संसाधन स्कूली शिक्षा को आवंटित किये. आंध्र प्रदेश की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है. वहां 2.7 प्रतिशत से 2.3 प्रतिशत का आवंटन हुआ. जरा सोचिये कि देश में आर्थिक विकास के गढ़ महाराष्ट्र, बड़े सूचना प्रौद्योगिकी के केंद्र वाले राज्यों (कर्नाटक और आंध्र प्रदेश), शिक्षा के पारंपरिक केंद्र कोलकाता वाले पश्चिम बंगाल में स्कूली शिक्षा किस तरह ध्वस्त की जा रही है.    

राज्य के बजट में स्कूली शिक्षा का हिस्सा
सीबीजीए के अध्ययन से पता चलता है कि ज्यादातर राज्यों में पिछले चार सालों में शिक्षा के बजट की हिस्सेदारी कम होती दिख रही है.

महाराष्‍ट्र– वर्ष 2012-13 में कुल राज्य बजट का 19.9 प्रतिशत स्कूली शिक्षा पर व्यय हुआ. यह आवंटन घट कर वर्ष 2015-16 में 18 प्रतिशत पर आ गया.

बिहार– वर्ष 2012-13 में स्कूली शिक्षा के लिए राज्य बजट का 23.5 प्रतिशत शिक्षा के लिए था, जो वर्ष 2015-16 में 17.7 प्रतिशत रह गया.

राजस्थान– वर्ष 2012 में राज्य बजट में शिक्षा की हिस्सेदारी 18.8 प्रतिशत से घट कर 16.7 प्रतिशत पर आ गई.

उत्तर प्रदेश– वर्ष 2012-13 में शिक्षा के लिए राज्य बजट का 22.1 प्रतिशत हिस्सा खर्चा किया गया था, किन्तु यह चार साल में घट कर 17.2 प्रतिशत पर आ गया.

मध्य प्रदेश– यह तय है कि मध्य प्रदेश सरकार सामाजिक बदलाव के विषयों को प्राथमिकता नहीं दे रही है. चार सालों में शिक्षा के आवंटन राज्य बजट का हिस्‍सा 20.7 प्रतिशत से गिर कर 15.9 प्रतिशत पर आ गया.

आंध्र प्रदेश– राज्य ने वर्ष 2012 में 15.9 प्रतिशत आवंटन किया था, जो घट कर 12 प्रतिशत पर आ गया.

तमिलनाडु– वर्ष 2012 में शिक्षा का हिस्सा 14.7 प्रतिशत से घट कर 13.4 प्रतिशत पर आ गया.

गुजरात– आर्थिक उन्नति का दावा करने वाले गुजरात में राज्य बजट में शिक्षा का हिस्सा 16 प्रतिशत से गिर कर 14.9 प्रतिशत पर आ गया.

प्रति बच्चा शिक्षा व्यय
अखिल भारतीय स्तर पर स्कूली शिक्षा के लिए 12717 रुपये प्रति बच्चा प्रति वर्ष का आवंटन हुआ था वर्ष 2015-16 में. हमें यह ध्यान रखना होगा कि यह औसतन व्यय और आवंटन है और कई बच्चे अब भी स्कूल से बाहर हैं. इस अध्ययन से स्कूली शिक्षा पर होने वाले व्यय में जमी हुई गैर-बराबरी सामने उभर कर आती है. जरा देखिये कि सिक्किम में एक बच्चे की शिक्षा पर 59791 रूपये और मिजोरम में 35698 रूपये का व्यय तय किया गया. गोवा में वर्ष 2015-16 में शिक्षा पर प्रति बच्चा व्यय 38751 रूपये था, जबकि बिहार में 8526 रूपये. अन्य राज्यों का व्यय इस प्रकार है-

• केरल – 23566 रूपये/बच्चा/वर्ष

• महाराष्ट्र – 18035 रूपये/बच्चा/वर्ष

• दिल्ली – 17691 रूपये/बच्चा/वर्ष

• छत्तीसगढ़ – 17223 रूपये/बच्चा/वर्ष

• तमिलनाडु- 16939 रूपये/बच्चा/वर्ष

• गुजरात– 15411 रूपये/बच्चा/वर्ष

• मध्य प्रदेश- 11330 रूपये/बच्चा/वर्ष

• उत्तर प्रदेश– 9167 रूपये/बच्चा/वर्ष

• झारखंड – 9169 रूपये/बच्चा/वर्ष

प्रति छात्र व्यय बनाम प्रति बच्चा व्यय

जब यह देखा जाता है कि एक छात्र के हिसाब से कितना आवंटन हुआ, तब कई अन्य विसंगतियों के बारे में अंदाजा लगता है. भारत के स्तर पर वर्ष 2014-15 में एक बच्चे के लिए औसतन व्यय 10700 रूपया था, पर प्रति छात्र आवंटन 13974 रूपये था. इसी तरह मध्य प्रदेश में एक बच्चे के लिए व्यय 8840 रूपये था पर एक छात्र के लिए 11771 रूपये था. यह अंतर इसलिए दिखाई देता है क्योंकि अब भी कई बच्चे स्कूल व्यवस्था से बाहर हैं. अतः यह नहीं माना जा सकता है कि प्रति बच्चा व्यय ही प्रति छात्र व्यय होगा.

कहां खर्च होता है शिक्षा का बजट?

शिक्षकों का वेतन
क्या वास्तव में भारत में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करने की मंशा है? यह सही है कि शिक्षक, शिक्षा व्यवस्था की महत्वपूर्ण कड़ी होते हैं, पर यह समझा जाना जरूरी है कि शिक्षकों के वेतन के खर्चे के बाद वास्तव में शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए कितना धन बचता है!

बिहार में स्कूली शिक्षा के कुल बजट का 51.6 प्रतिशत हिस्सा शिक्षकों के वेतन पर खर्चा होता है. इसके बाद झारखंड में 54 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 60.8 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 63.7 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 68.8 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 74.5 प्रतिशत और राजस्थान में 80.4 प्रतिशत बजट केवल शिक्षकों के वेतन पर खर्च होता है.

शिक्षकों के लिए प्रशिक्षण
शिक्षा की गुणवत्ता में सबसे अहम् स्थान है शिक्षकों के प्रशिक्षण का. यह एक कड़वा सच है कि शिक्षक प्रशिक्षण पर सरकारों की कोई रुचि नहीं है. मध्य प्रदेश में इस काम पर शिक्षा बजट का 0.20 प्रतिशत, ओडिशा में 0.30 प्रतिशत, तमिलनाडु में 0.30 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 0.28 प्रतिशत, राजस्थान में 0.31 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 0.40 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 0.56 प्रतिशत ही व्यय किया जाता है. बिहार एक ऐसा राज्य है जो शिक्षक प्रशिक्षण पर कुल शिक्षा बजट का 1.60 प्रतिशत हिस्सा व्यय करता है.

निरीक्षण और निगरानी की व्यवस्था
एक मायने में पारदर्शिता, जवाबदेहिता और सुधार के नज़रिए से शिक्षा व्यवस्था में निरीक्षण और निगरानी की व्यवस्था को मज़बूत बनाए जाने की जरूरत रही है. इस काम में शाला प्रबंधन समिति की भी अहम भूमिका होती है. परंतु हमारे यहां यह पहलू पूरी तरह से ध्वस्त है.

छत्तीसगढ़ में शिक्षा व्यवस्था के निरीक्षण और निगरानी के लिए 0 प्रतिशत, कर्नाटक में 0.04 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 0.05 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 0.30 प्रतिशत, महाराष्ट्र 0.50 प्रतिशत, झारखंड 0.90 प्रतिशत, राजस्थान 0.80 प्रतिशत हिस्सा खर्च करते हैं. तमिलनाडु और ओडिशा इन मद में 1.20 प्रतिशत व्यय करते हैं.

शिक्षा के प्रोत्साहन के लिए व्यय
सभी को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले, इसके लिए जरूरी होता है शिक्षा के रास्ते में आने वाली बाधाओं से पार पाना. मध्य प्रदेश और बिहार में जब बच्चों को साइकिल दी गई,  तो स्कूल में बच्चों के नामांकन और उपस्थिति में जबरदस्त इजाफा हुआ. इसके साथ ही छात्रवृत्ति और छात्रावासों की व्यवस्था ने भी बड़ी भूमिका निभाई. बहरहाल अब भी छात्रावासों की स्थिति और कई स्तरों पर गैर-जवाबदेहिता के कारण बच्चों तक जरूरी लाभ नहीं पहुंच पाते हैं.

बिहार शिक्षा के प्रोत्साहन के लिए कुल स्कूल शिक्षा बजट का 21.9 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश 12.1 प्रतिशत, ओडिशा 11.8 प्रतिशत और मध्य प्रदेश 10.1 प्रतिशत हिस्सा खर्च करते हैं. इसके दूसरी तरफ महाराष्ट्र 1.9 प्रतिशत, कर्नाटक 4.7 प्रतिशत, तमिलनाडु 7.8 प्रतिशत और छत्तीसगढ़ 7.9 प्रतिशत हिस्सा खर्च करते हैं.

अधोसंरचना पर व्यय
स्कूलों की ढांचागत-अधोसंरचना व्यवस्थाओं को बेहतर करना आज एक बड़ी जरूरत है. तमिलनाडु इस पर अपने कुल शिक्षा बजट का 2.6 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश 3.2 प्रतिशत, महाराष्ट्र 3.8 प्रतिशत, राजस्थान 5.4 प्रतिशत, मध्य प्रदेश 6.3 प्रतिशत, बिहार 7.2 प्रतिशत, झारखंड 12.5 प्रतिशत और ओडिशा 13.3 प्रतिशत व्यय कर रहा है.

शिक्षा व्यवस्था के महत्वपूर्ण पहलू
यह अध्ययन बताता है कि भारत में 4.34 प्रतिशत बच्चे बुनियादी शिक्षा के स्तर पर ही स्कूल छोड़ देते हैं. मध्य प्रदेश में सबसे ज्यादा 10.14 प्रतिशत बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं, जबकि झारखंड में 6.41 प्रतिशत और राजस्थान में 8.39 प्रतिशत बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं. स्थिति माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर गंभीर हो जा रही है. ओडिशा में 49.5 प्रतिशत, कर्नाटक में 27.6 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 26.5 प्रतिशत बच्चे स्कूली शिक्षा छोड़ देने के लिए मजबूर हैं.

भारत में लगभग एक तिहाई बच्चे माध्यमिक कक्षा से निकल कर उच्चतर माध्यमिक कक्षा में प्रवेश नहीं कर पाते हैं. बिहार में 55.6 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 41.5 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 54.3 प्रतिशत बच्चे ही उच्चतर माध्यमिक कक्षा में जा पाते हैं.   

मौजूदा विकास की परिभाषा में समान और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का लक्ष्य कहीं पीछे छूट रहा है. कहीं ऐसा तो नहीं है कि सरकार केवल कौशल शिक्षा की तरफ बढ़ने का मन बना चुकी है और तार्किक-सक्रिय नागरिक गढ़ने वाली शिक्षा के प्रति वह उदासीन होती जा रही है. कहीं ऐसा तो नहीं है कि बस बाज़ार की जरूरत को पूरा करने वाले कारीगर पैदा करने वाली नीतियां बनती रहें और बुनियादी शिक्षा का लक्ष्य विकास की बलि चढ़ा दिया जाए. सच तो यह है कि शिक्षा के प्रति राज्य की संवेदनशीलता का एकमात्र पैमाना है- लोक शिक्षा व्यवस्था यानी सरकारी व्यवस्था में होने वाला विकास, शिक्षा का निजीकरण कभी नागरिक जिम्मेदारियों को पूरा नहीं करेगी, यह भूमिका संवैधानिक रूप से सरकारों को निभानी होगी. 

(सचिन जैन, शोधार्थी-लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

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