एक अच्छी-प्यारी सी ताजी खबर और हम भारतीयों के लिए काफी-कुछ चौंकाने वाली भी. खबर यह है कि ब्रिटेन की सरकार ने अपने यहां के दस पाउंड वाले नोट पर अपनी मशहूर लेखिका जेन आस्टिन की तस्वीर छापी है. ऐसा वह इससे भी पहले अपने यहां की चिकित्सा-सेविका (नर्स) फ्लोरेंस नाइटेंगल का चित्र छापकर कर चुकी है. इससे भी बड़ी तारीफ की बात यह कि उसने यह घोषणा कर दी है कि तीन साल बाद वह बीस पाउंड के नोट पर अपने यहां के चित्रकार जोसेफ मिलार्ड विलियम टर्नर का फोटो छापेगी, बावजूद इसके कि वहां का एक वर्ग इस नीति का विरोध भी कर रहा है. आलोचकों का कहना है, जो वैधानिक रूप से थोड़ा सही भी मालूम पड़ता है कि करेंसी एक वैध सरकारी प्रतिश्रुति है, इसलिए उस पर महारानी का ही चित्र होना चाहिए.
इस घटना ने अनायास ही मुझे एक ताजी घटना की याद दिला दी. चार महीने पहले ही जब मैंने रोम में एक व्यक्ति से ‘रोम एयरपोर्ट’ का रास्ता पूछा, तो उसने मुझे करेक्ट करते हुए कहा था, ‘लियोनार्दो द विंची एयरपोर्ट’. लियोनार्दो इटली के पुनर्जागरण काल के एक महान शिल्पकार, चित्रकार, इंजीनियर थे, जिनके बनाए गए चित्र ‘मोनालिसा’ की मूल कृति को देखने वालों की हमेशा इतनी भीड़ रहती है कि उस पेन्टिग को नजदीक से देख पाना किस्मत की बात बन जाती है.
यहां यह जानना भी कम दिलचस्प नहीं होगा कि इन्हीं के समकालीन शिल्पकार एवं चित्रकार माइकल एंजेलो की समाधि फ्लोरेंस के एक विशाल चर्च में है, ठीक उसी तरह, जैसे कि वास्को डी-गामा की समाधि पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन की सबसे प्रसिद्ध एवं भव्य चर्च में, जहां वे राजाओं के बगल में लेटे हुए हैं. मुझे इससे भी बड़ी बात यह लगी कि जिस चर्च में एंजेलो चिरनिद्रा में सो रहे हैं, उसके बाहर ईसा मसीह, किसी पोप, किसी पादरी, किसी रोमन देवता या यहां तक कि जूलियट सीजर और आगस्टक जैसे वहां के महान शासकों की प्रतिमा न होकर वहां के भूगोलवेत्ता निकोलो कोन्टी की धवल प्रतिमा खड़ी है.
अब आप जरा ऊपर की इन बातों की तुलना महान सांस्कृतिक राष्ट्र भारत से करें. आपको राष्ट्रीय महत्व के लगभग 80-85 प्रतिशत स्थानों, भवनों, संस्थाओं तथा सड़कों आदि-आदि के नाम केवल राज व्यवस्थाओं से जुड़े हुए लोगों के मिलेंगे. आर्यभट्ट, भामा तथा सतीश धन जैसे कुछ एक नाम ही ऐसे हैं, जिन्हें यह सम्मान मिल पाया है अन्यथा तो भोपाल स्थित प्रसिद्ध राष्ट्रीय मानव संग्रहालय के आगे भी एक प्रधानमंत्री का नाम चस्पा है. एयरपोर्टों की बात तो छोड़ ही दीजिए.
बात यहां ही खत्म नहीं होती. यह खत्म होती है अत्यन्त विध्वंस से. चाहे वह गालिब की हवेली हो या मुंशी प्रेमचन्द का मकान, उनकी कोई सुध लेने वाला नहीं है, सिवाय कुछ संवेदनशील साहित्यप्रेमियों के. या फिर यदि गरज हो तो उनके परिवार वालों को देखें. महान गायक मोहम्मद रफी की मजार को कौन जानता है? किशोर कुमार के मकान को बचाने के लाले पड़े हुए हैं. कुछ दिनों पहले ही मध्य प्रदेश सरकार ने महान जन शायर दुष्यन्त कुमार के भोपाल स्थित मकान को इसलिए गिरा दिया, क्योंकि वह घर स्मार्ट सिटी के घेरे में आ रहा था. ऐसे एक नहीं कई-कई उदाहरण हैं. ये बानगी मात्र हैं. दरअसल, इन सबके माध्यम से मैं अपनी दो मुख्य चिन्ताएं व्यक्त करना चाह रहा हूं. पहली चिन्ता यह है कि जब राजनीति समाज के अन्य घटकों का सहारा बनने की बजाए अन्य घटकों पर अमरबेल की तरह पसरकर उनका सहारा लेने लगती है, तो समाज में तथा उसकी चेतना में एक भयावह असंतुलन की स्थिति पैदा हो जाती है. यह हमारे यहां आ चुकी है और इसके केन्द्र में वही तथ्य है, जिसकी चर्चा ऊपर की गई है.
दूसरी यह कि आज की राजनीति, जिसका सर्वाधिक जोर आर्थिक विकास पर है, पूरे जोर-शोर से नवोन्मेषता की बात कहती है. यहां विचार करने की बात यह है कि जिस समाज में सम्मान और अमरता का रास्ता राजनीति से होकर गुजरता हो, वहां कोई अन्य रास्ते से भला क्यों जाना चाहेगा?
डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
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This Article is From Sep 27, 2017
क्या आप महान गायक मोहम्मद रफी की मजार को जानते हैं? अगर नहीं तो ये बातें आपको चौंकाएंगी...
Dr Vijay Agrawal
- ब्लॉग,
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Updated:सितंबर 27, 2017 11:55 am IST
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Published On सितंबर 27, 2017 11:40 am IST
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Last Updated On सितंबर 27, 2017 11:55 am IST
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