पन्ने बेलगाम हो गए हैं. कभी अख़बार के ज़रिए बाहर आ जा रहे हैं तो कभी सरकार के ज़रिए बाहर आ जा रहे हैं. भारत के आकाश में रफाल ने अभी उड़ना शुरू नहीं किया है कि उसकी फाइलों के पन्ने उड़ाए जाने लगे हैं. शुक्रवार को दि हिन्दू अखबार की एक खबर की प्रतिक्रिया में लगा कि सारी फाइल ही बाहर आ जाएगी मगर दो तीन पन्ने बाज़ार में आ गए. दि हिन्दू अखबार के पहले पन्ने पर 24 नवंबर 2015 की यह नोटिंग छपी है. इस नोटिंग के ज़रिए इस खबर को सामने लाने वाले एन राम मूल प्रश्न यह उठाते हैं कि रक्षा मंत्री, रक्षा सचिव और रक्षा सौदों की खरीद के लिए बनी टीम को पता ही नहीं था कि प्रधानमंत्री मोदी का कार्यालय फ्रांस से अपने स्तर पर बातचीत कर रहा है. इस नोटिंग में रक्षा सचिव इस बात पर एतराज़ ज़ाहिर करते हैं कि अगर प्रधानमंत्री कार्यालय को भरोसा नहीं है तो वह डील के लिए अपनी कोई नई व्यवस्था बना ले. जाहिर है जो कमेटी कई साल से काम कर रही है, अचानक उसे बताए बगैर या भंग किए बगैर प्रधानमंत्री कार्यालय सक्रिय हो जाए तो किसी को भी बुरा लगेगा. इसका खंडन करने वाले यह भी बताएं कि मनोहर पर्रिकर जैसे काबिल रक्षा मंत्री, रक्षा खरीद के लिए बनी कमेटी के प्रमुख एयर मार्शल एस बी पी सिन्हा की टीम से ऐसा कौन सा काम नहीं हो पा रहा था जिसके लिए प्रधानमंत्री कार्यालय को आगे आना पड़ा. क्या रक्षा की टीम ने प्रधानमंत्री कार्यालय से कहा था कि हमसे नहीं हो पा रहा है. आप कुछ कीजिए. यह स्टोरी इसी बारे में है.
रफाल विमान को खरीदने के लिए रक्षा मंत्रालय में एक टीम बनाई गई थी जिसके मुखिया भारतीय वायुसेना के डिप्टी चीफ एयरमार्शल एस बी सिन्हा थे. उसी तरफ फ्रांस में भी एक टीम बनी थी जिसके मुखिया जनरल रैब थे. 24 नवंबर 2015 को रक्षा मंत्रालय एक नोट बनाता है और जिसे हिन्दू ने छाप दिया है. इसमें लिखा है कि हमें प्रधानमंत्री कार्यालय को सुझाव देना चाहिए कि कोई भी अफसर जो खरीद और मोलभाव के लिए बनी टीम का हिस्सा नहीं है, समानांतर स्तर पर फ्रांस की सरकार से बातचीत न करें. अगर प्रधानमंत्री कार्यालय को रक्षा मंत्रालय की टीम की बातचीत पर भरोसा नहीं है तब ऐसी स्थिति में उचित स्तर पर प्रधानमंत्री कार्यालय ही बातचीत की नई व्यवस्था बना ले.
किसी भी स्थिति में 24 नवंबर 2015 का यह पत्र प्रधानमंत्री कार्यालय के हस्तक्षेपर पर कड़ी टिप्पणी है. क्या यह सख्त टिप्पणी नहीं है कि रक्षा मंत्रालय की टीम पर भरोसा नहीं है तो प्रधानमंत्री कार्यालय अपनी अलग व्यवस्था बना ले. इस पत्र में जो लिखा है उसे रक्षा मंत्रालय के तीन बड़े अधिकारियों ने समहति जताई है जिसमें खरीद टीम के अध्यक्ष एयरमार्शल एस बी पी सिन्हा शामिल हैं. इसके पैराग्राफ 5 में साफ लिखा है कि 'प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा इस तरह समानांतर तौर पर चर्चा करने से रक्षा मंत्रालय और भारतीय टीम की स्थिति कमज़ोर होती है. हमें प्रधानमंत्री कार्यालय को सुझाव देना चाहिए कि कोई भी अफसर जो बातचीत की टीम का हिस्सा नहीं है फ्रांस सरकार के अधिकारियों से अपने स्तर पर बातचीत न करें. अगर प्रधानमंत्री कार्यालय को रक्षा मंत्रालय की टीम की कोशिशों के नतीजों पर भरोसा नहीं है तो प्रधानमंत्री खुद अपने स्तर पर बातचीत की नई व्यवस्था बना ले.
क्या यह सामान्य टिप्पणी है. तीन अफसरों की सहमति वाली नोटिंग पर रक्षा सचिव एतराज़ ज़ाहिर नहीं करते हैं. बल्कि उसे आगे बढ़ाने के लिए हाथ से लिख देते हैं कि रक्षा मंत्री देख लें. सिर्फ देखने की बात नहीं करते हैं बल्कि वे भी उसी लाइन में कड़ी टिप्पणी करते हैं कि उम्मीद की जाती है कि प्रधानमंत्री कार्यालय इस तरह की चर्चा न करे क्योंकि इससे हमारी टीम की स्थिति कमज़ोर होती है.
ये रक्षा सचिव की टिप्पणी है. मूंगफली के ठेले पर सौदा नहीं हो रहा है कि उधर से मूंगफली मांग कर ठेले के इधर से दो मूंगफली चुपके से उठा ली. दो मुल्कों के बीच सौदा हो रहा है. क्या सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को दिए जवाब में यह बताया है कि इस डील में प्रधानमंत्री कार्यालय भी शामिल था जिसकी जानकारी रक्षा मंत्रालय को नहीं थी?
दिल्ली में फ्रांस के तब के राष्ट्रपति ओलान्द और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस रक्षा सौदे पर करार करते हैं. 10 अप्रैल 2015 को पेरिस में डील का एलान हो चुका होता है. उसके बाद 23 सितंबर 2016 को दोनों देशों के बीच सहमति पत्र पर समझौता हो जाता है. एक महीने बाद रक्षा मंत्रालय को 23 अक्तूबर 2015 को फ्रांस के जनरल स्टीफन रेब के पत्र से पता चलता है कि प्रधानमंत्री कार्यालय के संयुक्त सचिव जावेद अशरफ और फ्रांस के रक्षा मंत्रालय के कूटनीतिक सलाहकार लुई वेस्सी के बीच टेलिफोन पर बातचीत हुई थी. इस पत्र के पहले तक यही पता नहीं था कि प्रधानमंत्री कार्यालय भी इस डील में कोई भूमिका अदा कर रहा है.
यह सब हिन्दू अखबार में छपा है उसका हिस्सा बता रहा हूं. प्रधानमंत्री कार्यालय अपने स्तर पर कुछ कर रहा है इसकी भनक फ्रांस के जनरल स्टीफन रेब से लगती है न कि प्रधानमंत्री कार्यालय खुद बताता है. भारतीय टीम के जो मुखिया थे एयर मार्शल एस बी पी सिन्हा वे भी संयुक्त सचिव जावेद अशरफ को पत्र लिखते हैं. क्या जावेद अशरफ अपने स्तर पर बातचीत कर रहे थे या वे किसी के कहने पर बातचीत कर रहे थे. इसी के जवाब में जावेद अशरफ इसकी पुष्टि कर देते हैं कि उनकी कूटनीतिक सलाहकार लुई वेस्सी से चर्चा हुई थी. जावेद अशरफ यही पर एक बात कहते हैं कि लुई वेस्सी ने फ्रांस के राष्ट्रपति की सलाह पर उनसे बात की थी.
आपको यहां पर याद दिला दें कि पिछले साल 21 सितंबर एसोसिएट प्रेस को कहा था कि मोदी सरकार सत्ता में आने के बाद नया फार्मूला बनाती है उसी में चर्चा के दौरान रिलायंस ग्रुप का नाम आता है. नवंबर के नोट में लिखा गया है कि इस तरह से बातचीत करने से भारतीय टीम की मोलभाव करने की क्षमता बुरी तरह प्रभावित होती है. फ्रांस की साइड को लाभ मिल सकता था. और यही इस केस में हुआ.
रक्षा मंत्रालय और विमान की खरीद की बातचीत के लिए बनी टीम लंबे समय से इस बात की कोशिश कर रही थी कि फ्रांस सरकार या तो अपने स्तर पर गारंटी दे या फिर बैंक गारंटी दे. मगर रक्षा मंत्रालय इस बात पर एतराज़ जताता है कि बिना बैंक गारंटी या संप्रभु गारंटी के ही डील हो रही है. सिर्फ लेटर आफ कंफर्ट जारी हो रहा है. जो मात्र आश्वासन है कि सभी शर्तों को पूरा किया जाएगा. राहुल गांधी ने प्रेस कांफ्रेंस की और फिर से कहा कि वे जो डेढ़ साल से कहने का प्रयास कर रहे हैं वो सही साबित होता जा रहा है.
ज़ाहिर है बीजेपी की भी प्रतिक्रिया आनी थी. संसद में निर्मला सीतरमण ने इस मुद्दे को मरा हुआ घोड़ा बताया. जहाज़ों की लड़ाई में बेचारा घोड़ा मारा गया. निर्मला सीतारमण ने एक सवाल उठाया कि अखबार ने सिर्फ आधा हिस्सा छापा. यानी जहां तक रक्षा सौदे की टीम की टिप्पणी है और रक्षा सचिव की नोटिंग है कि रक्षा मंत्री आप देख लो, वही छापा मगर रक्षा मंत्री का जवाब नहीं छापा.
निर्मला सीतारमण के इस सवाल पर अलग से बहस हो सकती है, हो सकता है अखबार ने दूसरा हिस्सा दूसरे दिन की खबर के लिए रखा हो मगर क्या यह अच्छी बात नहीं है कि जो सरकार सिर्फ सुप्रीम कोर्ट को दस्तावेज़ दिखाना चाहती थी वो अब खुद ही फाइल के एक पन्ने को बाहर लाने के लिए मजबूर हो जाती है. निर्मला सीतारमण अपने जवाब में एक बात गोल कर गई. जो छपा है उसमें रक्षा सचिव सिर्फ यही नहीं कह रहे कि रक्षा मंत्री देख लो बल्कि यह भी कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री स्वतंत्र रूप से जो बातचीत कर रहा है, उससे रक्षा मंत्रालय की स्थिति कमज़ोर होती है. प्रधानमंत्री कार्यालय ने रक्षा मंत्रालय को क्यों नहीं बताया कि वह भी कुछ कर रहा है.
यही वो पूरा पन्ना है जिसे रक्षा मंत्री चाहती थीं कि हिन्दू अखबार को पूरा छापना चाहिए था. इस फाइल पर आप एक बात पर गौर करें. यहां पर पर्रिकर साहब का दस्तखत है वो 11 जनवरी 2016 का है. जबकि पहली नोटिंग पर रक्षा मंत्रालय के अधिकारी का साइन 24 नवंबर 2015 का है. इस पन्ने पर रक्षा मंत्री ने लिखा है कि ऐसी प्रतीत होता है कि प्रधानमंत्री कार्यालय और फ्रांस का राष्ट्रपति कार्यालय इस मसले की प्रगति को मोनिटर कर रहा है. जो समिट मीटिंग में तय हुआ था. रक्षा मंत्री को भी पता नहीं है वे भी लिखते हैं कि इट अपीयर्स यानी प्रतीत होता है. पर्रिकर लिखते हैं कि पैरा 5 में जो प्रतिक्रिया दी गई है वो ज़्यादा है. रक्षा सचिव इस मामले को प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव से मिलकर सुझाएं. अब अगर ये जवाब है तो सरकार को एक बार फिर से सोचना चाहिए कि वह सही जवाब दे रही है या नहीं. रक्षा मंत्री के अनुसार एक साल पहले यानी अप्रैल 2015 में पेरिस में जो तय हुआ था उसके बाद प्रधानमंत्री कार्यालय मोनिटर कर रहा है.
यानी अप्रैल 2015 से लेकर नवंबर 2015 तक प्रधानमंत्री कार्यालय अपने ही रक्षा मंत्री, रक्षा मंत्रालय की उस टीम को नहीं बताता है जो इस काम के लिए बनी थी. आप तय करें कि ऐसा करना मानिटरिंग कहलाएगा या प्रक्रिया को बाइपास करना कहलाएगा.
निर्मला जी कह रही है कि पीएमओ का उनके मंत्रालय से बार बार पूछना कि प्रोग्रेस हो रही है या क्या. इसको हस्तक्षेप माना जा सकता है. लेकिन फाइल पर तो ये लिखा है कि पीएमओ अपने आप बिना बताए सबकुछ कर रहा है. सवाल यहां है रक्षा मंत्रालय को भरोसे में नहीं लेने का. जवाब दिया जा रहा है कि पीएमओ का पूछना हस्तक्षेप है या नहीं. निर्मला जी बताएं कि रक्षा सचिव की नोटिंग के पहले कब पीएमओ ने इस बारे में उनसे या खरीद के लिए बनी टीम से पूछा था.
बिल्कुल हिन्दू में भी कीमतों को लेकर कुछ नहीं छपा है. क्या गोल मोल जवाब देने की जगह पूर्व रक्षा सचिव को उस बात पर जवाब नहीं देना चाहिए जो उन्होंने फाइल पर लिखी है. फिर उन्होंने फाइल पर यह बात क्यों लिखी है कि अगर अगर प्रधानमंत्री कार्यालय को रक्षा मंत्रालय की टीम की बातचीत पर भरोसा नहीं है तब ऐसी स्थिति में उचित स्तर पर प्रधानमंत्री कार्यालय ही बातचीत की नई व्यवस्था बना ले. फाइल में क्यों लिखा जाता है कि रक्षा मंत्रालय, रक्षा सचिव, खरीद के लिए बनी टीम को फ्रांस की साइड से आए पत्र से पता चलता है कि प्रधानमंत्री कार्यालय अपने स्तर पर इस डील में बातचीत कर रहा है. रक्षा मंत्री कह रही हैं कि प्रधानमंत्री कार्यालय का प्रगति के बारे में पूछना हस्तक्षेप नहीं है. क्या आपको दोनों बातें अलग नहीं लगती हैं. एक कह रहा है कि प्रधानमंत्री पूछ नहीं रहा है. रक्षा मंत्री नहीं पूछने को पूछना कह रही हैं.
अब दाम और डील की बात कहां से आ गई. खरीद समिति के अध्यक्ष एयर वाइस मार्शल एस बी पी सिन्हा का जवाब भी अलग प्रश्न का लगता है. मूल प्रश्न है कि 24 नवंबर 2015 के पत्र पर जो उन्होंने दस्तखत किए हैं उस पर क्यों लिखा है कि प्रधानमंत्री कार्यालय उनकी टीम की हैसियत को कमज़ोर कर रहा है, अपने स्तर पर मोलभाव कर रहा है. क्या अच्छा नही होता कि जब मीडिया में आ ही गए तो जो फाइल पर बात लिखी है उसका जवाब दिया जाता.
This Article is From Feb 09, 2019
रफाल का एक और सच हुआ बाहर
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:फ़रवरी 09, 2019 13:14 pm IST
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Published On फ़रवरी 09, 2019 01:14 am IST
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Last Updated On फ़रवरी 09, 2019 13:14 pm IST
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