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भारत की अदालतों को मिली औपनिवेशिक मानसिकता से आज़ादी

Harish Chandra Burnwal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 05, 2024 15:00 pm IST
    • Published On सितंबर 05, 2024 15:00 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 05, 2024 15:00 pm IST

"अंगेन गात्रं नयनेन वक्त्रं, न्यायेन राज्यं लवणेन भोज्यम्..."

हमारे यहां न्याय की संकल्पना से जुड़ा संस्कृत का यह श्लोक बताता है कि जिस प्रकार अंगों से शरीर की, आंखों से चेहरे की और नमक से खाने की सार्थकता पूरी होती है, उसी प्रकार देश के लिए न्याय भी उतना ही महत्वपूर्ण है. भारत की सनातन परंपरा में जीवन के चार पुरुषार्थों - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में धर्म को पहला स्थान दिया गया है, और उस धर्म की स्थापना के लिए न्याय और मज़बूत न्यायिक तंत्र पहली ज़रूरत है. इसी भारतीय परंपरा की आधुनिक शुरुआत 28 जनवरी, 1950 को तब हुई, जब स्वतंत्र भारत में न्यायिक तंत्र के सर्वोच्च शिखर - उच्चतम न्यायालय, यानी सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गई. इस साल देश सर्वोच्च न्यायालय की 75वीं वर्षगांठ, यानी हीरक वर्षगांठ मना रहा है. स्वतंत्रता के 75 साल बाद 1 सितंबर को सर्वोच्च न्यायालय को अपना एक झंडा और प्रतीक चिह्न मिला. नीले रंग के इस झंडे का अनावरण राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने किया. झंडे पर जिन चीज़ों को दर्शाया गया है, उनमें भारतीय सनातन परंपरा और संस्कृति की झलक मिलती है. सूक्त वाक्य तो सीधे-सीधे महाकाव्य महाभारत से उद्धृत किया गया है.

75 साल बाद भारत में न्याय का प्रतीक बदला

28 जनवरी, 1950 से, जब से इस देश में सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना हुई, तभी से इस देश के आमजन की यही धारणा रही है कि न्याय का प्रतीक, न्याय की देवी हैं. इनके एक हाथ में एक तराज़ू है और एक हाथ में तलवार और उनकी आंखों पर पट्टी बंधी हुई है. इस देवी को लेडी जस्टिस कहा जाता है, जो ग्रीस और मिस्र की परंपरा है. प्रतीक की इस परंपरा को भी भारत में फिल्मों और मीडिया के माध्यमों से स्वीकार्यता मिली, क्योंकि हमारे पास अपने न्यायिक तंत्र के लिए कोई प्रतीक नहीं था. लेकिन इस साल 1 सितंबर को इस परंपरा में भी तब बदलाव आ गया, जब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने भारत के न्याय तंत्र को एक प्रतीक दिया.

इस प्रतीक चिह्न में सर्वोच्च न्यायालय के भवन, अशोक स्तंभ और संविधान की प्रति के नीचे संस्कृत श्लोक 'यतो धर्मस्ततो जय' लिखा है. इसका अर्थ होता है 'जहां धर्म है, वहां विजय है'. यह प्रतीक उस सनातन परंपरा को स्थापित करता है, जिसकी मान्यता है कि धर्म धारण करने वाले की ही विजय होती है. यह महान श्लोक महाभारत महाकाव्य में जहां से लिया गया है, उसका पूरा वाक्य है 'यतः कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जयः, अर्थात् जहां कृष्ण हैं, वहां धर्म है और वहीं विजय है. भारत के न्यायिक तंत्र को मिला यह प्रतीक इस सत्य का उद्घोष है कि धर्म की विजय और उसकी स्थापना के लिए कृष्ण सार्वभौमिकता को स्वीकार करना आवश्यक है, जबकि लेडी जस्टिस के प्रतीक का अर्थ था कि न्याय की देवी अंधी हैं, वह सिर्फ सबूतों और गवाहों के आधार पर निर्णय देती हैं.

प्रतीक, हमारी सोच और समझ की कूट भाषा होती है, जो हर समय हमारे अवचेतन को एक विशेष उद्देश्य की ओर प्रेरित करती है. न्याय तंत्र में इसी प्रेरणा को जाग्रत करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायमूर्ति के न्यायालय के सामने महात्मा गांधी की एक आदमकद प्रतिमा का अनावरण 1 अगस्त, 1996 को किया गया था, लेकिन संविधान निर्माता डॉ बी.आर. अम्बेडकर की प्रतिमा की स्थापना के लिए भी देश को दशकों तक इंतज़ार करना पड़ा. बाबासाहेब अम्बेडकर की 7 फुट ऊंची प्रतिमा का अनावरण 26 नवंबर, 2023 को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने ही किया.

न्याय का प्रतीक ही नहीं, भाव भी बदला

सर्वोच्च न्यायालय की शुरुआत जब 28 जनवरी, 1950 को पुराने संसद भवन के एक हिस्से में की गई थी, तब अंग्रेज़ों द्वारा बनाए गए कानूनों के तहत ही न्यायिक प्रक्रिया शुरू हुई, जबकि दो दिन पहले, यानी 26 जनवरी, 1950 को हमारे पास अपना संविधान बनकर तैयार हो चुका था. अंग्रेज़ों द्वारा भारतीयों को गुलाम बनाए रखने की दृष्टि से तैयार किए गए कानून - भारतीय दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत ही काम शुरू हुआ और गुलामी की दृष्टि रखने वाला यह कानून भी 75 साल तक चलता रहा. इन 75 सालों के दौरान सर्वोच्च न्यायालय का भवन तो बदल गया, लेकिन सोच और अवधारणाएं ब्रिटिश काल की ही बनी रहीं. स्थापना के 8 साल बाद 4 अगस्त, 1958 को सर्वोच्च न्यायालय को वर्तमान भवन मिल चुका था, लेकिन ब्रिटिश काल के भारतीय दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम दशकों तक चलते रहे, जो इस साल 1 जुलाई को जाकर बदले हैं. अब देश में भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, और भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत अदालतों ने काम करना शुरू कर दिया है.

न्यायिक प्रक्रिया में भी बदलाव की शुरुआत

26 जनवरी, 1950 को भारत के लोगों ने संविधान को आत्मसात कर अपने को संप्रभु तो घोषित कर दिया, लेकिन देश की न्यायिक प्रक्रिया इतनी जटिल और धीमी पड़ गई कि देश के आमजन को अदालतों की प्रक्रिया पूरी करने में दशकों लगने लगे. 75 साल में देश के न्यायिक तंत्र के पास करीब 5 करोड़ 8 लाख 85 हज़ार 856 मामले न्याय करने के लिए लंबित है. इनमें से 80 हज़ार से अधिक मामले सुप्रीम कोर्ट के पास ही हैं और देश के उच्च न्यायालयों में करीब 60 लाख से अधिक मामले लंबित हैं. बाकी सारे मामले निचली अदालतों में लंबित हैं. लेकिन पिछले 10 सालों में इस पूरी व्यवस्था को बदलने के लिए ई-कोर्ट मिशन पर तेज़ी से काम चल रहा है. इसके तहत देश की सभी छोटी-बड़ी अदालतों को आधुनिक टेक्नोलॉजी से लैस किया जा रहा है, सभी अदालती दस्तावेज़ का डिजिटलीकरण हो रहा है. इसका परिणाम यह हो रहा है कि अदालती दस्तावेज़ कम्यूटर के माध्यम से तुरंत ही सभी को उपलब्ध हो जा रहे हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने ई-कोर्ट प्रोजेक्ट के चौथे चरण के लिए करीब ₹7,210 करोड़ का बजट दिया है. यह चौथा चरण चार साल में पूरा हो जाएगा. न्यायिक तंत्र से मिलने वाले न्याय में देरी के बावजूद हर भारतीय को देश की न्यायपालिका पर पूर्ण विश्वास है, क्योंकि देश की 140 करोड़ जनता प्रजातंत्र को ही शासन व्यवस्था का सही विकल्प मानती है. 31 अगस्त को सर्वोच्च न्यायालय की 75वीं वर्षगांठ पर डाक टिकट और सिक्का जारी करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा, "भारत के लोगों ने कभी सुप्रीम कोर्ट पर, हमारी न्यायपालिका पर अविश्वास नहीं किया, इसलिए सुप्रीम कोर्ट के ये 75 वर्ष, मदर ऑफ़ डेमोक्रेसी के रूप में भारत के गौरव को और बढ़ाते हैं... आज़ादी के अमृतकाल में 140 करोड़ देशवासियों का एक ही सपना है - विकसित भारत, नया भारत... नया भारत, यानी सोच और संकल्प से एक आधुनिक भारत... हमारी न्यायपालिका इस विज़न का एक मज़बूत स्तम्भ है..."

औपनिवेशिक मानसिकता से आज़ादी का दौर

पिछले एक दशक से देश ने एक नई अंगड़ाई ली है, और अपने आपको गुलामी के कालखंड के प्रतीकों और विचारों से मुक्त कर रहा है. इस दौर में 1500 ऐसे कानून खत्म हो चुके हैं, जो देश को सिर्फ़ गुलाम बनाए रखने की मानसिकता से बनाए गए थे. इसी दौर में देश को भारतीय परंपराओं और संस्कृति से सुसज्जित नया संसद भवन मिला है. 1950 में नौसेना के लिए जो ध्वज अपनाया गया, उसमें जॉर्ज क्रॉस के बीचोबीच सुनहरे रंग का अशोक स्तंभ था, लेकिन 2022 में इस ध्वज को पूरी तरह बदल दिया गया. अब इसमें शिवाजी महाराज के चिह्न, उसके अंदर लंगर और उस पर बने अशोक स्तंभ को नीले बैकग्राउंड पर सुनहरा रंग दिया गया है. अशोक स्तंभ के नीचे 'सत्यमेव जयते' और लंगर के नीचे 'शं नो वरुणः' लिखा है. यही नहीं, राष्ट्रीय रेडियो प्रसारण को अंग्रेज़ी में ऑल इंडिया रेडियो औऱ हिन्दी में आकाशवाणी के नाम से जाना जाता था. अब यह हिन्दी और अंग्रेजी दोनों में ही आकाशवाणी के नाम से जाना जाता है. इस तरह से पिछले एक दशक में अनेक ऐसे कदम उठाए गए हैं, जो भारतीयों को गुलामी की मानसिकता से मुक्त करने में सफल साबित हो रहे हैं.

हरीश चंद्र बर्णवाल वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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