दिवाली केवल एक उत्सव नहीं है बल्कि भारत की सांस्कृतिक आत्मा का उत्सव है. भारत के हर क्षेत्र में इसे अलग नाम, रूप और परंपराओं के साथ मनाया जाता है. किन्तु इनके पीछे की भावनाएं एक ही है. वास्तव में दिवाली कोई एक त्योहार ना होकर अनेक त्योहार और परंपराओं का अंतरमिश्रण है. प्रत्येक प्रांत और प्रत्येक समुदाय की परंपराएं इसमे मिलकर इसे वास्तव में ही एक राष्ट्रीय महापर्व का स्वरूप देती हैं. यह भारतीयता के सार का पर्व है, जिसमें विविधता में एकता के प्राचीन भारतीय समझ की झलक है.
दिवाली का उत्सव प्राचीन यक्ष संस्कृति, यम पूजन, इंद्र पूजा और दैत्य राज बलि की पूजा से जुड़ा हुआ है. बाद में इसमे रामायण, महाभारत, जैन और सिख परंपराएं भी जुड़ गई. मथुरा संग्रहालय में एक पैनल में लक्ष्मी और कुबेर की मूर्तियां एक साथ बनी हैं. एक समय लक्ष्मी के साथ धन के अधिष्ठाता कुबेर की उपासना प्रचलित था. आज भी भारत के कई हिस्सों में दिवाली की रात लक्ष्मी और गणेश के साथ कुबेर की उपासना प्रचलित है. लोकपर्व के अद्भुत व्याख्याता प्रोफेसर राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी जी ने दिवाली के यक्ष संस्कृति से जुड़े होने पर वात्स्यायन को उद्धृत करते हुए कहा है कि वात्स्यायन के कामसूत्र के टीकाकार यशोधर ने स्पष्ट रूप से दिवाली की रात्रि को यक्ष रात्रि कहा है. और 11वीं सदी के हेमचंद्र ने ‘जकखरात्री' कहा है. इसी यक्ष परंपरा के अनुसार लक्ष्मी के साथ कुबेर का पूजन किया जाता है. ऋग्वेद परिशिष्ट में श्री सूक्त का वर्णन है, उसके सातवें मंत्र में लक्ष्मी से प्रार्थना की जाती है, 'उपैतु मां देवसख: कीर्तिश्च मणिना सह', हे लक्ष्मी, मुझे उत्तम यश, रत्न, धन आदि के साथ देवताओं के सखा कुबेर और उनके मित्र मणिभद्र यक्ष की कृपा प्राप्त हो. आज भी व्रज और आसपास के क्षेत्रों में दिवाली पर कुबेर की मूर्ति की पूजा की जाती है. इन मूर्तियों के साथ मथुरा म्यूजियम में रखे मूर्तियों में सामंजस्य है. भारत के सांस्कृतिक सातत्य का यह एक अद्भुत उदाहरण है.

दिवाली के अवसर पर पश्चिम बंगाल में देवी काली की पूजा की जाती है.
कब से होता है दीवाली का आरंभ
दीपावली का आरंभ यूं तो कार्तिक कृष्ण एकादशी से हो जाता है. इस एकादशी का नाम रमा एकादशी है, जो लक्ष्मी का ही एक नाम है. पर्व का प्रारंभ इसी दिन से हो जाता है. इसके पश्चात लोक प्रसिद्ध धनतेरस का पर्व आता है. यूं तो यह आयुर्वेद के प्रणेता धन्वंतरि से जुड़ा है और प्राचीन यम संसकफीती भी इसमे अंतर्हित हो गई है, किन्तु लोकमन ने इसे भी धन से जोड़ दिया है और सुवर्ण खरीदना एक लोकाचार बन गया है. इसके साथ ही प्राचीन यम संस्कृति भी दिवाली का अंग है, धनतेरस की शाम घर के बाहर यम-दीप और दिवाली के बाद भाई दूज पर्व भी यम और उनकी बहन यमुना से जुड़ा है. यम का भारतीय संस्कृति में बड़ा स्थान रहा है. वह केवल मृत्यु के देव नहीं हैं, कठोपनिषद में नचिकेता को ब्रह्म ज्ञान देने वाले गुरु और भागवत पुराण में वर्णित बारह प्रसिद्ध वैष्णव आचार्यों में यम एक हैं. जीवन के परम सत्य मृत्यु के प्रति दीनता का भाव आनंद और उमंग की परिस्थिति में भी सर्वदा बनी रहे और मृत्यु अकस्मात आनंद के क्षणों को ग्रास ना बनाए, इसी संदर्भ में यम को दीप दिखाकर अकाल मृत्यु ना होने की कामना की जाती है. यम की बहन यमी (यमुना) और दोनों का संवाद ऋग वेद के दशम मण्डल में वर्णित है. यह संवाद, पारिवारिक नैतिकता, भाई बहन के पवित्र संबंध और समाज व्यवस्था के विकास को दर्शाता है. ऋग्वेद के यम और यमी ही दिवाली महापर्व के भाई दूज त्योहार के मूल में है.
कृषि सभ्यता का पर्व दीपावली
दीपावली पर्व का ही विस्तार अन्नकूट और गोवर्धन पूजन है. किसी समय दीपावली के आस पास देव राज इंद्र की पूजा की जाति थी. भागवत और विष्णु पुराण में वर्णन है की, कृष्ण के पिता नन्द बाबा अन्य गोपों के साथ इंद्र पूजन की तैयारी कर रहे हैं. बालक कृष्ण नन्द से इंद्र पूजन के स्थान पर गोवर्धन पर्वत को पूजने कहते हैं, क्योंकि गोवर्धन ही पशुओं के लिए घास, जल और औषधि प्रदान करने वाले गो-वर्धन है-गौ रूपी संपत्ति को बढ़ाने वाले हैं. सूरदास जी ने भी दीपावली पर इंद्र पूजन की बात कही है, जिसे कृष्ण ने बदल दिया. व्रज की लोक परंपरा में गौ के गोबर से गोवर्धन बनाकर उसका पूजन किया जाता है. गौ को वृहद आरण्यक उपनिषद में विश्व का प्रतीक कहा गया है. श्रुतियों का दर्शन ही लोकपरंपरा में दिखता है. वास्तव में दीपावली कृषि सभ्यता का पर्व है और इसमे गौ धन सर्वोपरि है. दिवाली के पहले आने वाली द्वादशी को गौ वत्स द्वादशी कहा गया है. पूरे कार्तिक मास में गौ संबंधित अनेकों पर्व आते हैं. कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी गोपाष्टमी कहलाती है, इसी दीन कृष्ण प्रथम बार अपने ग्वाल सखाओं के साथ गौ चराने जाते हैं. भारतीय संस्कृति में गौ पूजन, गौर रक्षण और गौ संवर्धन का दर्शन यहां के पर्वों के साथ भली-भांति जुड़ा हुआ है. दिवाली का प्रत्येक पर्व इसी ओर इंगित करता है.

लक्ष्मी गणेश की पूजा के लिए कमल के फूल का भी इस्तेमाल किया जाता है.
लोकपर्व के साथ-साथ दिवाली में कई शास्त्रीय मान्यताएं भी जुड़ी हैं, राम् के अयोध्या लौटने, पांडवों के वनवास से लौटने की कथाओं से हम सब परिचित हैं. जैन परंपरा में दिवाली भगवान महावीर के निर्वाण से जुड़ा महापर्व है. सिख पंथ में इसे श्री गुर हरगोविंद सिंह जी की जेल से मुक्ति का बंदी छोड़ दिवस है. कथित है की गुरु हरगोविंद सिंह को जहांगीर ने जेल में डाल दिया था. बाद में उनको रिहा करने की बात हुई तो उन्होंने अपने साथी 52 लोगों की रिहाई के बिना स्वयं की रिहाई मना कर दी. कहते हैं कि जहांगीर ने शर्त रखी की उनकी पगड़ी में जितने लोग बंध जाएं, सबको रिहाई दी जाएगी. गुरु जी ने एक लंबी पगड़ी बनवाकर सभी 52 कैदियों को मुक्त कराया.
भारतीयता का प्रतीक दिवाली
इस प्रकार यह पर्व सांस्कृतिक विविधता में एकता का एक अनुपम संयोग है. उत्तर भारत में राम् संबंधित कथा, दक्षिण में कृष्ण के नर्कसुर वाढ का प्रसंग, पूर्व में शक्ति की उपासना काली पूजन. और समस्त भारत में लक्ष्मी गणेश का पूजन, विविध रूपों में एक ही चेतना को दर्शाती है.
भारतीय चिंतन परंपरा में 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' अंधकार से प्रकाश की ओर यात्रा, हमारा राष्ट्रीय दर्शन है. यही दीपावली का मुख्य चेतना है. दीपक ज्ञान, सदाचार और आत्मप्रकाश का प्रतीक है. बौद्ध दर्शन में कहा गया है 'अप्प दीपो भव' हम स्वयं के पथ प्रदर्शक बने. अर्थात दीपक की तुलना सन्मार्ग से की गई है जो जीवन में प्रकाश लाती है. अतः यह पर्व है आत्मचिंतन, अतमशुद्धि और नवीन आरंभ का.

आज की वैश्विक दुनिया में दिवाली भारतीयता की एक पहचान बन चुकी है.
दिवाली पर्व भारत के सबसे बड़े आर्थिक गतिविधियों का समय है. सभी व्यापारिक प्रतिष्ठान और गृह स्वामी/स्वामिनी अपने वैभव को दिखाकर लक्ष्मी के आह्वान की भरपूर प्रयास करते हैं. इनके साथ ही छोटे कारीगर, दीपक बनाने वाले, मूर्तियों को बनाने वाले, बुनकरों, रंगोली और सजावट के कारीगर सभी लोग इस पर्व में अपना योगदान देते हैं. समाज के हर समुदाय और हर इकाई का इसमें योगदान ही इसे महापर्व बनाता है. आज बदलते आर्थिक परिदृश्य में जहा बड़े मॉल हर क्षेत्र में अपनी पैठ बना रहे हैं, वहीं दिवाली जैसे पर्वों के कारण आज भी अर्थव्यवस्था के छोटे खिलाड़ी अपना स्थान बनाए रखे हुए हैं. आज के वैश्वीकरण और भागदौड़ में दिवाली हमें अपनेपन और सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ती है. ट्रेनों की भीड़, स्टेशन जाने की जद्दोजहद के बीच यह साल भर इकट्ठा की गई अनुभवों को अपनों के साथ बांटने का समय है. भारतीय मूल के समुदायों ने इसे वैश्विक पर्व बना दिया है. दीपावली आज भारत के लिए एक सॉफ्ट पावर है. वैश्विक स्तर पर यह इंडियननेस का प्रतीक है.
डिस्केलमर: डॉक्टर संदीप चटर्जी, दिल्ली विश्विद्यालय के शहीद भगत सिंह कॉलेज में इतिहास पढ़ाते हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उससे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.