सरकार दिखा रही है अदृश्य रोज़गार के अप्रत्यक्ष आंकड़े...

अपनी छवि बचाने के लिए केंद्र सरकार के पास एक ही रास्ता बचता है कि देश में जो कुछ हो रहा है, उन्हीं उद्यमों से रोज़गार पैदा होने के ज़्यादा से ज़्यादा आंकड़े ढूंढे.

सरकार दिखा रही है अदृश्य रोज़गार के अप्रत्यक्ष आंकड़े...

केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार बेरोज़गारी के मोर्चे पर बुरी तरह फंसी है...

अपनी केंद्र सरकार बेरोज़गारी के मोर्चे पर बुरी तरह फंसी है. अब तक तो यह कहकर काम चल जाया करता था कि रोज़गार पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन अब सरकार के कार्यकाल का लगभग सारा समय ही गुज़र गया है, सो, अचानक ये दावे किए जाने लगे हैं कि सरकार ने कितने करोड़ लोगों को रोज़गार दे दिया. मसलन, सबसे भारी रकम खर्च करने वाले केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने एक दलील रखी है कि उनके मंत्रालयों ने चार साल में एक करोड़ लोगों को रोज़गार मुहैया कराया. हालांकि अभी पक्के तौर पर पता नहीं है कि यह आंकड़ा कहां से आया. आंकड़े की विश्वसनीयता के बारे में उन्होंने खुद ही कहा है कि इस सिलसिले में हिसाब लगा रहे हैं और अपने दावे का गणित बाद में समझाएंगे. बहरहाल, लग रहा है कि आने वाले दिनों में गडकरी के अलावा केंद्र के दूसरे मंत्री भी अपने-अपने मंत्रालयों के ज़रिये पैदा हुए अप्रत्यक्ष रोज़गार के अनुमान लगाकर बताएंगे. उनके सामने भी यह चुनौती होगी कि यह साबित कैसे करें कि वाकई इतने करोड़ रोजगार उन्होंने पैदा कर दिए.

आखिर फंसी कहां है सरकार...?
मौजूदा सरकार दरअसल अपने चुनावी वायदे में फंसी है. साढ़े चार साल पहले, यानी लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान मौजूदा सरकार ने एक वायदा किया था कि अपने सुशासन से हर साल दो करोड़ नए रोज़गार पैदा करेंगे. यह वायदा सुनकर देश के युवा मोहित हो गए थे. उन्हें लगा था कि उन्हें सरकारी या संगठित क्षेत्र में नौकरी मिलेगी. युवा वर्ग अब तक इसी उम्मीद में है.

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सड़क परिवहन मंत्री की दलील का आधार...
केंद्रीय मंत्री की दलील को बेरोज़गारों ने ग़ौर से सुना होगा. सुना मीडिया ने भी है, लेकिन इस दावे का विश्लेषण अब तक नहीं हुआ. दावा नया-नया है, सो, हो सकता है कि देर-सबेर एक करोड़ रोज़गार दिए जाने के इस दावे की पड़ताल हो. फिर भी एक सरसरी नज़र उनकी दलीलों पर डाली जा सकती है. उनका दावा है कि पिछले चार साल में उनके मंत्रालयों के विभिन्न विभागों ने दस लाख करोड़ रुपये के ठेके दिए हैं. इसी आधार पर उनका अनुमान है कि इतने खर्चे से जो काम बड़ी ठेकेदार कंपनियां कर रही हैं, उनसे एक करोड़ लोगों को काम-धंधा या रोज़गार मिला ही होगा. यानी, उन्होंने हर साल औसतन ढाई लाख करोड़ रुपये के ठेकों के आधार पर चार साल में एक करोड़ नए रोज़गारों का आंकड़ा पैदा किया है.

आइए, इस दलील की थोड़ी जांच-पड़ताल करें...

क्या निर्माण के काम पहले नहीं होते थे...?
चाहे हाईवे हों या दूसरी सड़कें, आज़ादी के बाद से लगातार बनती आ रही हैं. आज़ादी के बाद से ही लगभग हर सरकार में प्रधानमंत्री सड़क परियोजनाओं का एक मकसद रोज़गार पैदा करने का भी होता था. इन कामों पर पहले से ही बीसियों लाख मज़दूर, मेट, सुपरवाइज़र, इंजीनियर लगे हैं. इस क्षेत्र ने दशकों पहले से ही पर्याप्त रोज़गार बना रखा है. दरअसल, ज़्यादातर सरकारों की दिलचस्पी ऐसे निर्माण कार्यों में होती ही है. यह बात भी सही हो सकती है कि मौजूदा सरकार ने सड़क बनाने के ठेके देने में ज्यादा दिलचस्पी ली. यानी, हो सकता है कि तुलनात्मक रूप से इस काम को मौजूदा सरकार ने कुछ ज़्यादा किया हो, लेकिन यह दावा जायज़ नहीं लगता कि ढाई लाख करोड़ रुपये प्रतिवर्ष इसीलिए खर्च हुआ, ताकि एक करोड़ रोज़गार पैदा हो जाएं. गौर करें, तो यह भी दिखेगा कि इतनी रकम के खर्च से भी एक करोड़ नए रोज़गार पैदा हो नहीं सकते.

एक हज़ार करोड़ के काम से एक लाख रोज़गार...?
यह अनुमानित आंकड़ा भी केंद्रीय मंत्री ने दिया है. अब तक किसी ने इस दलील को नहीं जांचा कि निर्माण के काम में कितनी रकम निर्माण सामग्री पर खर्च होती है और कितनी मज़दूरी या दूसरी सेवाओं पर, और न्यूनतम कितना मुनाफा ठेकेदार कंपनी के लिए होता है. वास्तुकारों और इंजीनियरों का अनुभव है कि एक करोड़ रुपये के सार्वजनिक निर्माण कार्य के लिए भूमि अधिग्रहण कार्यों, सर्वेक्षण, नियोजन पर कम से कम 10 लाख रुपये खर्च हो जाते हैं. 10 लाख रुपये ठेकेदारों पर निगरानी के लिए, और सरकारी अफसरों और इंजीनियरों की तनख्वाह पर खर्च होते हैं. कोई 35 लाख रुपये मैटीरियल पर खर्च होते हैं. किसी काम में 35 लाख का मैटीरियल लगाने पर 10 लाख रुपये ही मज़दूरी पर खर्च होने का हिसाब है. बाकी 35 फीसदी रकम ठेकेदारों के दूसरे खर्चां और उनके अपने मुनाफे के लिए होती है.

यानी एक करोड़ के काम में रोजगार पैदा होने के लिए सिर्फ 10 लाख रुपये की ही भूमिका है. इस तरह एक हज़ार करोड़ के काम में 100 करोड़ रुपये ही रोज़गार पैदा करने की गुंजाइश बना सकते है. औसतन 300 रुपये रोज़ के मज़दूर को साल भर तक रोज़गार देने के लिए कम से कम एक लाख रुपये चाहिए. एक हज़ार करोड़ रुपये के काम में मज़दूरी के हिस्से के 100 करोड़ रुपये बैठते हैं. इससे 10,000 लोगों को ही रोज़गार मिल पाना संभव है. केंद्रीय मंत्री के दावे का एक बटा दस. यानी एक करोड़ रोज़गार पैदा होने की बजाय सिर्फ 10 लाख रोज़गारों का ही आंकड़ा बनता है. अब अगर कोई निर्माण सामग्री के निर्माण में भी रोजगार के मौके ढ़ूंढे, तो यह बात गलत इसलिए है, क्योंकि औद्योगिक उत्पादन से जुड़े दूसरे मंत्रालय उसके लिए अलग दावा करते हैं.

मसला पूरे देश में बेरोज़गारी का है...
सरकार ने तो पहले से ही पेशबंदी कर रखी है. सरकारी सलाहकार परिषद ने पहले से ही ऐलान कर रखा है कि सरकार के पास बेरोज़गारी के आंकड़े नहीं हैं (यह भी पढ़ें : बेरोज़गारी के आंकड़ों का अज्ञान). NDTV के इसी स्तंभ में लगभग ढाई साल पहले एक शोधपरक आलेख (यह भी पढ़ें : बेरोज़गारी पर ध्यान देने का बिल्कुल सही समय) लिखा गया था, जिसमें भयावह तौर पर बढ़ती बेरोज़गारी के अनुमानित आंकड़े देते हुए कुछ सुझाव दिए गए थे. उसके मुताबिक देश में हर साल दो करोड़ युवा बेरोज़गारी की लाइन में आकर जुड़ जाते हैं. तब के बाद से इस समय तक देश में पूर्ण बेरोज़गारों का नया अनुमान 12 से 15 करोड़ का आंकड़ा पार कर जाने का है. इससे भी बड़ी संख्या और समस्या आंशिक रोज़गार पाने वालों की है. मसला इतना बड़ा है कि इसे अप्रत्यक्ष, अदृश्य रोज़गार के नए-नए आंकड़े पैदा करके ढंका नहीं जा सकेगा.

क्या अभी भी हो सकता है कोई राजनीतिक फैसला...?
मौजूदा सरकार के कार्यकाल में ज़्यादा समय नहीं बचा है. युद्धस्तर पर रोज़गार पैदा करने का कोई अभियान सोचने के लिए भी कम से कम एक साल का वक्त चाहिए होता है. और फिर खर्चे का भी सवाल है. अपने कार्यकाल के आखिरी महीनों में सरकार के सामने पहले से कर रखे दसियों लोकलुभावन वायदों का दबाव भी है. लिहाज़ा लगता नहीं है कि रोज़गार के किसी अभियान को छेड़ा जा सकेगा. अपनी छवि बचाने के लिए केंद्र सरकार के पास एक ही रास्ता बचता है कि देश में जो कुछ हो रहा है, उन्हीं उद्यमों से रोज़गार पैदा होने के ज़्यादा से ज़्यादा आंकड़े ढूंढे.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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